सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
श्री यजुर्वेद और ऋग्वेद के नियमित नियमो अनुसार हमारे जीवन मे कौनसा फल मिलता था
।। श्री यजुर्वेद और ऋग्वेद के नियमित नियमो
अनुसार हमारे जीवन मे कौनसा फल मिलता था ।।
श्री यजुर्वेद और श्री ऋग्वेद के नियमित नियमो अनुसार सनातन धर्म ही हमारा जीवन मे पूर्वजो के द्वारा उसका चुस्त पूर्ण पालन करना ही क्यों शिखवाते रहते थे ।
छोटा न समझें किसी भी काम को एक बार भगवान अपने एक निर्धन भक्त से प्रसन्न होकर उसकी सहायता करने उसके घर साधु के वेश में पधारे।
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उनका यह भक्त जाति से चर्मकार था और निर्धन होने के बाद भी बहुत दयालु और दानी प्रवृत्ति का था।
वह जब भी किसी साधु - संत को नंगे पाँव देखता तो अपने द्वारा गाँठी गई जूतियाँ या चप्पलें बिना दाम लिए उन्हें पहना देता।
जब कभी भी वह किसी असहाय या भिखारी को देखता तो घर में जो कुछ मिलता, उसे दान कर देता।
उसके इस आचरण की वजह से घर में अकसर फाका पड़ता था।
उसकी इन्हीं आदतों से परेशान होकर उसके माँ - बाप ने उसकी शादी करके उसे अलग कर दिया, ताकि वह गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को समझे और अपनी आदतें सुधारे।
लेकिन इसका उस पर कोई असर नहीं हुआ और वह पहले की ही तरह लोगों की सेवा करता रहा।
भक्त की पत्नी भी उसे पूरा सहयोग देती थी।
ऐसे भक्त से प्रसन्न होकर ही भगवान उसके घर आए थे, ताकि वे उसे कुछ देकर उसकी निर्धनता दूर कर दें तथा भक्त और अधिक ज़रूरतमंदों की सेवा कर सके।
भक्त ने द्वार पर साधु को आया देख अपने सामर्थ्य के अनुसार उनका स्वागत सत्कार किया।
वापस जाते समय साधू भक्त को पारस पत्थर देते हुए बोले-
इसकी सहायता से तुम्हें अथाह धन संपत्ति मिल जायेगी और तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे।
तुम इसे सँभालकर रखना।
इस पर भक्त बोला-
फिर तो आप यह पत्थर मुझे न दें।
यह मेरे किसी काम का नहीं।
वैसे भी मुझे कोई कष्ट नहीं है।
जूतियाँ गाँठकर मिलने वाले धन से मेरा काम चल जाता है।
मेरे पास राम नाम की संपत्ति भी है, जिसके खोने का भी डर नहीं।
यह सुनकर साधु वेशधारी भगवान लौट गए।
इसके बाद भक्त की सहायता करने की कोई कोशिशों में असफल रहने पर भगवान एक दिन उसके सपने में आए और बोले - प्रिय भक्त!
हमें पता है कि तुम लोभी नहीं हो।
तुम कर्म में विश्वास करते हो।
जब तुम अपना कर्म कर रहे हो तो हमें भी अपना कर्म करने दो।
इस लिए जो कुछ हम दें, उसे सहर्ष स्वीकार करो।
भक्त ने ईश्वर की बात मान ली और उनके द्वारा की गई सहायता और उनकी आज्ञा से एक मंदिर बनवाया और वहाँ भगवान की मूर्ति स्थापित कर उसकी पूजा करने लगा।
एक चर्मकार द्वारा भगवान की पूजा किया जाना पंडितों को सहन नहीं हुआ। उन्होने राजा से इसकी शिकायत कर दी।
राजा ने भक्त को बुलाकर जब उससे पूछा तो वह बोला - मुझे तो स्वयं भगवान ने ऐसा करने को कहा था।वैसे भी भगवान को भक्ति प्यारी होती है, जाति नहीं।
उनकी नज़र में कोई छोटा - बड़ा नहीं, सब बराबर हैं।
राजा बोला - क्या तुम यह साबित करके दिखा सकते हो?
भक्त बोला - क्यों नहीं।
मेरे मंदिर में विराजित भगवान की मूर्ति उठकर जिस किसी के भी समीप आ जाए, वही सच्चे अर्थों में उनकी पूजा का अधिकारी है।
राजा तैयार हो गया।
पहले पंडितों ने प्रयास किए लेकिन मूर्ति उनमें से किसी के पास नहीं आई।
जब भक्त की बारी आई तो उसने एक पद पढ़ा-
"देवाधिदेव आयो तुम शरना, कृपा कीजिए जान अपना जना।'
इस पद के पूरा होते ही मूर्ति भक्त की गोद में आ गई।
यह देख सभी को आश्चर्य हुआ।
राजा और रानी ने उसे तुरंत अपना गुरु बना लिया।
इस भक्त का नाम था रविदासजी हाँ, वही जिन्हें हम संत रविदास जी या संत रैदास जी के नाम से भी जानते हैं।
जिनकी महिमा सुनकर संत पीपा जी, श्री गुरुनानकदेव जी, श्री कबीर साहिब जी, और मीरांबाई जी भी उनसे मिलने गए थे।
यहाँ तक कि दिल्ली का शासक सिकंदर लोदी भी उनसे मिलने आया था।
उनके द्वारा रचित पदों में से 39 को "श्री गुरुग्रन्थ साहिब' में भी शामिल किया गया है।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इन सबके बाद भी संत रविदास जीवन भर चमड़ा कमाने और जूते गाँठने का काम करते रहे, क्योंकि वे किसी भी काम को छोटा नहीं मानते थे।
जिस काम से किसी के परिवार का भरण - पोषण होता हो, वह छोटा कैसे हो सकता है।
|| संत भक्त भगवान की जय हो ||
*हमें अब समझ आ रहा है*
*1. आखिर क्यों...*
शौचालय और स्नानघर निवास स्थान के बाहर होते थे।
*2. आखिर क्यों...*
बाल कटवाने के बाद या किसी के दाह संस्कार से वापस घर आने पर बाहर ही स्नान करना होता था बिना किसी व्यक्ति या समान को हाथ लगाए हुए।
*3. आखिर क्यों...*
पैरों की चप्पल या जूते को घर के बाहर उतारा जाता था, घर के अंदर ले जाना निषेध था।
*4. आखिर क्यों...*
घर के बाहर पानी रखा जाता था और कहीं से भी घर वापस आने पर हाथ पैर धोने के बाद अंदर प्रवेश मिलता था।
*5. आखिर क्यों...*
जन्म या मृत्यु के बाद घर - वालों को 10 या 13 दिनों तक सामाजिक कार्यों से दूर रहना होता था।
*6. आखिर क्यों...*
किसी घर में मृत्यु होने पर भोजन नहीं बनता था ।
*7. आखिर क्यों...*
मृत व्यक्ति और दाह संस्कार करने वाले व्यक्ति के वस्त्र श्मशान में त्याग देना पड़ता था।
*8. आखिर क्यों...*
भोजन बनाने से पहले स्नान करना जरूरी था और कोसे के गीले कपड़े पहने जाते थे।
*9. आखिर क्यों...*
स्नान के पश्चात किसी अशुद्ध वस्तु या व्यक्ति के संपर्क से बचा जाता था।
*10. आखिर क्यों...*
प्रातःकाल स्नान कर घर में ज्योति, कर्पूर, धूप एवं घंटी और शंख बजा कर पूजा की जाती थी।
*हमने अपने पूर्वजों द्वारा वेद पुराणों और सनातन धर्म एवं वास्तु शास्त्र के स्थापित नियमों को आडम्बर समझ कर छोड़ दिया और पश्चिम का अंधा अनुसरण करने लगे।*
आज कॉरोना वायरस ने हमें फिर से अपने संस्कारों की याद दिला दी है।
उनका महत्व बताया है।
सनातन धर्म, सदैव ज्ञान और परंपरा से हमेशा समृद्ध रहा है...!
हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना॥
जहाँ प्रेम है वहाँ ईश्वर प्रगट है!जहाँ प्रेम नहीं वहाँ अप्रगट है लेकिन व्याप्त सर्वत्र है प्रत्येक कण में, प्रत्येक परमाणु में वो व्याप्त है!
शब्दों से परे प्रेम है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है,वर्णन नहीं किया जा सकता....!
इस लिए कारण शब्दातीत है।
हम पूरे ब्रह्माण्ड को कागज समझ कर और पूरे समुद्र को स्याही बना कर और सारे जंगलो के पेड़ पोधों को लेखनी बना दें फिर भी वर्णन नहीं कर सकते हैँ....!
वो तो बस अनुभूति में जाना जा सकता है....!
वो आनंद के पलो में जाना जा सकता है।
प्रेम ही ईश्वर है मनुष्य के लिए प्रेम नहीं तो मनुष्य उसकी अनुभूति नहीं कर सकता है.....!
प्रेम प्रगट ही तब होता ज़ब हृदय करुणामय हो कोई चीज सुंदर अतिशय सुंदर लग रही है...!
तो कहीं न कहीं वो चीज हमारे अंदर करुणा के जाग्रत होने का कारण हो रही है....!
करुणामय ह्रदय आंनद देता है माध्यम कोई भी इन्द्रिय हो सकती है....!
दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों सुख आनंद की बूंद मात्र है शाश्वत सुख तो आनंद और आनंद करुणामय हृदय में प्रगट होता है!हृदय में करुणा है....!
तो इस जगत की हर चीज सुंदर प्रतीत होगी आनंदित करेगी करुणा परम् भाव है और प्रेम परमानंद!
भगवान ने जब इंसान की रचना की तो उसे दो पोटली दी।
कहा - एक पोटली को आगे की तरफ लटकाना और दूसरी को कंधे के पीछे पीठ पर।
आदमी दोनों पोटलियां लेकर चल पड़ा।
हां, भगवान ने उसे ये भी कहा था कि आगे वाली पोटली पर नजर रखना पीछे वाली पर नहीं।
समय बीतता गया।
ये आदमी आगे वाली पोटली पर बराबर नजर रखता।
आगे वाली पोटली में उसकी कमियां थीं और पीछे वाली में दुनिया की कमियां थी।
ये अपनी कमियां सुधारता गया और तरक्की करता गया।
एक एक कमी अपनी दूर करता जा रहा था।
पीछे वाली पोटली को इसने नजरंदाज कर रखा था।
एक दिन तालाब में नहाने के पश्चात दोनों पोटलियां अदल बदल हो गई।
आगे वाली पीछे और पीछे वाली आगे आ गई।
अब उसे दुनिया की कमियां ही कमियां नजर आने लगी।
ये ठीक नहीं, वो ठीक नहीं।
बच्चे ठीक नहीं, पड़ोसी बेकार है...!
सरकार निक्कमी है आदि - आदि।
अब वह सब में कमियां ढूंढने लगा खुद के अलावा।
परिणाम ये हुआ कि कोई नहीं सुधरा...!
पर उसका पतन होने लग गया।
वो चक्कर में पड़ गया कि ये हुआ क्या है?
वो वापस भगवान के पास गया।
भगवान ने उसे समझाया कि जब तक तेरी नजर अपनी कमियों पर थी तू तरक्की कर रहा था...!
जैसे ही तूने दूसरों में मीन - मेख निकालने शुरू कर दिए....!
यहीं से तेरा पतन शुरू हो गया।
हकीकत भी यही है कि हम किसी को नहीं सुधार सकते...!
हम अपने आपको सुधार ले इसी में हमारा कल्याण है।
हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा।
हम यही सोचते हैं कि सबको ठीक करके छोडूंगा, जबकि खुद को ठीक नहीं करते।।
निशुम्भशुम्भदलनि रक्तबीजविनाशिनि
धूम्रलोचननिर्णाशे वृत्रासुरनिबर्हिणि।
चण्डमुण्डप्रमथिनि दानवान्तकरे शिवे
नमस्ते विजये गङ्गे शारदे विकचानने।।
हे शुम्भ तथा निशुंभ का संहार करने वाली!
हे रक्तबीज का विनाश करने वाली!
हे धूम्रलोचन का वध करने वाली!
हे वृत्रासुर का वध करने वाली!
हे चण्ड तथा मुण्ड का दलन करने वाली!
हे दानवों का अन्त करने वाली!
हे शिवे! हे विजये!
हे गङ्गे! हे शारदे!
हे प्रसन्नमुखि! आपको नमस्कार है।'
जय हो मां विंध्यवासिनी..!
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
!!!!! शुभमस्तु !!!
🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद..
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏





