https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: 2021

।। श्री यजुर्वेद और ऋग्वेद के नियमित नियमो अनुसार हमारे जीवन मे कौनसा फल मिलता था ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

श्री यजुर्वेद और ऋग्वेद के नियमित नियमो अनुसार हमारे जीवन मे कौनसा फल मिलता था 


।। श्री यजुर्वेद और ऋग्वेद के नियमित नियमो 
अनुसार हमारे जीवन मे कौनसा फल मिलता था ।।

★★श्री यजुर्वेद और श्री ऋग्वेद के नियमित नियमो अनुसार सनातन धर्म ही हमारा जीवन मे पूर्वजो के द्वारा उसका चुस्त पूर्ण पालन करना ही क्यों शिखवाते रहते थे ।

*हमें अब समझ आ रहा है* 

*1. आखिर क्यों...*

शौचालय और स्नानघर निवास स्थान के बाहर होते थे। 

*2.  आखिर क्यों...*

बाल कटवाने के बाद या किसी के दाह संस्कार से वापस घर आने पर बाहर ही स्नान करना होता था बिना किसी व्यक्ति या समान को हाथ लगाए हुए। 


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*3. आखिर क्यों...*

पैरों की चप्पल या  जूते को घर के बाहर उतारा जाता था, घर के अंदर ले जाना निषेध था। 

*4. आखिर क्यों...*

घर के बाहर पानी रखा जाता था और कहीं से भी घर वापस आने पर हाथ पैर धोने के बाद अंदर प्रवेश मिलता था। 

*5. आखिर क्यों...*

जन्म या मृत्यु के बाद घर-वालों को 10 या 13 दिनों तक सामाजिक कार्यों से दूर रहना होता था। 


*6. आखिर क्यों...*

किसी घर में मृत्यु होने पर भोजन नहीं बनता था । 

*7. आखिर क्यों...*

मृत व्यक्ति और दाह संस्कार करने वाले व्यक्ति के वस्त्र श्मशान में त्याग देना पड़ता था। 

*8. आखिर क्यों...*

भोजन बनाने से पहले स्नान करना जरूरी था और कोसे के गीले कपड़े पहने जाते थे। 

*9. आखिर क्यों...*

स्नान के पश्चात किसी अशुद्ध वस्तु या व्यक्ति के संपर्क से बचा जाता था। 

*10. आखिर क्यों...*

प्रातःकाल स्नान कर घर में ज्योति, कर्पूर, धूप एवं घंटी और शंख बजा कर पूजा की जाती थी। 

*हमने अपने पूर्वजों द्वारा वेद पुराणों और सनातन धर्म एवं वास्तु शास्त्र के स्थापित नियमों को आडम्बर समझ कर छोड़ दिया और पश्चिम का अंधा अनुसरण करने लगे।* 

आज कॉरोना वायरस ने हमें फिर से अपने संस्कारों की याद दिला दी है।

उनका महत्व बताया है।

सनातन धर्म, सदैव ज्ञान और परंपरा से हमेशा समृद्ध रहा है...!


         !!!!! शुभमस्तु !!!


🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 ( तमिलनाडु )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
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।। श्री यजुर्वेद और ऋग्वेद के अनुसार होली के पूजन फल ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
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।। श्री यजुर्वेद और ऋग्वेद के अनुसार होली के पूजन फल ।।


श्री यजुर्वेद और ऋग्वेद के अनुसार होली के पूजन फल

हमारे वेदों पुराणों के अनुसार होली के पूजन और फल के बारे में सोचना मजबूर भी कर देता है।

इस त्यौहार का नाम सुनते ही अनेक रंग हमारी आंखों के सामने फैलने लगते हैं। 

हम खुदको भी विभिन्न रंगों में पुता हुआ महसूस करते हैं। 

लेकिन इस रंगीली होली को तो असल में धुलंडी कहा जाता है।

होली तो असल में होलीका दहन का उत्सव है जिसे बुराई पर अच्छाई की जीत के रुप में मनाया जाता है। 

यह त्यौहार भगवान के प्रति हमारी आस्था को मजबूत बनाने व हमें आध्यात्मिकता की और उन्मुख होने की प्रेरणा देता है। 

क्योंकि इसी दिन भगवान ने अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की और उसे मारने के लिये छल का सहारा लेने वाली होलीका खुद जल बैठी। 

तभी से हर साल फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका दहन किया जाता है। 


कई स्थानों पर इस त्योहार को छोटी होली भी कहा जाता है।


कैसे बनाते हैं होली :

होलिका दहन से पहले होली बनाई जाती है ।

इसकी प्रक्रिया एक महीने पहले ही माघ पूर्णिमा के दिन शुरु हो जाती है। 

इस दिन गुलर वृक्ष की टहनी को गांव या मोहल्ले में किसी खुली जगह पर गाड़ दिया जाता है।

इसे होली का डंडा गाड़ना भी कहते हैं। 

इसके बाद कंटीली झाड़ियां या लकड़ियां इसके इर्द गिर्द इकट्ठा की जाती हैं।

घनी आबादी वाले गांवों में तो मोहल्ले के अनुसार अलग - अलग होलियां भी बनाई जाती हैं। 

उनमें यह भी प्रतिस्पर्धा होती है।

कि किसकी होली ज्यादा बड़ी होगी। 

हालांकि वर्तमान में इस चलन में थोड़ी कमी आयी है।

इसका कारण इस काम को करने वाले बच्चे, युवाओं की अन्य चीजों में बढ़ती व्यस्तताएं भी हैं। 

फिर फाल्गुन पूर्णिमा के दिन गांव की महिलाएं, लड़कियां होली का पूजन करती हैं। 

महिलाएं और लड़कियां भी सात दिन पहले से गाय के गोबर से ढाल, बिड़कले आदि बनाती हैं।

गोबर से ही अन्य आकार के खिलौने भी बनाए जाते हैं।

फिर इनकी मालाएं बनाकर पूजा के बाद इन्हें होली में डालती हैं। 

इस तरह होलिका दहन के लिये तैयार होती है। 

होलिका दहन के दौरान जो डंडा पहले गड़ा था उसे जलती होली से बाहर निकालकर तालाब आदि में डाला जाता है ।

इस तरह इसे प्रह्लाद का रुप मानकर उसकी रक्षा की जाती है। 

निकालने वाले को पुरस्कृत भी किया जाता है। 

लेकिन जोखिम होने से यह चलन भी धीरे - धीरे समाप्त हो रहा है।

होलिका दहन का शुभ मुहूर्त :

जिसका समापन देर रात 12 बजकर 17 मिनट पर होगा। 

ऐसे में होलिका दहन को होगा। 

इस दिन आपको होलिका दहन के लिए 02 घंटे 20 मिनट का समय प्राप्त होगा। 

इस दिन होलिका दहन मुहूर्त शाम को 06 बजकर 37 मिनट से रात 08 बजकर 56 मिनट तक है।

होली पूजा विधि :

होलिका दहन से पहले होली का पूजन किया जाता है। 

पूजा सामग्री में एक लोटा गंगाजल यदि उपलब्ध न हो।

तो ताजा जल भी लिया जा सकता है।

रोली, माला, रंगीन अक्षत, गंध के लिये धूप या अगरबत्ती, पुष्प, गुड़, कच्चे सूत का धागा, साबूत हल्दी, मूंग, बताशे, नारियल एवं नई फसल के अनाज गेंहू की बालियां, पके चने आदि।

पूजा सामग्री के साथ होलिका के पास गोबर से बनी ढाल भी रखी जाती है। 

होलिका दहन के शुभ मुहूर्त के समय चार मालाएं अलग से रख ली जाती हैं। 

जो मौली, फूल, गुलाल, ढाल और खिलौनों से बनाई जाती हैं। 

इसमें एक माला पितरों के नाम की, दूसरी श्री हनुमान जी के लिये, तीसरी शीतला माता, और चौथी घर परिवार के नाम की रखी जाती है। 

इसके पश्चात पूरी श्रद्धा से होली के चारों और परिक्रमा करते हुए कच्चे सूत के धागे को लपेटा जाता है। 

होलिका की परिक्रमा तीन या सात बार की जाती है। 

इसके बाद शुद्ध जल सहित अन्य पूजा सामग्रियों को एक एक कर होलिका को अर्पित किया जाता है। 

पंचोपचार विधि से होली का पूजन कर जल से अर्घ्य दिया जाता है। 

होलिका दहन के बाद होलिका में कच्चे आम, नारियल, सतनाज, चीनी के खिलौने, नई फसल इत्यादि की आहुति दी जाती है। 

सतनाज में गेहूं, उड़द, मूंग, चना, चावल जौ और मसूर मिश्रित करके इसकी आहुति दी जाती है।

नारद पुराण के अनुसार होलिका दहन के अगले दिन ( रंग वाली होली के दिन ) प्रात: काल उठकर आवश्यक नित्यक्रिया से निवृत्त होकर पितरों और देवताओं के लिए तर्पण - पूजन करना चाहिए। 

साथ ही सभी दोषों की शांति के लिए होलिका की विभूति की वंदना कर उसे अपने शरीर में लगाना चाहिए। 

घर के आंगन को गोबर से लीपकर उसमें एक चौकोर मण्डल बनाना चाहिए और उसे रंगीन अक्षतों से अलंकृत कर उसमें पूजा - अर्चना करनी चाहिए। 

ऐसा करने से आयु की वृ्द्धि, आरोग्य की प्राप्ति तथा समस्त इच्छाओं की पूर्ति होती है।

कब करें होली का दहन :

हिन्दू धर्मग्रंथों एवं रीतियों के अनुसार होलिका दहन पूर्णमासी तिथि में प्रदोष काल के दौरान करना बताया है। 

भद्रा रहित, प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा तिथि, होलिका दहन के लिये उत्तम मानी जाती है। 

यदि ऐसा योग नहीं बैठ रहा हो तो भद्रा समाप्त होने पर होलिका दहन किया जा सकता है। 

यदि भद्रा मध्य रात्रि तक हो तो ऐसी परिस्थिति में भद्रा पूंछ के दौरान होलिका दहन करने का विधान है। 

लेकिन भद्रा मुख में किसी भी सूरत में होलिका दहन नहीं किया जाता। 

धर्मसिंधु में भी इस मान्यता का समर्थन किया गया है। 

शास्त्रों के अनुसार भद्रा मुख में होली दहन से न केवल दहन करने वाले का अहित होता है ।

बल्कि यह पूरे गांव, शहर और देशवासियों के लिये भी अनिष्टकारी होता है। 

विशेष परिस्थितियों में यदि प्रदोष और भद्रा पूंछ दोनों में ही होलिका दहन संभव न हो तो प्रदोष के पश्चात होलिका दहन करना चाहिये।

यदि भद्रा पूँछ प्रदोष से पहले और मध्य रात्रि के पश्चात व्याप्त हो तो उसे होलिका दहन के लिये नहीं लिया जा सकता ।

क्योंकि होलिका दहन का मुहूर्त सूर्यास्त और मध्य रात्रि के बीच ही निर्धारित किया जाता है।

नमो  देवि विश्वेश्वरि प्राणनाथे
सदानन्दरूपे सुरानन्ददे ते।
नमो दानवान्तप्रदे मानवाना-
 मनेकार्थदे भक्तिगम्यस्वरूपे ।।

हे  विश्वेश्वरि! 

हे प्राणों की स्वामिनी! सदा आनन्दरूप में रहने वाली तथा देवताओं को आनंद प्रदान करने वाली हे।

देवि! आपको नमस्कार है। 

दानवों का अन्त करने वाली, मनुष्यों को समस्त कामनाएं पूर्ण करने वाली तथा भक्ति के द्वारा अपने रूप का दर्शन करने वाली हे।

देवि! आपको नमस्कार है।'

वरं न राज्यं न कुराजराज्यं,
वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम्।
वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो,
वरं न दारा न कुदआरदाराः।।

भावार्थः - 

जिस राज्य में पापों एवं पापियों का वास हो, वहाँ निवास करने से अच्छा यही है।

कि मनुष्य किसी एकांत स्थान में वास करे। 

जो मित्र अविश्वासी, कपटी और दुष्ट हो।

उसकी मित्रता की अपेक्षा मित्रहीन रहना अधिक उचित है। 

अन्यथा - एक दिन मित्रता ही मनुष्य का सर्वनाश कर देगी। 

इसी प्रकार बुरे एवं चरित्रहीन शिष्यों तथा व्यभिचारिणी पत्नी के बिना रहना अधिक श्रेयस्कर है।

ऐसे लोग उस कोयले के समान होते हैं।

जो सत्पुरुषों के आश्रय में रहकर उनके व्यक्तित्व को ही कलंकित करते हैं। 

जो मनुष्य इनसे दूर रहता है वही जीवन के वास्तविक सुखों को भोगता है।

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।। श्री यजुर्वेद , श्री ऋग्वेद और श्री सामवेद के अनुसार सप्तशति अध्यायों के मुख्य प्रमुख मंत्र ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
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।। श्री यजुर्वेद , श्री ऋग्वेद और श्री सामवेद के अनुसार सप्तशति अध्यायों के मुख्य प्रमुख मंत्र  ।।


हमारे वेद पुराणों के अनुसार सप्तशती अध्यायों के मुख्य प्रमुख मंत्र :- 


सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है। 

प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गए हैं। 




प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ॐ ‘एं है। 

मध्यम चरित्र ( महालक्ष्मी ) का बीजाक्षर रूप ‘ह्रीं’ है। 

तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप ‘क्लीं’ है। 

अन्य तांत्रिक साधनाओं में 
‘ऐं’ मंत्र सरस्वती का, 
‘ह्रीं महालक्ष्मी का तथा 
‘क्लीं’ महाकाली बीज है। 

तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गए हैं। 

तंत्र वेदों से लिया गया है ।

श्रीऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है।

यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं।

मां दुर्गा के विविध मंत्र :- 

नवरात्र के समय दुर्गा सप्तशती मन्त्र का पाठ करने से आपकी हर समस्या ख़त्म हो जाएगी|

किसी भी प्रकार की मुश्किल या परेशानी से निपटने के लिए अलग विशेष मंत्र होते हैं | 

ये मंत्र काफी लाभदायक होते हैं और जल्द ही कारगर साबित होते हैं| 

अगर आप मंत्रों का उच्चारण सही से नहीं कर पाएं तो आप एक अच्छे व योग्य ब्राह्मण से इन मंत्रों का जाप करवा सकते हैं। 

इसी लिए आज हम आपको बताएंगे दुर्गा जी का बीज मंत्र जिसका पाठ करने से आपके जीवन में अत्यंत सकर्रातमकता आएगी व साथ ही आप के जीवन की साड़ी समस्याएं भी खत्म हो जाएंगी| 

उन्होने महिषासुर नामके असुर का वध किया। 

हिन्दू ग्रन्थों में वे शिव की पत्नी पार्वती के रूप में वर्णित हैं ।

हिन्दू धर्म के देव ग्रंथों के अनुसार माता दुर्गा की उपासना के लिए आठ अक्षरों का 1 अद्भुत मंत्र है। 

‘ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नम:’. 

यह आठ अक्षरों का भगवती दुर्गा का सिद्धि मंत्र है जिसका पाठ रक्तचन्दन की 108 दाने की माला से प्रतिदिन शुद्ध अवस्था में करना चाहिये। 

माता अवश्य प्रसन्न होंगी और आशीर्वाद देंगी और आपकी सभी मुश्किलें दूर करेंगी। 

यहाँ आप कई प्रकार के माँ दुर्गा के मंत्र पा सकता है जिससे आप कई मुसीबतों से बाहर आ सकते है अपने जीवन में। 

पूर्ण श्रद्धा से किया गया मंत्र उच्चारण फल अवश्य देता है ।

1. सर्व सिद्धिः 

दुर्गा मंत्र:- 

उपयुक्त इच्छा को पूरा करने के लिए दुर्गा मंत्र । 

यह मंत्र सभी प्रकार की सिद्धिः को पाने में मदद करता है ।

यह मंत्र सबसे प्रभावी और गुप्त मंत्र माना जाता है और सभी उपयुक्त इच्छाओं को पूरा करने की शक्ति इस मंत्र में होती है।

ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नम:

2. सुंदर ,बुद्धि समृद्धि दुर्गा मंत्र:- 

यह देवी माँ का बहुत लोकप्रिय मंत्र है। 

यह मंत्र देवी प्रदर्शन के समारोहों में आवश्यक है। 

श्रीदुर्गा सप्तशती प्रदर्शन से पहले इस मंत्र को सुनाना आवश्यक है।

इस मंत्र की शक्ति : 

यह मंत्र दोहराने से हमें सुंदरता ,बुद्धि और समृद्धि मिलती है। 

यह आत्म की प्राप्ति में मदद करता है।

“ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ”

बीज मंत्र क्या है :- 

बीज मंत्र एक मंत्र का सबसे छोटा रूप है ।

जो की अलग - अलग देवताओं के लिए होता है| 

माँ दुर्गा मंत्र का बीज मंत्र, जब एक साथ पठित किया जाता है ।

तो मनुष्य को बहुत सारी सकारात्मक ऊर्जा और सभी देवताओं के आशीर्वाद मिलते हैं। 

श्रीदुर्गा सप्तशती बीज मंत्र साधना से आपके जीवन से सारी परेशानियां मिट जाती हैं| 

माँ दुर्गा का बीज मंत्र - तंत्र शास्त्र के अनुसार, किसी भी नवरात्रि में यदि श्रीदुर्गा सप्तशती के मंत्रों का जाप विधि - विधान से किया जाए तो साधक की हर परेशानी दूर हो सकती है। 

श्रीदुर्गा सप्तशती में हर समस्या के लिए एक विशेष मंत्र बताया गया है। 

ये मंत्र बहुत ही जल्दी असर दिखाते हैं ।

यदि आप मंत्रों का उच्चारण ठीक से नहीं कर सकते तो किसी योग्य ब्राह्मण से इन मंत्रों का जाप करवाएं, अन्यथा इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। 

दुर्गा सप्तशती के सिद्ध चमत्कारी मंत्र इस प्रकार हैं| 

इनको विधि पूर्ण तरीके से करने से आपकी सारी परेशानी खत्म हो जाती हैं| 

मंत्र जाप की विधि इस प्रकार है-
जाप विधि :- 

सुबह जल्दी उठकर साफ वस्त्र पहनकर सबसे पहले माता दुर्गा की पूजा करें। 

इसके बाद अकेले में कुशा ( एक प्रकार की घास ) के आसन पर बैठकर लाल चंदन के मोतियों की माला से इन मंत्रों का जाप करें।

इन मंत्रों की प्रतिदिन 5  , 7 , 11 ,21 , 51, या 108 माला जाप करने से मन को शांति तथा प्रसन्नता मिलती है। 

लेकिन जितनी माला पहला दिन हो उतना ही रोज का नियम बना रखना जरूरी होता है ।

एक दिन सात माला कर दिया या अगियार माला कर दिया फिर दुशरा दिन पांच या सात करके छोड़ देने से कुछ फल नही मिलेगा।

यदि जाप का समय, स्थान, आसन, तथा माला एक ही हो तो यह मंत्र शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं।

सुंदर पत्नी के लिए मंत्र

ॐ पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम।।

गरीबी मिटाने के लिए

ॐ दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो: स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्रयदु:खभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदाद्र्रचिता।।

रक्षा के लिए

ॐ शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके। 
घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च।।

स्वर्ग और मुक्ति के लिए


ॐ सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हदि संस्थिते। 
स्वर्गापर्वदे देवि नारायणि नमोस्तु ते।।

मोक्ष प्राप्ति के लिए

ॐ त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या विश्वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत् त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतु:।।

सपने में सिद्धि - असिद्धि जानने का मंत्र

ॐ दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके। 
मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय।।

सभी के कल्याण के लिए मंत्र

ॐ देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्शेषदेवगण शक्तिसमूहमूत्र्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां भकत्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न: ।।

भय नाश के लिए


ॐ यस्या: प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च।
सा चण्डिका खिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु।।

रोग नाश के लिए

ॐ रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति।।

बाधा शांति के लिए

ॐ सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि। 
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनासनम्।।

विपत्ति नाश के लिए मंत्र

ॐ देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरी पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य।।

गौरी मंत्र लायक पति मिलने के लिए

हे गौरी शंकरधंगी ! 
यथा तवं शंकरप्रिया ।।
तथा मां कुरु कल्याणी ! 
कान्तकान्तम् सुदुर्लभं ।।

सब प्रकार के कल्याण के लिये दुर्गा मंत्र


ॐ सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। 
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

आकर्षण के लिए दुर्गा मंत्र

ॐ क्लींग ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती ही सा ।
बलादाकृष्य मोहय महामाया प्रयच्छति ।।

विपत्ति नाश के लिए दुर्गा मंत्र

ॐ शरणागत दीनार्तपरित्राणा परायणे। 
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

शक्ति प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र

ॐ सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि। 
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र

ॐ देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। 
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

भय नाश के लिए दुर्गा मंत्र

“ॐ सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते। 
भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥

महामारी नाश के लिए दुर्गा मंत्र

ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। 
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥

पाप नाश के लिए दुर्गा मंत्र

ॐ हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्। 
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव॥

भुक्ति - मुक्ति की प्राप्ति के लिए दुर्गा मंत्र

ॐ विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्। 
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।

हर तरह के भय एवं संकट से आपकी रक्षा के लिए।

ॐ रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र |दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ||

विघ्नों के नाश, दुर्जनों व शत्रुओं को मात व अहंकार के नाश के लिए दुर्गा गायत्री मंत्र

ॐ गिरिजायै विद्महे शिव धीमहि तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ||

         !!!!! शुभमस्तु !!!

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जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्री यजुर्वेद और श्री पद्मपुराण , श्री विष्णुपुराण के अनुसार महा मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी वर्त फल ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री यजुर्वेद और श्री पद्मपुराण , श्री विष्णुपुराण के अनुसार महा मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी वर्त फल ।।


हमारे वेदों पुराणों के अनुसार माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी “जया एकादशी” कहलाती है ।

माघ माह में आने वाली इस एकादशी में भगवान श्री विष्णु के पूजन का विधान है।

एकादशी तिथि को भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है ।

इस दिन व्रत और पूजा नियम द्वारा प्रत्येक मनुष्य भगवान श्री विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है.। 

जया एकादशी का व्रत रखा जाएगा। 



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वैष्णवों में एकादशी को अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना गया है ।

इसी के साथ हिन्दू धर्म के लिए एकादशी तिथि एवं इसका व्रत अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है।

नारदपुराण में एकादशी तिथि के विषय में बताया गया है ।

कि किस प्रकार एकादशी व्रत सभी पापों को समाप्त करने वाला है और भगवान श्री विष्णु का सानिध्य प्राप्त करने का एक अत्यंत सहज सरल साधन है ।

एकादशी व्रत के के दिन सुबह स्नान करने के बाद पुष्प, धूप आदि से भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए।

जया एकादशी की तिथि: के महातम...!

ज्योतिष के अनुसार इस दिन रवि योग और त्रिपुष्कर योग बन रहा है। 

ऐसे में यदि कोई भी इस दिन व्रत रखता है और भगवान विष्णु जी की पूजा करता है तथा जया एकादशी की व्रत कथा का श्रवण मात्र कर लेता है ।

तो उसके जन्म - जन्मातंर के दुख - विपदाएं दूर होकर उसे सुख - सौभाग्य और मोक्ष की प्राप्ति होती हैं।

जया एकादशी कथा...!

जया एकादशी की कथा को पढ़ना और सुनना अत्यंत ही उत्तम होता है ।

पद्मपुराण में वर्णित जया एकादशी महिमा की एक कथा का आधा फल इस व्रत कथा को सुनने मात्र से ही प्राप्त हो जाता है.। 

जया एकादशी के विषय में जानने की इच्छा रखते हुए युधिष्ठिर भगवान मधूसूदन ( श्री कृष्ण ) से कथा सुनाने को कहते हैं ।

युधिष्ठिर कहते हैं की हे भगवान माघ शुक्ल पक्ष को आने वाली एकादशी किस नाम से जानी जाती है और इस एकादशी व्रत करने की विधि क्या है ।

आप इस एकादशी के माहात्म्य को हमारे समक्ष प्रकट करने की कृपा करिए। 

आप ही समस्त विश्व में व्याप्त है।

आपका न आदि है न अंत, आप सभी प्राणियों के प्राण का आधार है ।

आप ही जीवों को उत्पन्न करने वाले ।

पालन करने और अंत में नाश करके संसार के बंधन से मुक्त करने वाले हैं ।

ऎसे में आप हम पर भी अपनी कृपा दृष्टि डालते हुए संसार का उद्धार करने वाली इस एकादशी के बारे में विस्तार से कहें ।

हम इस कथा को सुनने के लिए आतुर हैं। 

युधिष्ठिर के इन वचनों को सुनकर भगवान श्री कृष्ण प्रसन्न भाव से उन्हें एकादशी व्रत की महिमा के विषय में बताते हुए कहते हैं ।

कि - हे... ! 

कुन्ति पुत्र माघ माह के शुक्ल पक्ष को आने वाली एकादशी, जया एकादशी होती है ।

अपने नाम के अनुरुप ही इस एकादशी को करने पर व्यक्ति को समस्त कार्यों में जय की प्राप्ति होती है।

 व्यक्ति अपने कार्यों को सफल कर पाता है। 

इस जया एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति को ब्रह्म हत्या के पाप से भी मुक्ति प्राप्त हो जाती है।

मनुष्य अपने पापों से मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त करता है ।

इस एकादशी के प्रभाव से कष्टदायक योनियों से मुक्ति पाता है ।

जया एकादशी व्रत को विधि - विधान से करने पर मनुष्य मेरे सानिध्य एवं परमधाम को पाने का अधिकारी बनता है.

श्री राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥

जया एकादशी कथा इस प्रकार है-।

एक समय स्वर्ग के देवता देवराज इंद्र नंदन वन में अप्सराओं व गंधर्वों के साथ विहार कर रहे थे।

वहां पर पुष्पवती नामक गंधर्व कन्या, माल्यवान नामक गंधर्व पर मोहित हो जाती है ।

माल्यवान भी पुष्पवती के रुप सौंदर्य से आकर्षित हो जाता है ।

दोनों एक दूसरे के प्रेम में वशीभूत होने के कारण अपने संगीत एवं गान कार्य को सही से नहीं कर पाने के कारण इंद्र के कोप के भागी बनते हैं। 

उनके सही प्रकार के गान और स्वर ताल के बिगड़ जाने के कारण इंद्र का ध्यान भंग हो जाता है और वह क्रोध में आकर उन्हें श्राप दे देते हैं ।

इंद्र ने उन दोनों गंधर्वों को स्त्री - पुरुष के रूप में मृत्यु लोक में जाकर पिशाच योनी में जन्म लेने का श्राप दे दिया ।

इंद्र के श्राप के प्रभाव स्वरुप वह दोनों दु:खी मन से हिमालय के क्षेत्र में जाकर अपना जीवन बिताने लगते हैं ।

वह अत्यंत कष्ट में जीवन व्यतीत करने लगते हैं।

किसी भी वस्तु का उन्हें आभास भी नहीं हो पाता है।

रुप, स्पर्श गंध इत्यादि का उन्हें बोध ही नहीं रह पाता है। 

अपने कष्टों से दुखी वह हर पल अपनी इस योनी से मुक्ति के मार्ग की अभिलाषा रखते हुए जीवन बिता रहे होते हैं ।

तब माघ मास में शुक्ल पक्ष की जया नामक एकादशी का दिन भी आता है।

उस दिन उन दोनों को पूरा दिन भोजन नही मिल पाता है ।

बिना भोजन किए वह संपूर्ण दिन व्यतीत कर देते हैं ।

भूख से व्याकुल हुए रात्रि समय उन्हें निंद्रा भी प्राप्त नहीं हो पाती है ।

उस दिन जया एकादशी के उपवास और रात्रि जागरण का फल उन्हें प्राप्त होता है और अगले दिन उसके प्रभाव स्वरुप वह पिशाच योनी से मुक्ति प्राप्त करते हैं। 


इस प्रकार श्रीकृष्ण, कथा संपन्न करते हैं ।

वह युधिष्ठिर से कहते हैं कि जो भी इस एकादशी के व्रत को करता है और इस कथा को सुनता है उसके समस्त पापों का नाश होता है।

जया एकादशी के व्रत से भूत - प्रेत - पिशाच आदि योनियों से मुक्ति प्राप्त होती है।

इस एकादशी के व्रत में पूजा, दान, यज्ञ, जाप का अत्यंत महत्व होता है ।

अत: जो मनुष्य जया एकादशी का व्रत करते हैं वे अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं। 

जया एकादशी व्रत विधि....!

जया एकादशी का व्रत करने के लिए ।

दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रत के नियमों का ध्यान रखना चाहिए ।

दशमी तिथि से ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए समस्त तामसिक वस्तुओं का त्याग करना चाहिए।

अगले दिन एकादशी तिथि समय सुबह स्नान करने के बाद पुष्प, धूप आदि से भगवान विष्णु की पूजा करना चाहिए।

इस दिन शुद्ध चित्त मन से भगवान श्री विष्णु का पूजन करना चाहिए.दिन भर व्रत रखना चाहिए ।

अगर निराहार नहीं रह सकते हैं तो फलाहार का सेवन करना चाहिए ।'

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस द्वादश मंत्र का जाप करना चाहिए.विष्णु के सहस्रनामों का स्मरण करना चाहिए ।

सामर्थ्य अनुसार दान करना चाहिए। 

इसी प्रकार रात्रि के समय में भी व्रत रखते हुए श्री विष्णु भगवान का भजन किर्तन करते हुए जागरण करना चाहिए ।

अगले दिन द्वादशी को प्रात:काल समय ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए और स्वयं भी भोजन करके व्रत संपन्न करना चाहिए। 



श्रीद्वादशनाम पञ्जरस्तोत्रम्।

पुरस्तात् केशवः पातु चक्री जाम्बूनदप्रभः। 
पश्चान्नारायणः शङ्खी नीलजीमूतसन्निभः॥

 इन्दीवरदलश्यामो माधवोर्ध्वं गदाधरः। 
गोविन्दो दक्षिणे पार्श्वे धन्वी चन्द्रप्रभो महान्॥

उत्तरे हलभृद्विष्णुः पद्मकिञ्जल्कसन्निभः।
 आग्नेय्यामरविन्दाभो मुसली मधुसूदनः॥

त्रिविक्रमः खड्गपाणिर्निरृत्यां ज्वलनप्रभः। 
वायव्यां वामनो वज्री तरुणादित्यदीप्तिमान्॥

ऐशान्यां पुण्डरीकाभः श्रीधरः पट्टसायुधः। 
विद्युत्प्रभो हृषीकेशो ह्यवाच्यां दिशि मुद्गरी॥ 

हृत्पद्मे पद्मनाभो मे सहस्रार्कसमप्रभः। 
सर्वायुधः सर्वशक्तिः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः॥

 इन्द्रगोपकसङ्काशः पाशहस्तोऽपराजितः। 
स बाह्याभ्यन्तरं देहं व्याप्य दामोदरः स्थितः॥ 

एवं सर्वत्रमच्छिद्रं नामद्वादशपञ्जरम्।
 प्रविष्टोऽहं न मे किञ्चिद्भयमस्ति कदाचन॥

भयं नास्ति कदाचन ॐ नम इति॥

इति श्रीद्वादशनामपञ्जरस्तोत्रं सम्पूर्णम्।

॥श्रीभागवतसूत्र॥

आदौ देवकिदेविगर्भजननं गोपीगृहे वर्धनम् मायापूतनजीवितापहरणं गोवर्धनोद्धारणम् ॥

कंसच्छेदनकौरवादिहननं कुंतीसुतां पालनम् एतद्भागवतं पुराणकथितं श्रीकृष्णलीलामृतम्॥ 

॥गीतास्तव॥

पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेन स्वयम् व्यासेनग्रथितां पुराणमुनिना मध्ये महाभारते। अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशाध्यायिनीम् अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवेद्वेषिणीम्॥

।| देवी मां वरदान ||

एक लोक कथा के अनुसार पुराने समय में एक दंपत्ति को संतान सुख नहीं मिल पा रहा था। 

दोनों ने देवी मां को मनाने के लिए तप किया। 

माता प्रसन्न हुई और उस दंपत्ति से कहा कि मेरे पास दो पुत्र हैं। 

एक पुत्र हजार साल तक जिएगा...!

लेकिन वह मूर्ख होगा...!

दूसरा पुत्र अल्पायु होगा,...!

लेकिन बहुत बुद्धिमान होगा। 

तुम दोनों को कौन सा पुत्र चाहिए। 

पति - पत्नी ने कहा कि माता हमें दूसरा पुत्र दे दीजिए।

कुछ समय के बाद पति - पत्नी के घर एक पुत्र ने जन्म लिया। 

जब वह पांच साल का हो गया तो पति पत्नी को चिंता होने लगी कि हमारा पुत्र अल्पायु है। 

पता नहीं किस दिन अनर्थ हो जाएगा। 

पति ने अपने पुत्र को उच्च शिक्षा देने के लिए गुरुकूल में भेज दिया।

उस लड़के ने पूरी शिक्षा ग्रहण कर ली। 

जब वह 16 साल का हुआ तो उसका विवाह एक सुंदर और संस्कारी कन्या से हो गया। 

विवाह के दिन ही यमराज नाग का रूप धारण करके उस लड़के को डंसने पहुंच गए।

मौका मिलते ही सांप ने लड़के को डंस लिया और उसकी मृत्यु हो गई। 

ये देखकर उसकी पत्नी ने नाग को उठाया और एक कमंडल में बंद कर दिया। 

वह लड़की देवी मां भक्त और तपस्वी थी। 

जब ये बात सभी देवी - देवताओं को मालूम हुई तो उन्होंने देवी मां से निवेदन किया कि वे यमराज को स्वतंत्र करवाएं।

उनके बिना सृष्टि का संचालन रुक गया है।

लड़की के सामने देवी मां प्रकट हुई और उन्होंने लड़की से नाग को आजाद करने के लिए कहा। 

लड़की ने कहा कि इन्हें मेरे पति के प्राण लौटाने होंगे, तभी मैं इन्हें स्वतंत्र करूंगी। 

सभी देवी - देवता उस लड़की के सतीत्व के आगे हार गए और इस बात का वचन दे दिया।

लड़की ने कमंडल से नाग को बाहर निकाल दिया। 

नाग के आजाद होते ही वहां यमराज प्रकट हो गए। 

यमराज ने लड़की की भक्ति और सतीत्व की प्रशंसा की और उसके पति पुन: जीवन दान दे दिया।

कथा की सीख- 
     
इस कथा की सीख यह है कि स्त्री अपने पति की बड़ी से बडी परेशानी को भी दूर कर सकती है।

शास्त्रों की मान्यता है। 

कि पत्नी की शुभ कामों से पति का भाग्य उज्जवल होता है, बाधाएं खत्म होती हैं। 

इसी लिए स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र और सौभाग्य के लिए व्रत-उपवास करती हैं।

    *|| देवी मां की जय हो ||*


         !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वर्द और विष्णु पुराण गौ सेवा का महात्म की सुंदर कहानी ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वर्द और विष्णु पुराण गौ सेवा का महात्म की सुंदर कहानी  ।।


श्री ऋगवेद श्री यजुर्वर्द और विष्णु पुराण गौ सेवा का महात्म की सुंदर कहानी में गौ भक्त राजर्षि दिलीप की कथा!

शास्त्रो में राजा को भगवान् की विभूति माना गया है। 

साधारण व्यक्ति से श्रेष्ट राजा को माना जाता है, राजाओ में भी श्रेष्ट सप्तद्वीपवती पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट को और अधिक श्रेष्ट माना गया है। 

ऐसे ही पृथ्वी के एकछत्र सम्राट सूर्यवंशी राजर्षि दिलीप एक महान गौ भक्त हुऐ। 

महाराज दिलीप और देवराज इन्द्र में मित्रता थी । 

देवराज के बुलाने पर दिलीप एक बार स्वर्ग गये । 



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देव असुर संग्राम में देवराज ने महाराज दिलीप से सहायता मांगी। 

राजा दिलीप ने सहायता करने के लिए हाँ कर दी और देव असुर युद्ध हुआ । 

युद्ध समाप्त होने पर स्वर्ग से लौटते समय मार्ग में कामधेनु मिली; 

किंतु दिलीप ने पृथ्वीपर आने की आतुरता के कारण उसे देखा नहीं । 

कामधेनु को उन्होंने प्रणाम नहीं किया , 

न ही प्रदक्षिणा की। 

इस अपमान से रुष्ट होकर कामधेनु ने शाप दिया- मेरी संतान ( नंदिनी गाय ) यदि कृपा न करे तो यह पुत्रहीन ही रहेगा ।

महाराज दिलीप को शाप का कुछ पता नहीं था । 
किंतु उनके कोई पुत्र न होने से वे स्वयं, महारानी तथा प्रजा के लोग भी चिन्तित एवं दुखी रहते थे । 

पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महाराज दिलीप रानी के साथ कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ के आश्रमपर पहुंचे । 

महर्षि सब कुछ समझ गए। 

महर्षि ने कहा यह गौ माता के अपमान के पाप का फल है। 

सुरभि गौ की पुत्री नंदिनी गाय हमारे आश्रम पर विराजती है । 

महर्षि ने आदेश दिया - कुछ काल आश्रम में रहो और मेरी कामधेनु नन्दिनी की सेवा करो। 



महाराज ने गुरु की आज्ञा स्वीकार कर ली । 

महारानी सुदक्षिणा प्रात: काल उस गौ माता की भलीभाँति पूजा करती थी । 

आरती उतारकर नन्दिनी को पतिके संरक्षण - में वन में चरने के लिये विदा करती । 

सम्राट दिनभर छाया की भाँती उसका अनुगमन करते, उसके ठहरने पर ठहरते, चलनेपर चलते, बैठने पर बैठते और जल पीनेपर जल पीते । 

संध्या काल में जब सम्राट के आगे - आगे सद्य:प्रसूता, बालवत्सा ( छोटे दुधमुँहे बछड़े वाली ) नन्दिनी आश्रम को लौटती तो महारानी देवी सुदक्षिणा हाथमें अक्षत - पात्र लेकर उसकी प्रदक्षिणा करके उसे प्रणाम करतीं और अक्षतादिसे पुत्र प्राप्तिरूप अभीष्ट - सिद्धि देनेवाली उस नन्दिनी का विधिवत् पूजन करतीं ।

अपने बछड़े को यथेच्छ पय:पान ( दूध पान ) कराने के बाद दुह ली जानेपर नन्दिनी की रात्रिमें दम्पति पुन: परिचर्या करते, अपने हाथों से कोमल हरित शष्प - कवल खिलाकर उसकी परितृप्ति करते और उसके विश्राम करने पर शयन करते । 

इस तरह उसकी परिचर्या करते इक्कीस दिन बीत गये । 

एक दिन वन में नन्दिनी का अनुराग करते महाराज दिलीप की दृष्टि क्षणभर अरण्य ( वन ) की प्राकृतिक सुंदरता में अटक गयी कि तभी उन्हें नन्दिनी का आर्तनाद सुनायी दिया । 

वह एक भयानक सिंह के पंजों में फँसी छटपटा रही थी । 

उन्होंने आक्राम क सिंह को मारने के लिये अपने तरकश से तीर निकालना चाहा, किंतु उनका हाथ जडवत् निश्चेष्ट होकर वहीं अटक गया।

वे चित्रलिखे से खड़े रह गये और भीतर ही भीतर छटपटाने लगे, तभी मनुष्य की वाणी में सिंह बोल उठा - राजन्! 

तुम्हारे शस्त्र संधान का श्रम उसी तरह व्यर्थ है जैसे वृक्षों को उखाड़ देनेवाला प्रभंजन पर्वत से टकराकर व्यर्थ हो जाता है । 

मैं भगवान् शिव के गण निकुम्भ का मित्र कुम्भोदर हूं ।

भगवान् शिव ने सिंहवृत्ति देकर मुझे हाथी आदिसे इस वन के देवदारुओ की रक्षाका भार सौंपा है । 

इस समय जो भी जीव सर्वप्रथम मेरे दृष्टि पथ में आता है वह मेरा भक्ष्य बन जाता है । 

इस गाय ने इस संरक्षित वनमें प्रवेश करने की अनधिकार चेष्टा की है और मेरे भोजन की वेलामे यह मेरे सम्मुख आयी है।

अत: मैं इसे खाकर अपनी क्षुधा शान्त करूँगा । 

तुम लज्जा और ग्लानि छोड़कर वापस लौट जाओ । 

किंतु परदु:खकातर दिलीप भय और व्यथा से छटपटाती, नेत्रोंसे अविरल अश्रुधारा बहाती नन्दिनी को देखकर और उस संध्याकाल मे अपनी माँ की उत्कण्ठा से प्रतीक्षा करनेवा ले उसके दुधमुँहे बछड़े का स्मरण कर करुणा -विगलित हो उठे । 

नन्दिनी का मातृत्व उन्हें अपने जीवन से कहीं अधिक मूल्यवान् जान पड़ा और उन्होंने सिंह से प्रार्थना की कि वह उनके शरीर को खाकर अपनी भूख मिटा हो और बालवत्सा नन्दिनी को छोड़ दे। 

सिंह ने राजा के इस अदभुत प्रस्ताव का उपहास करते हुए कहा - राजन्! 

तुम चक्रवर्ती सम्राट  हो । 

गुरु को नन्दिनी के बदले करोडों दुधार गौएँ देकर प्रसन्न कर सकते हो । 

अभी तुम युवा हो, इस तुच्छ प्राणीके लिये अपने स्वस्थ - सुन्दर शरीर और यौवन की अवहेलना कर जानकी बाजी लगाने वाले स्रम्राट! 

लगता है, तुम अपना विवेक खो बैठे हो ।

यदि प्राणियों पर दया करने का तुम्हारा व्रत ही है।

तो भी आज यदि इस गायके बादले में मैं तुम्हें खा लूँगा तो तुम्हारे मर जाने पर केवल इसकी ही विपत्तियों से रक्षा हो सकेगी और यदि तुम जीवित रहे तो पिता की भाँती सम्पूर्ण प्रजा की  निरन्तर विपत्तियों से रक्षा करते रहोगे । 

इस लिये तुम अपने सुख भोक्ता शरीर की रक्षा करो । 

स्वर्ग प्राप्ति के लिये तप त्याग करके शरीर की कष्ट देना तुम जैसे अमित ऐश्वर्यशालियों के लिये निरर्थक है । 

स्वर्ग ?

अरे वह तो इसी पृथ्वीपर है । 

जिसे सांसारिक वैभव-विलास के समग्र साधन उपलब्ध हैं।

वह समझो कि स्वर्ग में ही रह रहा है । 

स्वर्गका काल्पनिक आकर्षण तो मात्र विपन्नो के लिए ही है।

सम्पन्नो के लिए नहीं। 

इस तरह से सिंह ने राजा को भ्रमित करने का प्रयत्न किया। 

भगवान् शंकर के अनुचर सिंह की बात सुनकर अत्यंत दयालु महाराज दिलीप ने उसके द्वारा आक्रान्त नंदिनी को देखा जो अश्रुपूरित कातर नेत्रों से उनकी ओर देखती हुई प्राणरक्षाकी याचना कर रही थी । 

राजा ने क्षत्रियत्व के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए उत्तर दिया - 

नहीं सिह ! 

नहीं, मैं गौ माता को तुम्हारा भक्ष्य बनाकर नहीं लौट सकता । 

मैं अपने क्षत्रियत्व को क्यों कलंकित करूं ?

क्षत्रिय संसार में इसलिये प्रसिद्ध हैं कि वे विपत्ति से औरों की रक्षा करते हैं । 

राज्य का भोग भी उनका लक्ष्य नहीं । 

उनका लक्ष्य तो है लोकरक्षासे कीर्ति अर्जित करना । 

निन्दा से मलिन प्राणों और राज्य को तो वे तुच्छ वस्तुओ की तरह त्याग देते हैं इस लिये तुम मेरे यश:शरीर पर दयालु होओ । 

मेरे भौतिक शरीर को खाकर उसकी रक्षा करो; क्योंकि यह शरीर तो नश्वर है, मरणधर्मा है । 

इस लिये इसपर हम जैसे विचारशील पुरुषों की ममता नहीं होती । 

हम तो यश: 

शरीरके पोषक हैं। 

यह मांस का शारीर न भी रहे परंतु गौरक्षा से मेरा यशः 

शारीर सुरक्षित रहेगा । 

संसार यही कहेगा की गौ माता की रक्षा के लिए एक सूर्यवंश के राजा ने प्राण की आहुति दे दी । 

एक चक्रवर्ती सम्राट के प्राणों से भी अधिक मूल्यवान एक गाय है।

सिंह ने कहा – 

अगर आप अपना शारीर मेरा आहार बनाना ही चाहते है तो ठीक है। 

सिंह के स्वीकृति दे देने पर राजर्षि दिलीप ने शास्त्रो को फेंक दिया और उसके आगे अपना शरीर मांस पिंड की तरह खाने के लिये डाल दिया और वे जाके सिर झुकाये आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे, तभी आकाश से विद्याधर उनपर पुष्पवृष्टि करने लगे । 

उत्तिष्ठ वत्से त्यमृतायमानं वचः निशम्य
नन्दिनी ने कहा हे पुत्र ! 

उठो ! 

यह मधुर दिव्य वाणी सुनकर राजा को महान् आश्चर्य हुआ और उन्होंने वात्सल्यमयी जननी की तरह अपने स्तनोंसे दूध बहाती हुई नन्दिनी गौ को देखा, किंतु सिंह दिखलायी नहीं दिया । 

आश्चर्यचकित दिलीप से नन्दिनी ने कहा- 

हे सत्युरुष ! 

तुम्हारी परीक्षा लेनेके लिये मैंने ही माया स्व सिंह की सृष्टि की थी ।

महर्षि वसिष्ठ के प्रभावसे यमराज भी मुझपर प्रहार नहीं कर सकता तो अन्य सिंहक सिंहादिकी क्या शक्ति है । 

मैं तुम्हारी गुरुभक्ति से और मेरे प्रति प्रदर्शित दयाभाव से अत्यन्त प्रसन्न हूं । 

वर माँगो ! 

तुम मुझे दूध देनेवाली मामूली गाय मत समझो, अपितु सम्पूर्ण कामनाएं पूरी करनेवाली कामधेनु जानो । 

राजा ने दोनों हाथ जोड़कर वंश चलानेवाले अनन्तकीर्ति पुत्रकी याचना की नन्दिनीने ‘तथास्तु’ कहा। 

उन्होंने कहा राजन् मै आपकी गौ भक्ति से अत्याधिक प्रसन्न हूं।

मेरे स्तनों से दूध निकल रहा है उसे पत्तेके दोने में दुहकर पी लेने की आज्ञा गौ माता ने दी और कहा तुम्हे अत्यंत प्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी।

राजाने निवेदन किया-

‘ मां ! 

बछड़े के पीने तथा होमादि अनुष्ठान के बाद बचे हुए ही तुम्हारे दूध को मैं पी सकता हूं । 

दूध पर पहला अधिकार बछड़े का है और द्वितीय अधिकार गुरूजी का है। 

भक्त्यागुरौ मय्यनुकम्पया च प्रीतास्मि ते पुत्र वरं वृणीष्व।
न केवलानां पयसां प्रसूतिमवेहि  मां कामदुघां प्रसन्नाम्।।

राजा के धैर्यने नन्दिनो के हृदय को जीत लिया । 



वह प्रसन्नमना कामधेनु राजा के आगे आगे आश्रम लोट आयी । 

राजा ने बछड़े के पीने तथा अग्निहोत्र से बचे दूधका महर्षि की आज्ञा पाकर पान किया।

फलत: वे रघु जैसे महान् यशस्वी पुत्र से पुत्रवान् हुए और इसी वंश में गौ भक्ति के प्रताप से स्वयं भगवान् श्रीराम ने अवतार ग्रहण किया। 

महाराज दिलीप की गोभक्ति तथा गोसेवा सभी के लिये एक महानतम आदर्श बन गयी । 

इसी लिये आज भी गो भक्तो के परिगणनामे महाराज दिलीप का नाम बड़े ही श्रद्धाभाव एवं आदर से सर्वप्रथम लिया जाता है ।  

इस चरित्र से यह बात सिद्ध हो गयी की सप्तद्वीपवती पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट से अधिक श्रेष्ठ एक गौ माता है ।

जो काम धीरे बोलकर, मुस्कुराकर और प्रेम से बोलकर कराया जा सकता है।

उसे तेज आवाज में बोलकर और चिल्लाकर करवाना मूर्खों का काम है। 

और जो काम केवल गुस्सा दिखाकर हो सकता है।

उसके लिए वास्तव में गुस्सा करना यह महामूर्खों का काम हैं। 

अपनी बात मनवाने के लिए अपने अधिकार या बल का प्रयोग करना यह पूरी तरह पागलपन होता है। 

प्रेम ही ऐसा हथियार है।

जिससे सारी दुनिया को जीता जा सकता है। 

प्रेम की विजय ही सच्ची विजय है।

आज प्रत्येक घर में ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का जो वातावरण है।

उसका एक ही कारण है और वह है प्रेम का अभाव। 

आग को आग नहीं बुझाती पानी बुझाता है। 

प्रेम से दुनिया को तो क्या दुनिया बनाने वाले तक को जीता जा सकता है। 

पशु - पक्षी भी प्रेम की भाषा समझते है। 

तुम प्रेम बाँटों, इसकी खुशबू कभी ख़तम नहीं होती।

अगर घर में आपको कोई रोकता है, टोकता है।

समझाता है या आप पर ध्यान रखता है।

तो बुरा मत मानिए। 

आप नसीब वाले हैं।

कि आपकी फ़िक्र करने वाला शख्स आपको अपनी जिंदगी में मिला हुआ है।

अपने माता-पिता के मान - सम्मान और गौरव में कभी कमी मत आने दीजिए। 

उन्हें आप जितनी इज्ज़त देंगे।

दुनिया में आप उतने ही इज्जतदार बनेंगे।

 धूप में पिता और चूल्हे पर माँ जलती है।

तब कहीं जाकर सन्तान पलती है।

सर्वदेवमयी गौ माता की जय

         !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

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