https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: दिसंबर 2022

।। वेद पुराण शास्त्रों के अनुसार पत्नी वामांगी क्यों कहलाती है....? ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। वेद पुराण शास्त्रों के अनुसार पत्नी वामांगी क्यों कहलाती है....? ।।


वेद पुराण शास्त्रों में पत्नी को वामंगी कहा गया है, जिसका अर्थ होता है।

बाएं अंग का अधिकारी। 

इस लिए पुरुष के शरीर का बायां हिस्सा स्त्री का माना जाता है।

इसका कारण यह है कि भगवान शिव के बाएं अंग से स्त्री की उत्पत्ति हुई है।

जिसका प्रतीक है।

शिव का अर्धनारीश्वर शरीर। 

यही कारण है...!

कि हस्तरेखा विज्ञान की कुछ पुस्तकों में पुरुष के दाएं हाथ से पुरुष की और बाएं हाथ से स्त्री की स्थिति देखने की बात कही गयी है।

वेद पुराण और शास्त्रों में कहा गया है कि स्त्री पुरुष की वामांगी होती है।

इस लिए सोते समय और सभा में, सिंदूरदान, द्विरागमन, आशीर्वाद ग्रहण करते समय और भोजन के समय स्त्री पति के बायीं ओर रहना चाहिए। 

इस से शुभ फल की प्राप्ति होती।

वामांगी होने के बावजूद भी कुछ कामों में स्त्री को दायीं ओर रहने के बात शास्त्र कहता है। 

वेद पुराण और शास्त्रों में बताया गया है।






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कि कन्यादान, विवाह, यज्ञकर्म, जातकर्म, नामकरण और अन्न प्राशन के समय पत्नी को पति के दायीं ओर बैठना चाहिए।

पत्नी के पति के दाएं या बाएं बैठने संबंधी इस मान्यता के पीछे तर्क यह है।

कि जो कर्म संसारिक होते हैं। 

उसमें पत्नी पति के बायीं ओर बैठती है। 

क्योंकि यह कर्म स्त्री प्रधान कर्म माने जाते हैं।

यज्ञ, कन्यादान, विवाह यह सभी काम पारलौकिक माने जाते हैं।

और इन्हें पुरुष प्रधान माना गया है। 

इस लिए इन कर्मों में पत्नी के दायीं ओर बैठने के नियम हैं।

क्या आप जानते हैं?

सनातन धर्म में पत्नी को पति की वामांगी कहा गया है।

यानी कि पति के शरीर का बांया हिस्सा...!

इसके अलावा पत्नी को पति की अर्द्धांगिनी भी कहा जाता है।

जिसका अर्थ है।

पत्नी...!

पति के शरीर का आधा अंग होती है।

दोनों शब्दों का सार एक ही है।

जिसके अनुसार पत्नी के बिना पति अधूरा है।

पत्नी ही पति के जीवन को पूरा करती है।

उसे खुशहाली प्रदान करती है।

उसके परिवार का ख्याल रखती है।

और उसे वह सभी सुख प्रदान करती है जिसके वह योग्य है।

पति - पत्नी का रिश्ता दुनिया भर में बेहद महत्वपूर्ण बताया गया है।

चाहे सोसाइटी कैसी भी हो।

लोग कितने ही मॉर्डर्न क्यों ना हो जायें।

लेकिन पति - पत्नी के रिश्ते का रूप वही रहता है।

प्यार और आपसी समझ से बना हुआ।

हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ महाभारत में भी पति - पत्नी के महत्वपूर्ण रिश्ते के बारे में काफी कुछ कहा गया है।

भीष्म पितामह ने कहा था कि पत्नी को सदैव प्रसन्न रखना चाहिये।

क्योंकि..!

उसी से वंश की वृद्धि होती है।

वह घर की लक्ष्मी है और यदि लक्ष्मी प्रसन्न होगी तभी घर में खुशियां आयेगी।

इसके अलावा भी अनेक धार्मिक ग्रंथों में पत्नी के गुणों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है। 

आज हम आपको गरूड पुराण, जिसे लोक प्रचलित भाषा में गृहस्थों के कल्याण की पुराण भी कहा गया है।

उसमें उल्लिखित पत्नी के कुछ गुणों की संक्षिप्त व्याख्या करेंगे।

गरुण पुराण में पत्नी के जिन गुणों के बारे में बताया गया है।

उसके अनुसार जिस व्यक्ति की पत्नी में ये गुण हों।

उसे स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिये।

कहते हैं..!

पत्नी के सुख के मामले में देवराज इंद्र अति भाग्यशाली थे।

इस लिये गरुण पुराण के तथ्य यही कहते हैं।

सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा। 
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता।।

गरुण पुराण में पत्नी के गुणों को समझने वाला एक श्लोक मिलता है।

यानी जो पत्नी गृहकार्य में दक्ष है।

जो प्रियवादिनी है।

जिसके पति ही प्राण हैं और जो पतिपरायणा है...!

वास्तव में वही पत्नी है..!

गृह कार्य में दक्ष से तात्पर्य है।

वह पत्नी जो घर के काम काज संभालने वाली हो,..!

घर के सदस्यों का आदर - सम्मान करती हो।

बड़े से लेकर छोटों का भी ख्याल रखती हो। 

जो पत्नी घर के सभी कार्य जैसे..!

भोजन बनाना..!

साफ - सफाई करना..!

घर को सजाना, कपड़े - बर्तन आदि साफ करना..!

यह कार्य करती हो वह एक गुणी पत्नी कहलाती है।

इसके अलावा बच्चों की जिम्मेदारी ठीक से निभाना..!

घर आये अतिथियों का मान - सम्मान करना..!

कम संसाधनों में भी गृहस्थी को अच्छे से चलाने वाली पत्नी गरुण पुराण के अनुसार गुणी कहलाती है।

ऐसी पत्नी हमेशा ही अपने पति की प्रिय होती है।

प्रियवादिनी से तात्पर्य है।

मीठा बोलने वाली पत्नी..!

आज के जमाने में जहां स्वतंत्र स्वभाव और तेज - तरार बोलने वाली पत्नियां भी है।

जो नहीं जानती कि किस समय किस से कैसे बात करनी चाहियें।

इस लिए गरुण पुराण में दिए गए निर्देशों के अनुसार अपने पति से सदैव संयमित भाषा में बात करने वाली।

धीरे - धीरे व प्रेमपूर्वक बोलने वाली पत्नी ही गुणी पत्नी होती है। 

पत्नी द्वारा इस प्रकार से बात करने पर पति भी उसकी बात को ध्यान से सुनता है।

व उसके इच्छाओं को पूरा करने की कोशिश करता है।

परंतु केवल पति ही नहीं।

घर के अन्य सभी सदस्यों या फिर परिवार से जुड़े सभी लोगों से भी संयम से बात करने वाली स्त्री एक गुणी पत्नी कहलाती है।

ऐसी स्त्री जिस घर में हो वहां कलह और दुर्भाग्य कभी नहीं आता।

पतिपरायणा यानी पति की हर बात मानने वाली पत्नी भी गरुण पुराण के अनुसार एक गुणी पत्नी होती है।

जो पत्नी अपने पति को ही सब कुछ मानती हो।

उसे देवता के समान मानती हो तथा कभी भी अपने पति के बारे में बुरा ना सोचती हो वह पत्नी गुणी है।

विवाह के बाद एक स्त्री ना केवल एक पुरुष की पत्नी बनकर नये घर में प्रवेश करती है।

वरन् वह उस नये घर की बहु भी कहलाती है।

उस घर के लोगों और संस्कारों से उसका एक गहरा रिश्ता बन जाता है।

इस लिए शादी के बाद नए लोगों से जुड़े रीति - रिवाज को स्वीकारना ही स्त्री की जिम्मेदारी है।

इसके अलावा एक पत्नी को एक विशेष प्रकार के धर्म का भी पालन करना होता है।

विवाह के पश्चात उसका सबसे पहला धर्म होता है।

कि वह अपने पति व परिवार के हित में सोचे...!

व ऐसा कोई काम न करे जिससे पति या परिवार का अहित हो।

गरुण पुराण के अनुसार जो पत्नी प्रतिदिन स्नान कर पति के लिए सजती - संवरती है।

कम बोलती है..!

तथा सभी मंगल चिह्नों से युक्त है।

जो निरंतर अपने धर्म का पालन करती है।

तथा अपने पति का ही हीत सोचती है।

उसे ही सच्चे अर्थों में पत्नी मानना चाहियें...!

जिसकी पत्नी में यह सभी गुण हों..!

उसे स्वयं को देवराज इंद्र ही समझना चाहियें।

किसी बात पर पत्नी से चिकचिक हो गयी ! 

वह बड़बड़ाते हुए घर से बाहर निकला! 







सोचा कभी इस लड़ाकू औरत से बात नहीं करूँगा। 

पता नहीं...!

समझती क्या है खुद को? 

जब देखो झगड़ा..!

सुकून से रहने नहीं देती!

नजदीक के चाय के स्टॉल पर पहुँच कर...!

चाय ऑर्डर की और सामने रखे स्टूल पर बैठ गया!

तभी पीछे से एक आवाज सुनाई दी इतनी सर्दी में घर से बाहर चाय पी रहे हो?

गर्दन घुमा कर देखा तो पीछे के स्टूल पर बैठे एक बुजुर्ग थे।

आप भी तो इतनी सर्दी और इस उम्र में बाहर हैं बाबा...!

बुजुर्ग ने मुस्कुरा कर कहा :-   

मैं निपट अकेला..!

न कोई गृहस्थी..!

न साथी...!

तुम तो शादीशुदा लगते हो बेटा"।

पत्नी घर में जीने नहीं देती बाबा !! 

हर समय चिकचिक...!

बाहर न भटकूँ तो क्या करूँ। 

जिंदगी नरक बना कर रख दी है।

बुजुर्ग : पत्नी जीने नहीं देती?

बरखुरदार ज़िन्दगी ही पत्नी से होती है।

आठ बरस हो गए हमारी पत्नी को गए हुए। 

जब ज़िंदा थी...!

कभी कद्र नहीं की...!

आज कम्बख़्त चली गयी तो भुलाई नहीं जाती...!

घर काटने को दौडता है। 

बच्चे अपने अपने काम में मस्त , आलीशान घर , धन - दौलत सब है..!

पर उसके बिना कुछ मज़ा नहीं। 

यूँ ही कभी कहीं,कभी कहीं,भटकता रहता हूँ! 

कुछ अच्छा नहीं लगता..!

उसके जाने के बाद पता चला...!

वह धड़कन थी! 

मेरे जीवन की ही नहीं।

मेरे घर की भी। 

सब बेजान हो गया है...!

लेकिन तुम तो समझदार हो बेटा...!

जाओ !! 

अपनी जिंदगी खुशी से जी लो। 

वरना बाद में पछताते रहोगे...!

मेरी तरह। 

बुज़ुर्ग की आँखों में दर्द और आंसुओं का समंदर भी।

चाय वाले को पैसे दिए। 
नज़र भर बुज़ुर्ग को देखा..!

एक मिनट गंवाए बिना घर की ओर मुड़ गया...!

उसे दूर से ही देख लिया था।

डबडबाई आँखो से निहार रही पत्नी,चिंतित दरवाजे पर ही ख़डी थी...!

कहाँ चले गए थे?

जैकेट भी नहीं पहना...!

ठण्ड लग जाएगी तो ?, 

तुम भी तो...!

"बिना स्वेटर के दरवाजे पर खड़ी हो!" 

कुछ यूँ...!

दोनों ने आँखों से,एक दूसरे के प्यार को पढ़ लिया था!

दोस्तो !! 

कई बार हम लोग भी अपने जीवन में इसी तरह की गलतियां कर बैठते है। 

सिर्फ पत्नी ही नही,माँ - बाप, चाचा - ताऊ, भाई - बहिन या अज़ीज़ दोस्तोँ के साथ ऐसा क्रोध कर देते है।

जो सिर्फ हम को ही नही।

उनको भी कष्ट देता है।

छोटा सा जीवन है दोस्तो!!






कहीं क्षमा करके कहीं क्षमा मांगकर हँस कर गुजार दे।


जिंदगी के सफर मे गुजर जाते है।

जो मकाम,वो फिर नही आते।

राधे_राधे_क्यों_बोला_जाता_है?

कृष्ण : - 

अच्छा तुम बताओ...!

अगर मैं कृष्ण ना होकर कोई वृक्ष होता तो???

तब तुम क्या करती???

श्री राधे ने अपने गुस्से को ठंडा करते हुए कहा : - 

तब मैं लता बनकर तुम्हारे चारों ओर लिपटी रहती…!

कृष्णा ने राधे को मनाने वाली बच्चों की मुस्कान देकर कहा…!

और अगर मैं यमुना नदी होता तो???

श्री राधे ने उत्तर दिया...!

“हम्म्म्म….!

तब मैं लहर बनकर तुम्हारे
साथ साथ बहती रहती….!

श्यामसुंदर !!!” 

( श्री राधे का गुलाबी रंग वापिस लौट आया…!

वे ठुड्डी के नीचे अपना हाथ रखकर अगले प्रश्न की प्रतीक्षा करने लगीं )।

कृष्ण निकट घास चरती एक गौ की ओर संकेत करके बोले...!

“अच्छा!!!!!

यदि मैं उसकी तरह गौ होता तो???

तो तुम क्या करती??

श्री राधा, कान्हा जी के गाल खींचती हुई बोलीं……!

तो मैं घंटी बनकर आपके गले में झूमती रहती प्राणनाथ…..!

परन्तु आपका पीछा नहीं छोड़ती….!

फिर अगले कुछ पलों तक वहां शान्ति छाई रही…!

केवल यमुना की लहरें और मोर की आवाज़ ही सुनाई दे रही...!

श्री राधे ने चुप्पी तोड़ते हुए कान्हा जी से पूछा…??

“आप मुझसे कितना प्रेम करते हो मेरे प्राणनाथ???

मेरा तात्पर्य यदि …!

हमारे प्रेम को अमर करने के लिए कोई वचन देना हो…!

तो आप क्या वचन देंगे…???”

कृष्णा ने राधे के कर कमलों को स्पर्श करते हुए कहा…!

“मैं तुम्हे इतना प्रेम करता हूँ राधे…!

कि जो भी भक्त तुम्हें स्मरण करके ‘रा…’ शब्द बोलेगा… उसी पल मैं उसे अपनी अविरल भक्ति प्रदान कर दूंगा। 

और पूरा ‘राधे’ बोलते ही मै स्वयं उसके पीछे पीछे चल दूंगा…..।

श्री राधे ने अपने नैनो में प्रेम के अश्रु भरकर कहा:- 

और मैं आज वचन देती हूँ मेरे कान्हा!!!….

मेरे भक्त को कुछ बोलने की भी आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी…!

जहाँ भी जिस किसी के हृदय में आ गया है ।

प्राप्य देहं सुदुष्प्रापं न स्मरेत्त्वां नराधम:
मनसा कर्मणा वाचा ब्रूम: सत्यं पुन: पुनः।
सुखे वाप्यथवा दु:खे त्वं न: शरणमद्भुतम्।।

 पाहि न: सततं देवि सर्वैस्तव वरायुधे:।
अन्यथा शरणं नास्ति त्वत्पादाम्बुजरेणुत:।!

है देवी...!

हम मन,वाणी और कर्म से बार - बार यह सत्य कह रहे हैं।

कि सुख अथवा दु:ख,प्रत्येक परिस्थिति में एकमात्र आप ही हमारे लिए अद्भुत शरण हैं। 

हे देवि...!

आप अपने समस्त श्रेष्ठ आयुधों द्वारा हमारी निरन्तर रक्षा करें। 

आपके चरण - कमलों की धूलि को छोड़कर हमारे लिए कोई दूसरा शरण नहीं है।

धर्म केवल रास्ता दिखाता है।

लेकिन मंजिल तक तो कर्म ही पहुंचाता है। 

अपनी किस्मत को कभी दोष मत दीजिए। 

इंसान के रूप में जन्म मिला है।

ये किस्मत नहीं तो और क्या है।

 कहते हैं - : 

रेत में गिरी हुई चीनी चींटी तो उठा सकती है पर हाथी नहीं...!

इस लिए छोटे आदमी को छोटा न समझे...!

कभी कभी वो भी बड़ा काम कर जाता है।

"बुराई" करना रोमिंग की तरह है। 

करो तो भी चार्ज लगता है और सुनो तो भी चार्ज लगता है। 

और "नेकी" करना जीवन बीमा की तरह है..!

जिंदगी के साथ भी जिंदगी के बाद भी।

 इस लिए "धर्म" की प्रीमियम भरते रहिये और अच्छे कर्म का "बोनस" पाते रहिये….!

★★

         !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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।। श्री ऋगवेद के अनुसार श्रीललिता सहस्त्रार्चन की अत्यंत सूक्ष्म विधि ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
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।। श्री ऋगवेद के अनुसार श्रीललिता सहस्त्रार्चन की अत्यंत सूक्ष्म विधि ।।


श्री ऋगवेद के अनुसार श्री यंत्र श्री ललिता सहस्त्रार्चन संपूर्ण सुक्ष्म पूजन विधि : -


चतुर्भिः शिवचक्रे शक्ति चके्र पंचाभिः।
नवचक्रे संसिद्धं श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः॥

श्रीयंत्र का उल्लेख तंत्रराज, ललिता सहस्रनाम, कामकलाविलास , त्रिपुरोपनिषद आदि विभिन्न प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलता है। 

वेदों में श्री ऋगवेद और श्री विष्णु महा पुराण सहित बहुत महापुराणों में श्री यंत्र को देवी महालक्ष्मी का प्रतीक कहा गया है । 

इन्हीं पुराणों में वर्णित भगवती महात्रिपुरसुन्दरी स्वयं कहती हैं - 

‘श्री यंत्र मेरा प्राण, मेरी शक्ति, मेरी आत्मा तथा मेरा स्वरूप है। 

श्री यंत्र के प्रभाव से ही मैं पृथ्वी लोक पर वास करती हूं।’’

श्री यंत्र में २८१६ देवी देवताओं की सामूहिक अदृश्य शक्ति विद्यमान रहती है। 

इसी लिए इसे यंत्रराज, यंत्र शिरोमणि, षोडशी यंत्र व देवद्वार भी कहा गया है। 

श्री ऋषि श्री दत्तात्रेय व श्री दूर्वासा ने श्रीयंत्र को मोक्षदाता माना है । 






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जैन शास्त्रों ने भी इस यंत्र की प्रशंसा की है।

जिस तरह शरीर व आत्मा एक दूसरे के पूरक हैं।

उसी तरह देवता व उनके यंत्र भी एक दूसरे के पूरक हैं । 

यंत्र को देवता का शरीर और मंत्र को आत्मा कहते हैं। 

यंत्र और मंत्र दोनों की साधना उपासना मिलकर शीघ्र फलदेती है । 

जिस तरह मंत्र की शक्ति उसकी ध्वनि में निहित होती है।

उसी तरह यंत्र की शक्ति उसकी रेखाओं व बिंदुओं में होती है।

यदि हम हमारे नया मकान, दुकान आदि का निर्माण करते समय यदि उनकी नींव में प्राण प्रतिष्ठत श्री यंत्र को स्थापित करें।

तो वहां के निवासियों को श्री यंत्र की अदभुत व चमत्कारी शक्तियों की अनुभूति स्वतः होने लगती है। 

श्री यंत्र की पूजा से लाभ : -

वेद पुराणों सहित बहुत शास्त्रों में कहा गया है कि श्रीयंत्र की अद्भुत शक्ति के कारण इसके दर्शन मात्र से ही लाभ मिलना शुरू हो जाता है। 

इस यंत्र को मंदिर या तिजोरी में रखकर प्रतिदिन पूजा करने व प्रतिदिन कमलगट्टे की माला पर श्री सूक्त के पाठ श्री लक्ष्मी मंत्र के जप के साथ करने से लक्ष्मी प्रसन्न रहती है और धनसंकट दूर होता है।

यह यंत्र मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष देने वाला है। 

इसकी कृपा से मनुष्य को अष्टसिद्धि व नौ निधियों की प्राप्ति हो सकती है। 

श्री यंत्र के पूजन से सभी रोगों का शमन होता है।

और शरीर की कांति निर्मल होती है।

श्रीललिता सहस्त्रार्चन यानि भगवती श्री ललिता त्रिपुर सुन्दरी के प्रतीक श्रीयंत्र पर 1000 नामो से कुमकुम रोली द्वारा उपासना।

( श्रीललिता सहस्त्रार्चन के इस प्रयोग को हृदय अथवा आज्ञाचक्र में करने से सर्वोत्तम लाभ होगा ।

अन्यथा सामान्य पूजा प्रकरण से ही संपन्न करें।

हृदय अथवा आज्ञा चक्र में करने का तात्पर्य मानसिक कल्पना करें।

कि देवी माँ आपके उक्त स्थान में कमलासन पर  विराजमान है। )

श्रीयंत्र को अन्य पूजन की ही भांति पहले स्नान आचमन वस्त्र धूप दीप नैवैद्य आदि अर्पण करने के बाद सर्वप्रथम प्राणायाम करें ।

( गुरु से मिले मंत्र का मानसिक उच्चारण करते हुए )।

इसके बाद आचमन करें।

इन मंत्रों से आचमनी मे 3 बार जल लेकर पहले 3 मंत्रो को बोलते हुए ग्रहण करें अंतिम हृषिकेश मांयर से हाथ धो लें।

ॐ केशवाय नम: 

ॐ नाराणाय नम: 

ॐ माधवाय नम: 

ॐ ह्रषीकेशाय नम: 

मान्यता है कि इस प्रकार आचमन करने से देवता प्रसन्न होते हैं।

प्राणायाम आचमन आदि के बाद भूत शुद्धि के लिये निम्न मंत्र को पढ़ते हुए स्वयं से साथ पूजा सामग्री को पवित्र करें।

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।








भूत शुद्धि के बाद निम्न मंत्रो से आसन पूजन करें : - 

ॐ अस्य श्री आसन पूजन महामन्त्रस्य कूर्मों देवता मेरूपृष्ठ ऋषि पृथ्वी सुतलं छंद: आसन पूजने विनियोगः। 

विनियोग हेतु जल भूमि पर गिरा दें। 

इसके बाद  पृथ्वी पर रोली से त्रिकोण का निर्माण कर इस मन्त्र से पंचोपचार पूजन करें  - 

ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवी त्वं विष्णुनां धृता त्वां च धारय मां देवी पवित्रां कुरू च आसनं। 

ॐ आधारशक्तये नमः । 

ॐ कूर्मासनाये नमः । 

ॐ पद्मासनायै नमः । 

ॐ सिद्धासनाय नमः । 

ॐ साध्य सिद्धसिद्धासनाय नमः ।

तदुपरांत गुरू गणपति गौरी पित्र व स्थान देवता आदि का स्मरण व पंचोपचार पूजन कर श्री चक्र के सम्मुख पुरुष सूक्त का एक बार पाठ करें। 






पाठ के बाद निम्न मन्त्रों से करन्यास करें : -

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) अंगुष्ठाभ्याम नमः ।

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) तर्जनीभ्यां स्वाहा ।

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) मध्यमाभ्यां वष्ट ।

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) अनामिकाभ्यां हुम् ।

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) कनिष्ठिकाभ्यां वौषट ।

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) करतल करपृष्ठाभ्यां फट् ।

करन्यास के बाद निम्न मन्त्रों से षड़ांग न्यास करें :-

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) हृदयाय नमः ।

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) शिरसे स्वाहा ।

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) शिखायै वष्ट ।

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) कवचाये हुम् ।

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) नेत्रत्रयाय वौषट ।

ॐ ( दीक्षा में प्राप्त हुआ मन्त्र ) अस्तराय फट् ।

न्यास के उपरांत श्री पादुकां पूजयामि नमः बोलकर शंख के जल से अर्घ्य प्रदान करते रहें। 

अर्घ्य के उपरांत यंत्र को साफ कपड़े से पोंछ कर लाल आसान अथवा यथा योग्य या सामर्थ्य अनुसार आसान पर विराजमान करें।






इसके उपरांत सर्वप्रथम श्री चक्र के बिन्दु चक्र में निम्न मन्त्रों से अपने गुरूजी का पूजन करें : -


ॐ श्री गुरू पादुकां पूजयामि नमः ।

ॐ श्री परम गुरू पादुकां पूजयामि नमः ।

ॐ श्री परात्पर गुरू पादुकां पूजयामि नमः।

श्री चक्र के बिन्दु पीठ में भगवती शिवा महात्रिपुरसुन्दरी का ध्यान करके योनि मुद्रा का प्रदर्शन करते हुए।

पुनः इस मन्त्र से तीन बार पूजन करें। 

ॐ श्री ललिता महात्रिपुर सुन्दरी श्री विद्या राज राजेश्वरी श्री पादुकां पूजयामि नमः।

इसके बाद माँ ललिता त्रिपुरसुंदरी के एक - एक करके एक हजार नामो का उच्चारण करते हुए हल्दी वाली रोली, या रोली चावल मिला कर सहस्त्रार्चन करें। 

श्री सहस्त्रार्चन पूरा होने के बाद माता जी की कर्पूर आदि से आरती करें।

आरती के उपरांत श्री विद्या अथवा गुरुदेव से मिला मंत्र यथा सामर्थ्य अधिक से अधिक जपने का प्रयास करें। 

इसके बाद एक पाठ श्री सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का अवश्य करें। 

अंत मे माता को साष्टांग प्रणाम करें प्रणाम करने के लिये आसान से उठने से पहले आसान के आगे जल गिराकर उसे माथे पर लगाना ना भूले ।

किसी भी पूजा पाठ आदि कर्म में आसान छोड़ने से पहले आसान के आगे पृथ्वी पर जल गिराकर उसे माथे एवं आंखों पर लगाना अत्यंत आवश्यक है।

ऐसा ना करने पर पुण्य का आधा भाग इंद्र ले जाता है।

श्री ऋगवेद और श्री विष्णु महा पुराण के अनुसार इस श्री यंत्र का पूजन हर मास में  हर शुक्रवार , चौथ , आठम , अगियारस , चौदस और अमावस्या तिथि  उपरांत प्रदोष  तिथि और साल के तीन नवरात्री के दिनों में करने से बहुत उत्तम लाभ दायक रहता है ।

हमारे यहां श्री रामेश्वरम में श्री रामेश्वरम महादेव मंदिर के बगल में ही श्री पर्वतवर्धनी पार्वती माता मंदिर में वही नियम के अनुशार सोना के श्री यंत्र का पूजन अभिषेक किया जाता है ।

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         !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। जीवन की करुणापूर्ण होने से ही जड़ता टूटेगी सुंदर कहानी ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। जीवन की करुणापूर्ण होने से ही जड़ता टूटेगी सुंदर कहानी ।।


एक बार बादशाह अकबर ने तो बीरबल से पूछा - 

तुम्हारे भगवान और हमारे खुदा में बहुत फर्क है !

हमारा खुदा तो अपना पैगम्बर भेजता है।

जबकि तुम्हारा भगवान बार - बार आता है।

 तो यह क्या बात है ?






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बीरबल ने मुस्करा कर कहा - 

जहाँपनाह इस बात का कभी व्यवहारिक तौर पर अनुभव करवा दिया जायेगा।

आप जरा थोड़े दिनों की मोहलत दे दी जिये !

कुछ दिनों उपरांत बीरबल बादशाह अकबर को यमुना जी में नौका - विहार कराने ले गये।

नावों की व्यवस्था पहले से ही करवा दी गयी थी।

उस समय यमुना जी में अथाह जल था।

जिस नाव में बादशाह अकबर बैठा था उसी नाव में एक दासी को बादशाह अकबर के नवजात शिशु के साथ बैठा दिया गया।

नाव जब बीच मंझधार में पहुँची और हिलने लगी तब दासी के हाथ से बच्चा पानी में जा गिरा और वह रोने बिलखने लगी।

अपने बालक को बचाने लिये बादशाह अकबर धड़ाम से यमुना जी में कूद पड़ा।

इधर - उधर खूब गोते मारकर बड़ी मुश्किल से उसने बच्चे को पानी में से निकाला।

पर यह क्या ?

वह बच्चा न हो कर तो मोम का पुतला था।

बादशाह अकबर को तुरंत समझ में आ गया।

बीरबल से क्रोधपूर्वक कहा - 

बीरबल तो यह सारी शरारत तुम्हारी है।

तुमने मेरी बेइज्जती करवाने के लिये ही ऐसा किया।

बीरबल ने सिर झुका कर आदरपूर्वक कहा - 

जहाँपनाह आपकी बेइज्जती के लिये नहीं बल्कि आपके प्रश्न का उत्तर देने के लिये ऐसा किया गया था।

आप इस मोम के पुतले को अपना शिशु समझकर नदी में कूद पड़े जबकि उस समय आपको पता तो था ही न कि इन सब नावों में कई सुघढ़ तैराक बैठे है नाविक भी बैठे है और हम भी तो थे।

आपने हमको आदेश क्यों नहीं दिया ?

हम यमुना जी में कूदकर आपके बेटे की रक्षा कर देते।

बादशाह अकबर ने कहा -

बीरबल यदि अपना बेटा डूबता हो तो अपने मंत्रियों को या तैराकों को कहने की फुरसत कहाँ रहती है ?




खुद ही कूदा जाता है।


बीरबल ने मुस्कराते हुए कहा - 

जहाँपनाह जैसे अपने बेटे की रक्षा के लिए आप खुद कूद पड़े ऐसे ही हमारे भगवान जब अपने बालकों को संसार एवं संसार की मुसीबतों में डूबता हुआ देखते हैं तो वे पैगम्बर को नहीं भेजते।

वे खुद ही प्रकट हो जाते हैं ।

वे अपने शरणागत की रक्षा के लिये आप ही अवतार ग्रहण करते है और संसार को आनंद तथा प्रेम के प्रसाद से धन्य करते हैं।

बीरबल का कथन सुनकर बादशाह अकबर का सिर शर्म से झुक गया।

एक जर्मन विचारक था।

हेरिगेल । 

वह जापान गया हुआ था । 

एक फकीर से मिलने गया । 

जल्दी में था।

जाकर जूते पटक कर जोर से उतारे ।

दरवाजे को धक्का दिया।

भीतर पहुंचा । 

उस फकीर को नमस्कार किया और कहा कि मैं जल्दी में हूं । 

कुछ पूछने आया हूं । 

उस फकीर ने कहा बातचीत पीछे होगी । 

पहले दरवाजे के साथ दुर्व्यवहार किया है उससे क्षमा मांग कर आओ। 

वे जूते तुमने इतने क्रोध से उतारे हैं । 

नहीं — नहीं...!

यह नहीं हो सकता है। 

यह दुर्व्यवहार मैं पसंद नहीं कर सकता । 

पहले क्षमा मांग आओ...!

फिर भीतर आओ...!

फिर कुछ बात हो सकती है । 

तुम तो अभी जूते से भी व्यवहार करना नहीं जानते...!

तो तुम आदमी से व्यवहार कैसे करोगे ?

वह हेरिगेल तो बहुत जल्दी में था । 

इस फकीर से दूर से मिलने आया था। 

यह क्या पागलपन की बात है । 

लेकिन मिलना जरूर था और यह आदमी अब बात भी नहीं करने को राजी है आगे । 

तो मजबूरी में उसे दरवाजे पर जाकर क्षमा मांगनी पड़ी उस द्वार से...!

क्षमा मांगनी पड़ी उन जूतों से । 

लेकिन हेरिगेल ने लिखा है कि जब मैं क्षमा मांग रहा था तब मुझे ऐसा अनुभव हुआ जैसा जीवन में कभी भी नहीं हुआ था । 

जैसे अचानक कोई बोझ मेरे ही मन से उतर गया । 

जैसे एक हलका पन, एक शांति भीतर दौड़ गई ।

पहले तो पागलपन लगा...!

फिर पीछे मुझे खयाल आया कि ठीक ही है। 

इतने क्रोध में...!

इतने आवेश में...!

मैं हेरिगेल को समझता भी क्या...!

सुनता भी क्या ?

फिर लौट कर आकर वह हंसने लगा और कहने लगा...!

क्षमा करना...!

पहले तो मुझे लगा कि यह निहायत पागलपन है कि मैं जूते और दरवाजे से क्षमा मांग । 






लेकिन फिर मुझे खयाल आया कि जब मैं जूते और दरवाजे पर नाराज हो सकता हूं क्रोध कर सकता हूं तो क्षमा क्यों नहीं मांग सकता हूं ? 

अगर करुणा की दिशा में बढ़ना है तो सबसे पहले हमारे आसपास जिसे हम जड़ कहते हैं उसका जो जगत है।

यद्यपि जड़ कुछ भी नहीं है।

लेकिन हमारी समझ के भीतर अभी जो जड़ मालूम पड़ता है।

उस जड़ से ही शुरू करना पड़ेगा । 

उस जड़ जगत के प्रति ही करुणापूर्ण होना पड़ेगा...!

तभी हमारी जड़ता टूटेगी । 

उससे कम में हमारी जड़ता नहीं टूट सकती।

सनातन मार्ग शुक्ल मार्गवाला व्यक्ति मृत्यु के बाद परमपद को प्राप्त होता है।
और कृष्णमार्ग वाला व्यक्ति मृत्यु के बाद स्वर्गलोक ( चन्द्र लोक ) को प्राप्त होता है।

इसका कारण यह है ।

कि शुक्लमार्ग पर आरूढ़ व्यक्ति ब्रह्मप्राप्ति की इच्छावाला होता है ।

इस लिए वह ब्रह्म को प्राप्त करता है तथा कृष्णमार्ग पर आरूढ़ व्यक्ति विभिन्न कामना ओंवाला होता है।

इस लिए मृत्यु के पश्चात वह स्वर्गलोक पहुंचकर अपनी शुभकामनाओं का फल भोगकर पुन: मृत्युलोक मे वापिस आ जाता है।

सूर्य का सम्बन्ध आत्मा से है।

और चन्द्रमा का सम्बन्ध मन से है।

शुक्लमार्ग मे आरूढ़ व्यक्ति सूर्यलोक ( आत्मा ) को प्राप्त होता है।

सूर्य तेजोमय अग्नि ही है।

जो प्रकाश और ऊर्जा प्रदान करता है।

इस लिए इसे शुक्ल मार्ग कहा जाता है।

चन्द्रमा का स्वयम् का कोई प्रकाश नही होता है।

इस लिए कामनाओं से ग्रसित व्यक्ति कृष्णमार्ग से चन्द्रलोक को प्राप्त होते है।






आध्यात्मिक दृष्टि से धूम का अर्थ अहंकार है और चन्द्रमा का अर्थ मन है।


विभिन्न कामनाओं से ग्रसित पुरुष अहंकार पर आरूढ़ होकर अहंकार मन मे विलीन होकर मन को प्राप्त होते है।

मन कर्म संस्कारों का पुंज है।

इस लिए शुभ संस्कारों के फल भोगकर जीव पुन: अहंकार ( मृत्युलोक ) को प्राप्त हो जाता है।

स्वामी जी! कोई कहते हैं गीता पढ़ो। 

कोई कहते हैं रामायण पढ़ो। 

कोई कहते हैं- 

मन्दिर जाओ, जप करो, यज्ञ करो, दान दो, तप करो। 

समझ में नहीं आता, क्या करें?

कृपया आप बतलाइए क्या करूँ?

जानी हुई बुराई छोड़ दो...!

कि हुई बुराई दोहराओ मत।

बुराई को छोड़ने के बाद क्या करूँ?

सबके प्रति सद्भाव रखो और यथा शक्ति क्रियात्मक सहयोग दो।

स्वामी जी! इसके बाद क्या करूँ?

सद्भाव और सहयोग के बदले में किसी से कुछ मत चाहो। 

न अभी...!

न कभी।

फिर इसके बाद क्या करूँ?

पहले ये तीन कर लो...!

चौथी बात स्वयं मालूम हो जाएगी।

स्वतः ही?

हाँ...!

स्वयं ही। 

अरे तुम यह क्यों चाहते हो कि हम यहाँ से तुम्हारे घर तक बिजली के खम्भे लगा दें? 

इतनी मेहनत मत करवाओ यार...!

अरे भैया...!

हमने तुम्हें टार्च दे दी है। 

इसकी रोशनी जहाँ तक जाती है।

वहाँ तक जाओ...!

आगे स्वतः मार्ग मिल जाएगा। 

अगर तुम केवल पहली बात कर लो।

अर्थात् जानी हुई बुराई को छोड़ दो।

तो तुम्हें सब कुछ मिलेगा - शान्ति, मुक्ति, भक्ति। 

इस से जीवन बुराई - रहित होगा।

तो स्वतः ही सारे काम होंगे।

       !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: + 91- 7010668409 
व्हाट्सएप नंबर:+ 91- 7598240825 ( तमिलनाडु )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। जीवन की मिसिंग "टाइल" सिंड्रोम का समर्पण भाव सुंदर कहानी ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। जीवन की मिसिंग "टाइल" सिंड्रोम का समर्पण भाव सुंदर कहानी ।।


एक बार की बात है एक शहर में एक मशहूर होटल मालिक  ने अपने होटल में एक स्विमिंग पूल बनवाया। 

स्विमिंग पूल के चारों  ओर बेहतरीन इटैलियन  टाइल्स लगवाये।

परन्तु मिस्त्री की गलती से एक स्थान पर टाइल  लगना छूट गया। 

अब जो भी आता पहले उसका ध्यान टाइल्स  की खूबसूरती पर  जाता। 

इतने बेहतरीन टाइल्स देख कर हर आने वाला मुग्ध हो जाता। 

वो बड़ी ही बारीकी से उन टाइल्स को देखता व प्रशंसा करता। 

तभी उसकी नज़र उस मिसिंग टाइल पर जाती और वहीं अटक जाती....!

उसके बाद वो किसी भी अन्य टाइल की ख़ूबसूरती नहीं देख पाता। 

स्विमिंग पूल से लौटने वाले हर व्यक्ति की यही शिकायत रहती की एक टाइल मिसिंग है। 

हजारों टाइल्स  के बीच में वो मिसिंग टाइल उसके दिमाग पर हावी रहता थी।

कई लोगों को उस टाइल को देख कर बहुत दुःख होता कि इतना परफेक्ट बनाने में भी एक टाइल रह ही गया। 

तो कई लोगों को उलझन हो होती कि कैसे भी करके वो टाइल ठीक कर दिया जाए।  

बहर हाल वहां से कोई भी खुश नहीं निकला, और एक खूबसूरत स्विमिंग पूल लोगों को कोई ख़ुशी या आनंद नहीं दे पाया।

दरअसल उस स्विमिंग पूल में वो मिसिंग टाइल एक प्रयोग था। 







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मनोवैज्ञानिक प्रयोग जो इस बात को सिद्ध करता है।

कि हमारा ध्यान कमियों की तरफ ही जाता है। 

कितना भी खूबसूरत सब कुछ हो रहा हो पर जहाँ एक कमी रह जायेगी वहीँ पर हमारा ध्यान रहेगा।

टाइल तक तो ठीक है पर यही बात हमारी जिंदगी में भी हैं। 

यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या है।

जिससे हर  व्यक्ति गुज़र रहा है।

इस मनो विज्ञानिक समस्या को मिसिंग टाइल सिंड्रोम का नाम दिया गया। 

यानी उन चीजों पर ध्यान देना जो हमारे जीवन में नहीं है।

आगे चल कर हमारी ख़ुशी को चुराने का सबसे बड़ा कारण बन जाती हैं।

यानी एक ऐसी मनोवैज्ञानिक समस्या है।

जिसमें हमारा सारा ध्यान जीवन की उस कमी की तरफ रहता है।

जिसे हम नहीं पा सके हैं | 

और यहीं बात हमारी ख़ुशी चुराने का सबसे बड़ा कारण है।

जिन्दगी में कितना कुछ भी अच्छा हो, हम उन्हीं चीजों को देखते हैं।

जो मिसिंग हैं और यही हमारे दुःख का सबसे बड़ा कारण है।

क्या इस एक आदत को बदल कर हम अपने जीवन में खुशहाली ला सकते हैं ?

भगवान ने हमे 32 दांत दिये, लेकिन हमारी जीभ उस टूटे हुए दांत पर ही क्यूँ जाती रहती हैं, कभी सोचा है । 

घर पर आपका ध्यान उसी फर्निचर पर जाती है।

जो अपनी जगह पर से हटा दी गयी होगी। 

यहाँ तक की अगर एक माँ के तीन संताने हो और उनमें से एक सन्तान विदेश गया हुआ होगा।

तो माँ अपने उसी सन्तान के बारे में ज़्यादा सोचती हैं जो विदेश गया हुआ है ।

ना कि उन दो संतानो के बारे में जो उसके साथ रहते हुए उनकी सेवा करते रहते हैं।

ऐसे बहुत से उदाहरण हो सकते हैं जिसमें हम अपनी किसी एक कमी के पीछे सारा जीवन दुखी रहते हैं। 

ज्यादातर लोग उन्हें क्या - क्या मिला है पर खुश होने के स्थान पर उन्हें क्या नहीं मिला है पर दुखी रहते हैं।

मिसिंग टाइल हमारा फोकस चुरा कर हमारी जिन्दगी की सारी  खुशियाँ चुराता है। 

यह शारीरिक और मानसिक कई बीमारियों की वजह बनता है।

अब हमारे हाथ में है कि हम अपना फोकस मिसिंग टाइल पर रखे और दुखी रहें या उन नेमतों पर रखे जो हमारे साथ है और खुश रहें..!

समर्पण का भाव...!

एक बार एक महिला समुद्र के किनारे रेत पर टहल रही थी ।

समुद्र की लहरों के साथ कोई एक बहुत चमकदार पत्थर छोर पर आ गया ।

महिला ने वह नायाब सा दिखने वाला पत्थर उठा लिया ।

वह पत्थर नहीं असली हीरा था...!

महिला ने चुपचाप उसे अपने पर्स में रख लिया।

लेकिन उसके हाव - भाव पर बहुत फ़र्क नहीं पड़ा।

पास में खड़ा एक बूढ़ा व्यक्ति बडे़ ही कौतूहल से यह सब देख रहा था...!

अचानक वह अपनी जगह से उठा और उस महिला की ओर बढ़ने लगा।

महिला के पास जाकर उस बूढ़े व्यक्ति ने उसके सामने हाथ फैलाये और बोला...!

मैंने पिछले चार दिनों से कुछ भी नहीं खाया है ।









क्या तुम मेरी मदद कर सकती हो?

उस महिला ने तुरंत अपना पर्स खोला और कुछ खाने की चीज ढूँढ़ने लगी ।

उसने देखा बूढ़े की नज़र उस पत्थर पर है। 

जिसे कुछ समय पहले उसने समुद्र तट पर रेत में पड़ा हुआ पाया था...।

महिला को पूरी कहानी समझ में आ गयी ।

उसने झट से वह पत्थर निकाला और उस बूढ़े को दे दिया। 

बूढ़ा सोचने लगा कि कोई ऐसी क़ीमती चीज़ भला इतनी आसानी से कैसे दे सकता है...।
         
बूढ़े ने गौर से उस पत्थर को देखा वह असली हीरा था बूढ़ा सोच में पड़ गया ।

इतने में औरत पलट कर वापस अपने रास्ते पर आगे बढ़ चुकी थी...।

बूढ़े ने उस औरत से पूछा, क्या तुम जानती हो कि यह एक बेश कीमती हीरा है?
         
महिला ने जवाब देते हुए कहा....!

जी हाँ और मुझे यक़ीन है कि यह हीरा ही है...।
          
लेकिन मेरी खुशी इस हीरे में नहीं है बल्कि मेरे भीतर है ।

समुद्र की लहरों की तरह ही दौलत और शोहरत आती जाती रहती है...।

अगर अपनी खुशी इनसे जोड़ेंगे तो कभी खुश नहीं रह सकते ।

बूढ़े व्यक्ति ने हीरा उस महिला को वापस कर दिया और कहा कि यह हीरा तुम रखो और मुझे इससे कई गुना ज्यादा क़ीमती वह समर्पण का भाव दे दो जिसकी वजह से तुमने इतनी आसानी से यह हीरा मुझे दे दिया...।

सारी उम्र हम अपने अहंकार को नहीं छोड़ पाते ।

हम व्यवहार में अनुभव करें तो पायेंगे कि दूसरों को बिना लोभ कुछ अर्पण भी नहीं कर पाते ।

भगवान को भी कुछ पाने की लालसा से ही प्रसाद चढाते हैं।

लालसा पूर्ण नहीं होती तो भगवान को भी बदल लेते हैं।

जब कि भगवान तो एक ही है...।

समर्पण के बगैर परमात्मा की प्राप्ति असम्भव है और समर्पण ही है।

जो भक्ति को अपने गंतव्य तक ले जाती है।

समर्पण से ही आत्मा परमात्मा में लीन होती है...!

हजारों खड़े होंगे क़तार में।

आज भी तेरे दर्शन के इन्तज़ार में एक हम अकेले नहीं कृष्णा , जाने कितने दिवाने हैं तुम्हारे प्यार में , ज़िन्दगी न जाने कैसी प्यास है लाख हो फिर भी हर कोई उदास है।

कहाँ है वो ख़ुशी का ख़ज़ाना  बता कान्हा , जिसकी सब को तलाश है।

सब की समस्याओं का हल हैं तू, आत्म तृप्ति दे जो, वह अमृत जल हैं तू।

चलायमान जगत में सर्वदा अटल है तू।

तेरी दर से ख़ाली न गया कोई गोविन्द, जितना ख़ुद को खोया, उतना ही अधिक तुमको पाया हमने जब भी आयी संकट की धड़ी।

विश्वास का दीपक जलाया हमने तुम दौड़े चले आये,मेरी हर पुकार में जो उलझ कर और भी क़रीब आ जाते हैं।

और दूसरी तरफ रिश्ते हैं.....!

जो ज़रा सा उलझते ही टूट जाते हैं।

“दिखावा” और  “झूठ” बोलकर व्यवहार बनाने से अच्छा है।

“सच” बोलकर “दुश्मन” बना लो।

तुम्हारे साथ कभी “विश्वासघात” नही होगा।









इंसान को खुद की नजर में सही होना चाहिए दुनिया तो भगवान से  भी दु:खी है------!

       !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
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पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
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" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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।। आइये जाने शिवलिंग के वारे में रोचक जानकारी और शिव दर्शन...!।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
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।। आइये जाने शिवलिंग के वारे में रोचक जानकारी और शिव दर्शन...!।।


यदि आपने महादेव शिव के प्रतीक शिवलिंग को घर में स्थापित किया है तो आपको भी कुछ बातो का विशेष ध्यान रखना होगा।

क्योकि यदि भगवान शिव भोले है तो उनका क्रोध भी बहुत भयंकर होता है।

इसी कारण उन्हें त्रिदेवो में संहारकर्ता की उपाधि प्राप्त हुई है।

शिवलिंग की पूजा यदि सही नियम और विधि - विधान से करी जाए तो यह अत्यन्त फलदायी होती है।

परन्तु वहीं यदि शिवलिंग पूजा में कोई त्रुटि हो जाए तो ये गलती किसी मनुष्य के लिए विनाशकारी भी सिद्ध हो सकती है।

आज हम आपको उन त्रुटियों के बारे में बताने जा रहे है ।

जिनको अपना के आप भगवान शिव के प्रकोप से बचकर उनकी विशेष कृपा और आशीर्वाद अपने ऊपर पा सकते है।

ऐसा स्थान जहाँ पूजा न हो रही हो : -

शिव लिंग को कभी भी ऐसे स्थान पर स्थापित नहीं करना चाहिए जहाँ आप उसे पूज ने रहे हो ।






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हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यदि आप शिवलिंग की पूजा पूरी विधि - विधान से न कर पा रहे।

हो या ऐसा करने में असमर्थ हो तो भूल से भी शिवलिंग को घर पर न रखे।

क्योकि यदि कोई व्यक्ति घर पर भगवान शिव का शिवलिंग स्थापित कर उसकी विधि विधान से पूजा नहीं करता तो यह महादेव शिव का अपमान होता है।

तथा इस प्रकार वह व्यक्ति किसी अनर्थकारी चीज़ को आमंत्रित करता है।

भूल से भी न करें केतकी का फूल शिवलिंग पर अर्पित : -

पुराणों में केतकी के फूल को शिव पर न चढ़ाने के पीछे एक कथा छिपी है।

इस कथा के अनुसार जब एक बार ब्रह्मा जी और विष्णु जी माया से प्रभावित होकर अपने आपको एक -दूसरे से सर्वश्रेष्ठ बताने लगे तब महादेव उनके सामने एक तेज प्रकाश के साथ ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए।

ज्योतिर्लिंग के रूप में भगवान शिव ने ब्र्ह्मा और विष्णु से कहा की आप दोनों में जो भी मेरे इस रूप के छोर को पहले पा जायेगा वह सर्वशक्तिमान होगा।

भगवान विष्णु शिव के ज्योतिर्लिंग के ऊपरी छोर की ओर गए तथा ब्र्ह्मा जी नीचे के छोर की ओर गए।

कुछ दूर चलते चलते भी जब दोनों थक गए तो भगवान विष्णु ने शिव के सामने अपनी पराजय स्वीकार ली है।

परन्तु ब्र्ह्मा जी ने अपने पराजय को छुपाने के लिए एक योजना बनाई।

उन्होंने केतकी के पुष्पों को साक्षी बनाकर शिव से कहा की उन्होंने शिव का अंतिम छोर पा लिया है ।

ब्र्ह्मा जी के इस झूठ के कारण शिव ने क्रोध में आकर उनके एक सर को काट दिया तथा केतकी के पुष्प पर भी पूजा अरचना में प्रतिबंध लगा दिया।

तुलसी पर प्रतिबंध : -

शिव पुराण की एक कथा के अनुसार जालंधर नामक एक दैत्य को यह वरदान था की उसे युद्ध में तब तक कोई नहीं हरा सकता जब तक उसकी पत्नी वृंदा पतिव्रता रहेगी।

उस दैत्य के अत्याचारों से इस सृष्टि को मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता होने का संकल्प भंग किया तथा महादेव ने जलंधर का वध।

इसके बाद वृंदा तुलसी में परिवर्तित हो चुकी थी तथा उसने अपने पत्तियों का महादेव की पूजा में प्रयोग होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया यही कारण की है ।

की शिवलिंग की पूजा पर कभी तुलसी के पत्तियों का प्रयोग नहीं किया जाता।

हल्दी पर रोक : -

हल्दी का प्रयोग स्त्रियाँ अपनी सुंदरता निखारने के लिए करती है तथा शिवलिंग महादेव शिव का प्रतीक है।

अतः हल्दी का प्रयोग शिवलिंग की पूजा करते समय नहीं करनी चाहिए।

कुमकुम का उपयोग : -

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार कुमकुम का प्रयोग एक हिन्दू महिला अपने पति के लम्बी आयु के लिए करती है।

जबकि भगवान शिव विध्वंसक की भूमिका निभाते है।

भर्था संहारकर्ता शिव की पूजा में कभी भी कुमकुम का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

शिवलिंग का स्थान बदलते समय : -

शिवलिंग का स्थान बदलते समय उसके चरणों को सपर्श करें तथा एक बर्तन में गंगाजल का पानी भरकर उसमे शिवलिंग को रखे।

और यदि शिवलिंग पत्थर का बना हुआ हो तो उसका गंगाजल से अभिषेक करें।

शिवलिंग पर कभी पैकेट का दूध ना चढ़ाए : -

शिवलिंग की पूजा करते समय हमेशा ध्यान रहे की उन पर पासच्युराईज्ड दूध ना चढ़े, शिव को चढ़ने वाला दूध ठंडा और साफ़ होना चाहिए।

शिवलिंग किस धातु का हो : -

शिवलिंग को पूजा घर में स्थापित करने से पूर्व यह ध्यान रखे की शिवलिंग में धातु का बना एक नाग लिपटा हुआ हो ।

शिवलिंग सोने, चांदी या ताम्बे से निर्मित होना चाहिए।

शिवलिंग को रखे जलधारा के नीचे : -

यदि आपने शिवलिंग को घर पर रखा है तो ध्यान रहे की शिवलिंग के नीचे सदैव जलधारा बरकरार रहे अन्यथा वह नकरात्मक ऊर्जा को आकर्षित करता है।

कौनसी मूर्ति हो शिवलिंग के समीप : -

शिवलिंग के समीप सदैव गोरी तथा गणेश की मूर्ति होनी चाहिए ।

शिवलिंग कभी भी अकेले नहीं होना चाहिए।

हर शिवालयों या भगवान शिव के मंदिर में आप ने देखा होगा की उनकी आरधना एक गोलाकर पत्थर के रूप में लोगो द्वारा की जाती है ।

जो पूजास्थल के गर्भ गृह में पाया जाता है।

महादेव शिव को सिर्फ भारत और श्रीलंका में ही नहीं पूजा जाता बल्कि विश्व में अनेको देश ऐसे है।

जहाँ भगवान शिव की प्रतिमा या उनके प्रतीक शिवलिंग की पूजा का प्रचलन है ।

पहले दुनियाभर में भगवान शिव हर जगह पूजनीय थे।

इस बात के हजारो सबूत आज भी वर्तमान में हमे देखने को मिल सकते है।

रोम में शिवलिंग : - 

प्राचीन काल में यूरोपीय देशो में भी शिव और उनके प्रतीक शिवलिंग की पूजा का प्रचलन था ।

इटली का शहर रोम दुनिया के प्राचीनतम शहरों में से एक है।

रोम में प्राचीन समय में वहां के निवासियों द्वारा शिवलिंग की पूजा ”प्रयापस” के रूप में की जाती थी ।

रोम के वेटिकन शहर में खुदाई के दौरान भी एक शिवलिंग प्राप्त किया गया जिसे ग्रिगोरीअन एट्रुस्कैन म्यूजियम में रखा गया है।

इटली के रोम शहर में स्थित वेटिकन शहर का आकार भगवान शिव के आदि - अनादि स्वरूप शिवलिंग की तरह ही है।

जो की एक आश्चर्य प्रतीत होता है।

हाल ही में इस्लामिक राज्य द्वारा नेस्तनाबूद कर दिए गए प्राचीन शहर पलमायरा नीमरूद आदि नगरों में भी शिव की पूजा से सबंधित अनेको वस्तुओं के अवशेष मिले है।

प्राचीन सभ्यता में शिवलिंग :- 

पुरातत्विक निष्कर्षो के अनुसार प्राचीन शहरों मेसोपोटेमिया और बेबीलोन में भी शिवलिंग के पूजे जाने के प्रमाण पाये गए है।

इसके अल्वा मोहन जोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता में भी भगवान शिव की पूजा से संबंधित वस्तुओं के अवशेष मिले है।

जब भिन्न - भिन्न सभ्यताओं का जन्म हो रहा था उस समय सभी लोग प्रकृति और पशुओं पर ही निर्भर थे।

इस लिए वह प्राचीन समय में भगवान शिव की पशुओं के संरक्षक पशुपति देवता के रूप पूजा करते थे ।

आयरलैंड में प्राचीन शिवलिंग :- 

आयरलैंड के तार हिल स्थान पर भगवान शिव के शिवलिंग के भाति एक लम्बा अंडाकार रहस्मय पत्थर रखा गया है।

जिसे यहाँ के लोगो द्वारा भाग्य प्रदान करने वाले पत्थर के रूप में पुकारा जाता है।

फ्रांसीसी भिक्षुवो द्वारा 1632 से 1636 ईस्वी के बीच लिखित एक प्राचीन दस्तावेज के अनुसार इस पत्थर को इस स्थान पर चार अलौकिक लोगो द्वारा स्थापित किया गया था।

अफ्रिका में शिवलिंग : - 

साउथ अफ्रीका की सुद्वारा नामक एक गुफा में पुरातत्वविदों को महादेव शिव के शिवलिंग की लगभग 6000 वर्ष पुरानी शिवलिंग प्राप्त हुआ है।

जिसे कठोर ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित किया गया था।

इस शिवलिंग को खोजने वाले पुरातत्व विभाग के लोग इस बात को लेकर हैरान है की आखिर ये शिवलिंग अब तक कैसे सुरक्षित रह सकता है।

शिवलिंग का विन्यास : - 

शिवलिंग के मुखयतः तीन भाग होते है।

पहला भाग जो नीचे चारो तरफ से भूमिगत रहता है।

मध्य भाग में आठ तरफ से एक समान बैठक बनी होती है।

अंत में इसका शीर्ष भाग , जो की अंडाकार होता है तथा जिसकी पूजा की जाती है ।

इस शिवलिंग की उच्चाई सम्पूर्ण मंडल या परिधि की एक तिहाई होती है।

ये तीन भाग ब्र्ह्मा नीचे, विष्णु बीच में तथा शिव शीर्ष में होने का प्रतीक है।

शिव के माथे पर तीन रेखाएं ( त्रिपुंड ) व एक बिंदु होता है जो शिवलिंग पर भी समान रूप से निरुपित होती है ।

प्राचीन काल में ऋषियों और मुनियों द्वारा ब्रह्माण्ड के वैज्ञानिक रहस्य को समझकर इसके सत्य को प्रस्तुत करने के लिए विभिन्न रूपों में इसका सपष्टीकरण दिया जिनमे शिवलिंग भी एक है।

शिवलिंग का अर्थ : - 

शिवलिंग भगवान शिव की रचनात्मक और विनाशकारी दोनों ही शक्तियों को प्रदर्शित करता है ।

शिवलिंग का अर्थ होता है ”सृजन ज्योति” यानी भगवान शिव का आदि - अनादि स्वरूप।

सूर्य, आकाश, ब्रह्माण्ड, तथा निराकार महापुरुष का प्रतीक होने का कारण ही यह वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी ‘व्यापक ब्रह्मात्मलिंग’ जिसका अर्थ है।

‘व्यापक प्रकाश’।

श्री शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।

शिवलिंग कहलाया।

शिवलिंग का आकार - प्रकार ब्राह्मण्ड में घूम में रही आकाश गंगा के समान ही है ।

यह शिवलिंग हमारे ब्रह्माण्ड में घूम रहे पिंडो का एक प्रतीक ही है ।

शिवलिंग का प्रकार

देव लिंग  : - 

जिस शिवलिंग को दवाओं द्वारा स्थापित किया हो उसे देव लिंग के नाम से पुकारा जाता है ।

वर्तमान में मूल एवं परम्परिक रूप से इस प्रकार के शिवलिंग देवताओ के लिए पूजित है।

असुर लिंग  : - 

असुरो द्वारा जिस शिवलिंग की पूजा की जाती वह असुर लिंग कहलाता था ।

रावण ने भी ऐसे ही एक शिवलिंग की स्थापना करी थी ।

रावण की तरह ही अनेक असुर थे जो भगवान शिव के भक्त थे और भगवान शिव कभी अपने भक्तो में भेदभाव नहीं करते।

अर्श लिंग  : - 

पुराने समय में ऋषि मुनियों द्वारा जिन शिवलिंगों की पूजा की जाती थी वे अर्श लिंग कहलाते थे।

पुराण लिंग :- 

पौराणिक युग में व्यक्तियों द्वारा स्थापित किये गए शिवलिंगों को पुराण लिंग के नाम से जाना गया।

मानव शिवलिंग  : - 

वर्तमान में मानवों द्वारा निर्मित भगवान शिव के प्रतीक शिवलिंग ,मानव निर्मित शिवलिंग कहलाए।

.स्वयम्भू लिंग  : - 

भगवान शिव किसी कारण जिस स्थान पर स्वतः ही लिंग के रूप में प्रकट हुए इस प्रकार के शिवलिंग स्वम्भू लिंग कहलाए।

मस्तक पर चन्द्र का विराजमान होना : -

भगवान शिव के मस्तक में चन्द्रमा विराजित होने के कारण वे भालचन्द्र या गुजरात में सोमनाथ मंदिर के बगल में भालका तीर्थ नाम से भी प्रसिद्ध है ।

चन्द्रमा का स्वभाव शीतल होता है तथा इसकी किरणे शीतलता प्रदान करती है।

ऐसा अक्सर देखा गया है की जब मनुष्य का दिमाग शांत होता है।

तो वह बुरी परिस्थितियों का और बेहतर ढंग से सामना करता है।

तथा उस पर काबू पा लेता है।

वही क्रोधी स्वभाव वाले मनुष्य की परेशानियां और अधिक बढ़ जाती है।

श्रीं ज्योतिष शास्त्र में चन्द्रमा को मन का प्रतीक माना गया है तथा मन की प्रवृति बहुत चंचल होती है।

मनुष्य को सदैव अपने मन को वश में रखना चाहिए नहीं तो यह मनुष्य के पतन का कारण बनता है ।

इसी कारण से महादेव शिव ने चन्द्रमा रूपी मन को काबू कर अपने मस्तक में धारण किया है।

अस्त्र के रूप में त्रिशूल  : -

भगवान शिव सदैव अपने हाथ में एक त्रिशूल पकड़े रहते है।

जो बहुत ही अचूक और घातक अस्त्र है तथा इसके शक्ति के आगे कोइ अन्य शक्ति केवल कुछ क्षण मात्र भी ठहर नहीं सकती।

त्रिशूल संसार की तीन प्रवृत्तियों का प्रतीक है।

जिसमे सत का मतलब सात्विक, रज का मतलब संसारिक और तम का मतलब तामसिक होता है।









हर मनुष्य में ये तीनो ही प्रवृत्तियाँ पाई जाती है तथा इन तीनो को वश में करने वाला व्यक्ति ही आध्यात्मिक जगत में आगे बढ़ पता है।

त्रिशूल के माध्यम से भगवान शिव यह संदेश देते है ।

की मनुष्य का इन तीनो पर ही पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए ।

गले में नाग को धारण करना :-

भगवान शिव जितने रहस्मयी है ।

उतने ही रहस्मय उनके वस्त्र और आभूषण भी है ।

जहा सभी देवी - देवता आभूषणो से सुस्जित होते है।

वही भगवान शिव एकमात्र ऐसे देव है।

जो आभूषणो के स्थान पर अपने गले में बहुत ही खतरनाक प्राणी माने जाने वाले नाग को धारण किये हुए है ।

भगवान शिव के गले में लिपटा हुआ नाग जकड़ी हुई कुंडलिनी शक्ति का ही प्रतीक माना जाता है

भारतीय अध्यात्म में नागो को दिव्य शक्ति के रूप में मान कर उनकी पूजा अरचना की जाती है ।

परन्तु वही कुछ लोग बिना वजह इन से डर कर इनकी हत्या कर देते है।

भगवान शिव अपने गले में नाग को धारण कर यह सन्देश देते है।

पृथ्वी के इस जीवन चक्र में प्रत्येक छोटे - बड़े प्राणी का अपना एक विशेष योगदान है ।

अतः बिना वजह किसी प्राणी की हत्या नहीं करनी चाहिए।

भगवान शिव का वाद्य यंत्र डमरू :-

भगवान शिव का वाद्य यंत्र डमरू ”नाद” का प्रतीक माना जाता है ।

वेदों तथा पुराणों के अनुसार भगवान शिव को संगीत का जनक माना गया है ।

नाद का अर्थ होता है ऐसी ध्वनि जो बृह्मांड में निरंतर जारी रहे जिसे ओम कहा जाता है ।

भगवान शिव दो तरह का नृत्य करते है।

तांडव नृत्य करते समय भगवान शिव के पास डमरू नहीं होता तथा जब वे डमरू बजाते हुए नृत्य करते है ।

तभी तो हर ओर आनंद को उतपन्न करता रहता होता है।

जटाएं : शिव अंतरिक्ष के देवता हैं ।

उनका नाम व्योमकेश है ।

अत: आकाश उनकी जटास्वरूप है ।

जटाएं वायुमंडल की प्रतीक हैं ।

वायु आकाश में व्याप्त रहती है।

सूर्य मंडल से ऊपर परमेष्ठि मंडल है ।

इसके अर्थ तत्व को गंगा की संज्ञा दी गई है।

अत: गंगा शिव की जटा में प्रवाहित है ।

शिव रुद्र स्वरूप उग्र और संहारक रूप धारक भी माने गए हैं।

भगवान शिव और भभूत या भष्म :-

भगवान शिव अपने शरीर में भष्म धारण करते है।

जो जगत के निस्सारता का बोध कराती है ।

भष्म संसार के आकर्षण, माया, बंधन, मोह आदि से मुक्ति का प्रतीक भी है ।

यज्ञ के भस्म में अनेक आयुर्वेदिक गुण होते है.।

भष्म के प्रतीक के रूप में भगवान शिव यह संदेश देते है।

की पापो के कामों को छोड़ मनुष्य को सत मार्ग में ध्यान लगाना चाहिए तथा संसार के इस तनिक भर के आकर्षण से दूर रहना चाहिए।

क्योकि जगत के विनाश के समय केवल भस्म ( राख ) ही शेष रह जाती है तथा यही हाल हमारे शरीर के साथ भी होता है।

भगवान शिव को क्यों है प्रिय भांग और धतूरा :- 

श्री आयर्वेद के अनुसार भांग नशीला होने के साथ अटूट एकाग्रता देने वाला भी माना गया है ।

एकाग्रता के दम पर ही मनुष्य अपना कोई भी कार्य सिद्ध कर सकता है तथा ध्यान और योग के लिए भी एकाग्रता का होना अतयधिक महत्वपूर्ण है।

इस लिए भगवान शिव को भांग और धतूरा अर्पित किया जाता है जो एकाग्रता का प्रतीक है.।

श्रीं शिवदर्शन...!

निराकार ब्रह्म शिवसे इस सृष्टि की रचना हुई और प्रथम पंचतत्व के देवता गणपति , विष्णु , सूर्य , शक्ति और रुद्रदेव की उपासना शुरू हुई । 

उपासना ओर देव अनुसार वो विविधमत के सम्प्रदाय कहलाये। 

शिवपूजा ओर रुद्र उपासना के विविधमत सम्प्रदाय ।

भगवान शिव तथा उनके अवतारों को मानने वालों को शैव कहते हैं। 






शैव में शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग आदि उप संप्रदाय हैं। 


श्रीं महाभारत में माहेश्वरों ( शैव ) के चार सम्प्रदाय बतलाए गए हैं : -

शैव ...!

पाशुपत...!

कालदमन..!

कापालिक...!

शैवमत का मूलरूप श्री ॠग्वेद में रुद्र की आराधना में हैं। 

12 रुद्रों में प्रमुख रुद्र ही आगे चलकर शिव, शंकर, भोलेनाथ और महादेव कहलाए। 

शिव - मन्दिरों में शिव को योगमुद्रा में दर्शाया जाता है।

भगवान शिव की पूजा करने वालों को शैव और शिव से संबंधित धर्म को शैवधर्म कहा जाता है।

शिवलिंग उपासना का प्रारंभिक पुरातात्विक साक्ष्य हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों से मिलता है।

श्रीं ऋग्वेद में शिव के लिए रुद्र नामक देवता का उल्लेख है।

श्रीं अथर्ववेद में शिव को भव, शर्व, पशुपति और भूपति कहा जाता है।

लिंगपूजा का पहला स्पष्ट वर्णन श्री मत्स्यपुराण में मिलता है।

श्रीं महाभारत के अनुशासन पर्व से भी लिंग पूजा का वर्णन मिलता है।

श्री वामन पुराण में शैव संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है: -

पाशुपत

काल्पलिक

कालमुख

लिंगायत

पाशुपत संप्रदाय शैवों का सबसे प्राचीन संप्रदाय है। 

इसके संस्थापक लवकुलीश थे जिन्‍हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है।

पाशुपत संप्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया है।

इस मत का सैद्धांतिक ग्रंथ श्री पाशुपत सूत्र है।

कापालिक संप्रदाय के ईष्ट देव भैरव थे ।

इस सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र 'शैल' नामक स्थान था!

कालमुख संप्रदाय के अनुयायिओं को श्री शिव पुराण में महाव्रतधर कहा जाता है। 

इस संप्रदाय के लोग नर - कपाल में ही भोजन, जल और सुरापान करते थे और शरीर पर चिता की भस्म मलते थे।

लिंगायत समुदाय दक्षिण में काफी प्रचलित था। 

इन्हें जंगम भी कहा जाता है ।

इस संप्रदाय के लोग शिव लिंग की उपासना करते थे। 

श्रीं बसव पुराण में लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक वल्लभ प्रभु और उनके शिष्य बासव को बताया गया है ।

इस संप्रदाय को वीरशिव संप्रदाय भी कहा जाता था।

दसवीं शताब्दी में मत्स्येंद्रनाथ ने नाथ संप्रदाय की स्थापना की, इस संप्रदाय का व्यापक प्रचार प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ। 

दक्षिण भारत में शैवधर्म चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव और चोलों के समय लोकप्रिय रहा।

नायनारों संतों की संख्या 63 बताई गई है जिनमें उप्पार, तिरूज्ञान, संबंदर और सुंदर मूर्ति के नाम उल्लेखनीय है।

पल्लवकाल में शैव धर्म का प्रचार प्रसार नायनारों ने किया।

ऐलेरा के कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूटों ने करवाया।






चोल शालक राजराज प्रथम ने तंजौर में राजराजेश्वर शैव मंदिर का निर्माण करवाया था। 


भारशिव नागवंशी शासकों की मुद्राओं पर शिव और नन्दी का एक साथ अंकन प्राप्त होता है।

श्री शिव महा पुराण में शिव के दशावतारों के अलावा अन्य का वर्णन मिलता है। 

ये दसों अवतार तंत्रशास्त्र से संबंधित हैं : -

महाकाल। 

तारा ।

भुवनेश। 

षोडश ।

भैरव ।

छिन्नमस्तक गिरिजा ।

धूम्रवान ।

बगलामुखी ।

मातंग ।

कमल। ( दशमहाविद्या )।

शिव के अन्य ग्यारह अवतार हैं : -

कपाली। 

पिंगल। 

भीम ।

विरुपाक्ष ।

विलोहित ।

शास्ता। 

अजपाद ।

आपिर्बुध्य। 

शम्भ। 

चण्ड। 

भव।

शैव ग्रंथ इस प्रकार हैं : -

श्‍वेताश्वतरा उपनिषद। 

शिव पुराण। 

आगम ग्रंथ। 

तिरुमुराई।

 शैव तीर्थ इस प्रकार हैं : -

बनारस ।

केदारनाथ ।

सोमनाथ ।

रामेश्वरम। 

चिदम्बरम। 

अमरनाथ।

कैलाश मानसरोवर।

शैव सम्‍प्रदाय के संस्‍कार इस प्रकार हैं : -

शैव संप्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं।

इसके संन्यासी जटा रखते हैं।

इसमें सिर तो मुंडाते हैं, लेकिन चोटी नहीं रखते।

इनके अनुष्ठान रात्रि में होते हैं।

इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं।

यह निर्वस्त्र भी रहते हैं, और भगवा वस्त्र भी पहनते हैं और हाथ में कमंडल, चिमटा रखकर धूनी भी रमाते हैं।

शैव चंद्र पर आधारित व्रत उपवास करते हैं।

शैव संप्रदाय में समाधि देने की परंपरा है।

शैव मंदिर को शिवालय कहते हैं जहां सिर्फ शिवलिंग होता है।

यह भभूति तीलक आड़ा लगाते हैं।

शैव साधुओं को नाथ, अघोरी, अवधूत, बाबा, औघड़, योगी, सिद्ध कहा जाता है।

प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः ।
मन्त्रमूलबलेनान्यो यः प्रियः प्रिय एव सः ॥

भावार्थ : -

कोई पुरुष दान देकर प्रिय होता है, कोई मीठा बोलकर प्रिय होता है।

कोई अपनी बुद्धिमानी से प्रिय होता है; लेकिन जो वास्तव में प्रिय होता है ।

वह बिना प्रयास के प्रिय होता है।

आप सभी धर्मप्रेमी जनो पर महादेव की सदैव कृपा हो यही प्रार्थना है।

    !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

aadhyatmikta ka nasha

एक लोटा पानी।

 श्रीहरिः एक लोटा पानी।  मूर्तिमान् परोपकार...! वह आपादमस्तक गंदा आदमी था।  मैली धोती और फटा हुआ कुर्ता उसका परिधान था।  सिरपर कपड़ेकी एक पु...

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