https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: सितंबर 2020

।। " गौ रक्षा-हमारा परम कर्तव्य " ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। " गौ रक्षा-हमारा परम कर्तव्य " ।।


गौ रक्षा-हमारा परम कर्तव्य " हांजी हांजी कहना इसी गांव में रहना और एक छोटी सी मां .का सुंदर कहानी की पस्तुति दिए गए है।

हांजी हांजी कहना इसी गांव में रहना की कहानी पर भक्ति या भजन का प्रथम लक्षण है अपने आप में दीनता का भाव आ जाना ।

इसका एक कारण भी है । 

भक्ति क्या है ।




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भक्ति है श्रीकृष्ण चरणों की सेवा।

वैष्णवों की सेवा
तुलसी की सेवा
गुरुदेव की सेवा
ग्रंथ की सेवा
गौ माता की सेवा 

अर्थात  :-

सेवा सेवा सेवा और सेवा..!

जब भक्तों का मुख्य कार्य सेवा हो गया तो भक्तों का स्वरूप क्या निकल कर आया । 

एक सेवक का ने कहा भी है कि जीव श्रीकृष्ण का नित्य दास है ।

और जब हम एक सेवक ही होते हैं, हम एक नौकर ही होते हैं, हम एक दास ही होते हैं तो फिर अकड़ किस बात की करनी चहिए।

नौकर या दास या सेवक तो दीन ही होता है
हांजी हांजी कहना इसी गांव में रहना । 

सेवक में अभिमान कैसा, सेवक का गुमान कैसा, सेवक की श्रेष्ठता कैसी, वह तो सभी का सेवक ही है सभी की सेवा ही करनी है ।

यह भाव सदैव एक वैष्णव को पुष्ट करना चाहिए यदि यह भाव दृढ़ता से पुष्ट हो जाएगा तो आप सच मानिए भक्ति का जो प्रथम लक्षण वैष्णवोंमें आता है वह आता है दैन्य ।




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वह आ जाएगा ।

भक्ति का प्रथम लक्षण जो वातावरण में आता है वह आता है क्लेषघ्नी । 

समस्त क्लेशों को नष्ट कर देती है सच्ची भक्ति।

आज कल उल्टा हो रहा है भक्ति प्रारंभ हुई और घर में कलेश प्रारंभ हुए । 

यदि ऐसा है तो हम भक्ति या भजन नहीं कर रहे हैं ।

हम भक्ति के नाम पर नाटक, अहंकार पोषण एवं अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन कर रहे हैं ।

कर के देखिए अंतर महसूस होगा।

वक्त की कीमत तब तक नहीं समझा मैं स्वास्थ की कीमत भी नहीं समझा जब तक दोनों ही का नाश नहीं हुआ लोगो ने समझाया वक्त बदलता है।

वक्त ने समझाया ये लोग बदलते है।

समझा नहीं तब तक इस जीवन में जब तक मैने इन्हें बदलते न देखा वक्त मूझें या कभी उसे बदलता है।

वे लोग खोलते है आँखें मेरी जिन पे आँख बंद कर मैंने ही भरोसा किया।

शातिर वक्त ने उन्हें बनाया जेबकतरा वक्त गया ख़ुद मुझे से लड़ते झगड़ते अब मैं खुद से सुलह करना चाहता हूँ।

" गौ रक्षा-हमारा परम कर्तव्य की बात  " 

सभी साधु - संतोंसे मेरी प्रार्थना है कि अभी गायोंकी हत्या जिस निर्ममतासे हो रही है।

वैसी तो अंग्रेजों व मुसलमानों के साम्राज्य में भी नहीं होती थी ।

अब हम सभी को मिलकर इसे रोकने का पूर्णरुपसे प्रयास करना चाहिये।

इस कार्य को करनेका अभी अवसर है और इसका होना भी सम्भव है ।

गायके महत्वको आप लोगोंको बतायें, क्योंकि आप तो स्वयं दूसरों को बतानेमें समर्थ हैं ।

यदि प्रत्येक महन्तजी व मण्डलेश्वरजी चाहें तो हजारों आदमियोंको गोरक्षाके कार्यहेतु प्रेरित कर सकते हैं ।

आप सभी मिलकर सरकारके समक्ष प्रदर्शन कर शीघ्र ही गोवंशके वधको पूरे देशमें रोकनेका कानून बनवा सकते हैं। 

यदि साधु समाज इस पुनीत कार्यको हिन्दू - धर्मकी रक्षाहेतु शीघ्र कर लें तो यह विश्वमात्र के लिये बड़ा कल्याणकारी होगा ।

आप सभी एकमत होकर यह प्रस्ताव पारित कर प्रदर्शन व विचार करें कि हर भारतीय इस बार अन्य मुद्दोंको दरकिनार कर केवल उसी नेता या दलको अपना मत दे।

जो गोवंश-वध अविलम्ब रोकनेका लिखित वायदा करे तथा आश्वस्त करे कि सत्तामें आते ही वे स्वयं एवं उनका दल सबसे पहला कार्य समूचे देशमें गोवंश-वध बंद करानेका करेगा।

देशी नस्लकी विशेष उपकारी गायोंके वशंतकके नष्ट होनेकी स्थिति पैदा हो रही है।

ऐसी स्थितिमें यदि समय रहते चेत नहीं किया गया तो अपने और अपने देशवासियोंकी क्या दुर्दशा होगी ? 

इसका अन्दाजा मुश्किल है ।

आप इस बातपर विचार करें कि वर्तमानमें जो स्थिति गायोंकी अवहेलना करनेसे उत्पन्न हो रही है।

उसके कितने भयंकर दुष्परिणाम होंगे । 

अगर स्वतन्त्र भारतमें गायोंकी हत्या-जैसा जघन्य अपराध भी नहीं रोका जा सकता तो यह कितने आश्चर्य और दु:खका विषय होगा।

आप सभी भगवान्‌को याद करके इस सत्कार्यमें लग जावें कि हमें तो सर्व प्रथम गोहत्या बन्द करवानी है जिससे सभीका मंगल होगा। 

इससे बढ़कर धर्म-प्रचारका और क्या पुण्य-कार्य हो सकता है ।

पुन: सभीसे मेरी विनम्र प्रार्थना है कि आप सभी शीघ्र ही इस उचित समयमें गायोंकी हत्या रोकने का एक जनजागरण अभियान चलाते हुए सभी गोभक्तों व राष्ट्रभक्तोंको जोड़कर सरकारको बाध्य करके बता देवें कि अब तो गोहत्या बन्द करनेके अतिरिक्त सत्तामें आरुढ़ होने का कोई दूसरा उपाय नहीं है । 

साथ ही यह भी स्पष्ट कर दें कि जनता - जनार्दनने देशमें गोहत्या बंद कराने का दृढ़ संकल्प ले लिया है।

गायके दर्शन, स्पर्श, छाया, हुँकार व सेवासे तो कुटुंब कलेश घर में अच्छी सेवरकत मेहनत की कमाई में अच्छी वृद्धि बरकत सुख शांति समृद्धि शरीर निरोगी हुष्ट पुष्ट और कल्याण, सुखद - अनुभव, सद्भाव एवं अन्त:करणकी पवित्रता प्राप्त होती है । 




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गायके घी, दूध, दही, मक्खन व छाछ से शरीरकी पुष्टि होती है व निरोगता आती है ।

गोमूत्र व गोबर से पञ्चगव्य और विविध औषधियाँ बनाकर काममें लेनेसे अन्न, फल व साग - सब्जियोंको रासायनिक विषसे बचाया जा सकता है । 

गायोंके खुरसे उड़नेवाली रज भी पवित्र होती है; जिसे गोधूलि-वेला कहते हैं, उसमें विवाह आदि शुभकार्य उचित माना जाता है । 

जन्मसे लेकर अन्तकालतकके सभी धार्मिक संस्कारोंमें पवित्रताहेतु गोमूत्र व गोबरका बड़ा महत्व है ।

गाय की महिमा तो आप और हम जितनी बतायें उतनी ही थोड़ी है, आश्चर्य तो यह है सब कुछ जानते हुए भी गायोंकी रक्षामें हमारे द्वारा विलम्ब क्यों हो रहा है ?

गायकी रक्षा करनेसे भौतिक विकासके साथ - साथ आर्थिक, व्यावहारिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक एवं अनेकों प्रकारके विकास सम्भव हैं।

लेकिन गायकी हत्यासे विनाशके सिवाय कुछ भी नहीं दिखता है ।

अत: अब भी यदि हम जागें तो गोहत्याको सभी प्रकारसे रोककर मानवको होनेवाले विनाशसे बचा सकते हैं_

गो - सेवा, रक्षा, संवर्धन तथा गोचर भूमिकी रक्षा करनेसे पूरे संसारका विकास सम्भव है ।

आज गोवध करके गोमांस के निर्यातसे जो धन प्राप्त होता है उससे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है ।

इस लिये ऐसे गोहत्यासे प्राप्त पापमय धनके उपयोग से कथित विकास ही विनाशकारी हो रहा है । 

यह बहुत ही गम्भीर चिन्ताका विषय है ।

अन्तमें सभी साधु समाजसे मेरी विनम्र प्रार्थना है कि अब शीघ्र ही आप सभी और जनता मिलकर गोहत्या बन्द कराने का दृढ़ संकल्प लेनेकी कृपा करें तो हमारा व आपका तथा विश्वमात्रका कल्याण सुनिश्चित है । 

इसी में धर्मकी वास्तविक रक्षा है और धर्म - रक्षामें ही हम सबकी रक्षा है ।

{ ‘कल्याण’ वर्ष-७८, अंक ४, ऊपर से मै पुजारी प्रभु राज्यगुरु ने पूरा लेख लिये है }

आशा करता हूँ कि प्रभु राज्यगुरु की यह दर्द भरी प्रार्थना आपके हृदयको गौमाताकी वर्तमान - स्थिति दूषित वायु पदुष्ण कोरोना जैसा विविध विचित्र रोगों से व्यथित करके, आपके हृदयमें करुणा, दया और सेवा का भाव पैदा करके आपको गौ-सेवाके लिये प्रेरित करें । 





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परम श्रद्धेय पुजारी पंडित प्रभु राज्यगुरु  के विचार

प्रश्न—गोरक्षाके लिये क्या करना चाहिये?

उत्तर— गायों की रक्षाके लिये उनको अपने घरोंमें रखना चाहिये और उनका पालन करना चाहिये। 

गायके ही दूध - घीका सेवन करना चाहिये, भैंस आदिका नहीं।

गायों की रक्षाके उद्देश्यसे ही गोशालाएँ बनानी चाहिये, दूधके उद्देश्यसे नहीं।

जितनी गोचर - भूमियाँ हैं, उनकी रक्षा करनी चाहिये तथा सरकारसे और गोचर-भूमियाँ छुड़ाई जानी चाहिये। 

सरकारकी गोहत्या - नीतिका कड़ा विरोध करना चाहिये और वोट उनको ही देना चाहिये, जो पूरे देशमें पूर्णरूपसे गोहत्या बंद करनेका वचन दें।

खेती करनेवाले सज्जनोंको चाहिये कि वे गाय, बछड़ा, बैल आदिको बेचे नहीं।

गाय और माय बेचनेकी नहीं होती।

जबतक गाय दूध और बछड़ा देती है, बैल काम करता है, तबतक उनको रखते हैं। 

जब वे बूढ़े हो जाते हैं, तब उनको बेच देते हैं— यह कितनी कृतघ्नताकी।

 पाप की बात है! 

गाँधीजीने ‘नवजीवन’ अखबारमें लिखा था कि ‘बूढ़ा बैल जितना घास ( चारा ) खाता है उतना गोबर और गोमूत्र पैदा कर देता है अर्थात् अपना खर्चा आप ही चुका देता है।’

जो गायों और बैलोंको बेचते हैं, उनको यह हत्या लगती है! 

अतः अपनी पूरी शक्ति लगाकर हर हालतमें गायोंकी रक्षा करना, उनको कत्लखानोंमें जानेसे रोकना तथा उनका पालन करना, उनकी वृद्धि करना हमारा परम कर्तव्य है।

प्रश्न — लोगोंमें गोरक्षाकी भावना कम क्यों हो रही है?

उत्तर — गायके कलेजे, मांस, खून आदिसे बहुत - सी अँग्रेजी दवाइयाँ बनती हैं। 

उन दवाइयोंका सेवन करनेसे गायके मांस, खून आदिका अंश लोगोंके पेटमें चला गया है।

जिससे उनकी बुद्धि मलिन हो गयी है और उनकी गायके प्रति श्रद्धा, भावना नहीं रही है।

लोग पाप से ज्यादा पैसा कमाते हैं और उन्हीं पैसों का अन्न खाते हैं, फिर उनकी बुद्धि शुद्ध कैसे होगी और बुद्धि शुद्ध हुए बिना सच्ची, हितकर बात अच्छी कैसे लगेगी?

स्वार्थ बुद्धि अधिक होनेसे मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, बुद्धि तामसी हो जाती है, फिर उसको अच्छी बातें भी विपरीत दीखने लगती हैं। 

आज कल मनुष्योंमें स्वार्थ - भावना बहुत ज्यादा बढ़ गयी है, जिससे उनमें गोरक्षाकी भावना कम हो रही है।

जैसे भगवान्‌की सेवा करने से त्रिलोकीकी सेवा होती है, ऐसे ही निष्कामभावसे गायकी सेवा करनेसे विश्वमात्रकी सेवा होती है; क्योंकि गाय विश्वकी माता है।




गायकी सेवासे लौकिक और पारलौकिक — दोनों तरहके लाभ होते हैं। 

गायकी सेवासे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष — ये चारों पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं। 

रघुवंश भी गायकी सेवासे ही चला था।

अब थोड़ा इस पर विचार डाले कि हमारे हाथ की बात क्या है।

हमारे करने योग्य सर्वप्रथम कोई कार्य इस संबंध में यह होना चाहिए कि जन - जन को गाय के और भैंस के दूध का शरीर पर पड़ने वाला प्रभाव समझाया जाय।

गांधीजी ने खादी का महत्व समझाने के लिए प्रबल आन्दोलन किया था और मोटी और महंगी खादी के दूरगामी परिणामों की जानकारी कराते हुए गले उतारा था। 

साथ ही उत्पादन का कारगर तंत्र खड़ा किया था।

तब कहीं खादी ने जड़ पकड़ी थी। 

इस से सौ वर्ष पूर्व चाय के व्यापारियों ने उसका प्रचार करने के लिए घर-घर जाने और बनी हुई चाय एक पैसे में बेचने तथा एक पैकिट चाय मुफ्त देने का व्यापक क्रम चलाया था। 

उस प्रचार ने बढ़ते - बढ़ते आज चाय को जन जीवन का अंग बना दिया है।

जन साधारण को गाय के दूध घी की महत्ता समझाई जाय। 

किसान को कहा जाय कि वह बछड़ों के बिना कृषि और यातायात परिवहन की समस्या हल न कर सकेगा। 

इस लिए गौपालन उसके जीवन मरण का प्रश्न है। 

उसे श्रद्धा ही नहीं सावधानी पूर्वक अर्थ व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए नए सिरे से रुचिपूर्वक अपनाना चाहिए और तदनुरूप ही पशु पालने की नई नीति निर्धारित करनी चाहिए।

यह अर्थ प्रधान युग है। 





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इसमें जो उपयोगी है उसका विकास और संरक्षण किया जाता है और जो प्रत्यक्षतः उतना उपयोगी नहीं दीखता उसे रास्ते से हटा दिया जाता है। 

वृद्ध पशुओं का अन्तिम आश्रय मात्र कसाईखाना ही रह गया है। 

उन निठल्ले पर खर्च करने के लिए किसी का मन नहीं होता। 

यह अर्थ लाभ यदि मनुष्य ने अपनी बिरादरी पर भी प्रयुक्त करना शुरू कर दिया तो समझना चाहिए वृद्धों और वृद्धाओं की, अपंगों और निराश्रितों की भी खैर नहीं।

गौ - वध बन्द करने के लिए प्रयत्न तो किया जाना चाहिए, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उपयोगिता और अर्थ लाभ की दृष्टि से ही उन्हें सहज और चिरस्थाई सुरक्षा मिल सकती है।

हम सच्चे हृदय से परमात्मा से प्रार्थना करें तो वह प्रार्थना अवश्य सुनी जाएगी,,

सच्चे हृदय से प्रार्थना जो भक्त सच्चा गाए हैं।

भक्तवत्सल कान में वह पहुंच झट ही जाए हैं।

और साथ ही जितने अंश में परमात्मा ने हमें सबल बनाया है और हम विश्व में उपद्रव फेलानी वाली कोरोना जैसी भयंकर बीमारियों से मुक्त करने में हम सक्षम हैं।

उसका सदुपयोग कर गौ रक्षा और गोपालन करें।

एक छोटी सी मां।

एक छोटी सी मां की कहानी देखे तो मां का कोई रूप भी नहीं होगा वो मां जन्नी होगी छोटी या बड़ी बहन भी मां का स्थान निर्धारित कर शक्ति है।

एक दीन - हीन आठ - दस वर्ष की लड़की से दुकान वाला बोला कि...!

" छुटकी जा देख तेरा छोटा भाई रो रहा है तुमने दूध नहीं पलाया क्या ? "

" नहीं सेठ जी मैंने तो सुबह ही दूध पिला दिया था "

" अच्छा तू जा, जाकर देख में ग्राहक संभालता हूं। "

एक ग्राहक सेठ से - 

" अरे भाई ये कौन लड़की है जिसे तुमने इतनी छूट दे रखी है। "

" परसों सारे ग्लास तोड़ दिये , कल एक आदमी पर चाय गिरा दी और तुमने इसे कुछ नहीं कहा। "

सेठ - " भाई साहब ये वो लड़की है , जो शायद तुम्हें आज के कलयुग में देखने को ना मिले। "

ग्राहक - " मैं समझा नहीं "

सेठ " चलो तुम्हें शुरू से बताता हूं। 

एक दिन दुकान पर बहुत भीड़ थी और कोई नौकर भी नहीं था । 

ये लड़की,अपने छोटे भाई को गोद में लिए काम मांगने आई " और इसकी शर्त सुनेगा . इसने शर्त रखी।" 

मुझे काम के पैसे नहीं चाहिए, बस काम के बीच में मेरा भाई रोया तो मैं भाई को पहले देखूंगी। 

सुबह , दोपहर , शाम , रात चार टाइम दूध चाहिए।

रहने के लिए मैं इसी होटल के किचन पर रहूंगी।

खाने के लिए जो बचेगा, उसे खा लूंगी, मेरे भाई के रोने पर आप चिल्लाओगे नहीं।

अगर कुछ काम बच गया तो मेरे भाई के सोने के बाद मैं रात को होटल के सारे काम कर दूंगी, अगर मंजूर हो तो बताओ।

 ग्राहक -" फिर तुमने क्या कहा। 

 सेठ _ 

" मैं तो हंस पड़ा और कहा कि कुछ पैसों की खास डिमांड वगैरह तो इसने कहा - " 

बस इतना ही , कि मुझे काम मिले, मैं सड़को पर भीख नही माँगना चाहती और ना ही अपने भाई को भिखारी बनाना चाहती हूं। 

दिल लगाकर काम करूंगी।

उसे पढा़ऊँगी , बड़ा आदमी बनाऊंगी। 

" उतने में छुटकी आ गई। "

सेठ जी उसने चड्डी में सुसु कर दिया था इस लिए रो रहा था ।

अब सो गया है, अब नहीं रोयेगा । 

मैं अब काम पर लगती हूं . . .।

ग्राहक - 

" तुमने उसे फिर क्यों कुछ नहीं बोला? " 

सेठ मुस्कुराते हुए -

 " अरे जनाब , आप बस किताबों में ही पढ़ते हो क्या अच्छी चीजें . . ? 

जरा इस को देखा तो ,नन्ही सी जान, छोटी सी उमर , काम करना चाहती है।

हाथ फैलाना नहीं , कोई तो होना चाहिए ना , उसे अपने पैरों पर खड़े करने के लिए ।

शायद बंसीवाले ने  यह काम मुझे सौंपा है कि मैं उसे एक रास्ता दिखाऊं और फिक्र इस बात की है ना कि वो ग्लास ही तोड़ती है।

विश्वास नहीं तोड़ेगी और जरा ये भी तो सोच , बच्ची कहाँ जाती।

यहीं पड़ी है दोस्त, जब तक प्रभु की मर्जी है , मैं कौन होता हूं  उसकी कहानी में उसका लिखा बदलने वाला . . . ।

छुटकी फिर दौड़ते हुए उस ग्राहक की चाय गिराते हुए बोली -

 " सेठ भाई रो रहा है , आप आर्डर लो इस बार ग्राहक भी हंस पड़ा और कहने लगा। "

"जाइये सेठजी , महारानी ने आदेश दिया है लग जाइए  काम पर।"

दोनों मुस्कुराने लगे, वहीं छुटकी अपने छोटे भाई को संभालने में लग गयी...!!!

!!बहुत ही सुन्दर एवम् प्रेरणा दायक कहानी!!




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जय मुरलीधर
जय द्वारकाधीश
धन्यवाद।🙏🏻🙏🏻

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Web : https://sarswatijyotish.com/
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।।श्री ऋगवेद श्री विष्णु पुराण और श्रीमद्भागवत आधारित श्रीराधा माधव चिन्तन भाग में स्वयं भगवानका दिव्य जन्म के प्रवचन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।।श्री ऋगवेद श्री विष्णु पुराण और श्रीमद्भागवत आधारित श्रीराधा माधव चिन्तन भाग में स्वयं भगवानका दिव्य जन्म के प्रवचन ।।


श्री ऋगवेद श्री विष्णु पुराण और श्रीमद्भागवत आधारित श्रीराधा माधव चिन्तन भाग में स्वयं भगवानका दिव्य जन्म के प्रवचन

गुणावतार..!

श्रीविष्णु, श्रीब्रह्मा और श्रीरुद्र गुणावतार ( सत्त्व, रज और तमकी लीला के लिये ही प्रकट ) हैं। 

इनका आविर्भाव गर्भोदकशायी द्वितीय पुरुषावतार ‘प्रद्युम्र’ से होता है। 

द्वितीय पुरुषावतार लीला के लिये स्वयं ही इस विश्व की स्थिति, पालन तथा संहार के निमित्ता तीनों गुणों को धारण करते हैं।




परंतु उनके अधिष्ठाता होकर ‘विष्णु’, ‘ब्रह्मा’ और ‘रुद्र’  नाम ग्रहण करते हैं। 

वस्तुतः ये कभी गुणों के वश नहीं होते। 

नित्य स्वरूप स्थित होते हुए ही त्रिविधगुणमयी लीला करते हैं।

लीलावतार...!

भगवान जो अपनी मंगलमयी इच्छा से विविध दिव्य मंगल - विग्रहों द्वारा बिना किसी प्रयास के अनेक विविध विचित्रताओं से पूर्ण नित्य - नवीन रसमयी क्रीड़ा करते हैं, उस क्रीड़ा का नाम ही ‘लीला’ है। 

ऐसी लीला के लिये भगवान जो मंगल विग्रह प्रकट करते हैं, उन्हें ‘लीलावतार’ कहा जाता है। 

चतुस्सन ( सनकादि चारों मुनि ), नारद, वराह, मत्स्य, यज्ञ, नर-नारायण, कपिल, दत्तात्रेय, हयग्रीव, हंस, धु्रवप्रिय विष्णु, ऋषभदेव, पृथु, श्रीनृसिंह, कुर्म, धन्वन्तरि, मोहिनी, वामन, परशुराम, श्रीराम, व्यासदेव, श्रीबलराम, बुद्ध और कल्कि लीलावतार है। 

इन्हें ‘कल्पावतार’ भी कहते हैं। 


मन्वन्तरावतार...!

स्वायम्भुव आदि चौदह मन्वन्तरों में होने वाले मन्वन्तरावतार माने गये हैं। 

प्रत्येक मन्वन्तर के काल तक प्रत्येक अवतार का लीला कार्य होने से उन्हें ‘मनवन्तरावतार’ कहा गया है।

शक्ति-अभिव्यंक्ति के भेद से नामभेद...!

भगवान के सभी अवतार परिपूर्णतम हैं, किसी में स्वरूपतः तथा तत्त्वतः न्यूनाधिकता नहीं है; तथापि शक्ति की अभिव्यक्ति की न्यूनाधिकता को लेकर उनके चार प्रकार माने गये हैं- ‘आवेश’, ‘प्राभव’, ‘वैभव’  और ‘परावस्थ’।

उपर्युक्त अवतारों में चतुस्सन, नारद, पृथु और परशुराम  आवेशावतार हैं। 

कल्किको भी आवेशावतार कहा गया हैं।

प्रभाव’ अवतारों के दो भेद हैं, जिनमें एक प्रकार के अवतार तो थोड़े ही समय तक प्रकट रहते हैं- जैसे ‘मोहिनी - अवतार’ और ‘हंसावतार’ आदि, जो अपना - अपना लीला कार्य सम्पत्र करके तुरंत अन्तर्धान हो गये। 

दूसरे प्रकार के प्राभव अवतारों में शास्त्रनिर्माता मुनियों के सदृश चेष्टा होती है। 

जैसे महाभारत - पुराणादि के प्रणेता भगवान वेदव्यास, सांख्यशास्त्र प्रणेता भगवान कपिल एंव दत्तात्रेय, धन्वन्तरि और ऋषभदेव- ये सब प्राभव अवतार हैं इनमें अवेशावतारों से शक्ति - अभिव्यक्ति की अधिकता तथा प्राभवावतारों की अपेक्षा न्यूनता होती है। 

वैभवावतार ये हैं- कूर्म, मत्स्य, नर-नारायण, वराह, हयग्रीव, पृश्रिगर्भ, बलभद्र और चतुर्दश मन्वन्तरावतार। 

इनमें कुछ की गणना अन्य अवतार-प्रकारों में भी की जाती है।

 परावस्थावतार प्रधानतया तीन हैं- 


श्रीनृसिंह, श्रीराम और श्रीकृष्ण। 

ये षडैश्वर्यपरिपूर्ण हैं ।

नृसिंहरामकृष्णेषु षाड्गुण्यं परिपूरितम्।

परावस्थास्तुते ..........!

इनमें श्रीनृसिंहावतार का कार्य एक मात्र प्रहृाद - रक्षण एवं हिरण्यकशिपु-वध ही है तथा इनका प्राकट्य भी अल्पकालस्थायी है। 

अतएव मुख्यतया श्रीराम और श्रीकृष्ण ही परावस्थावतार हैं।

इनमें भगवान श्रीकृष्ण को...!

" एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान स्वयम ’। 
कहा गया हैं। 

अर्थात 

उपर्युक्त सनकादि - लीलावतार भगवान के अशं - कला - विभूति रूप हैं। 

श्रीकृष्ण  साक्षात स्वयं भगवान हैं।

भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु पुराण में...!

 ‘ सित - कृष्ण - केश ’ 

कह कर पुरुषावतार के केश रूप अंशावतार बताया गया है।

महाभारत में कई जगह इन्हें नर के साथी नारायण-ऋषि का अवतार कहा गया है।

कहीं वामनावतार और कहीं भगवान विष्णु का अवतार बताया गया है।

 वस्तुतः ये सभी वर्णन ठीक हैं!

विभित्र कल्पों में भगवान श्रीकृष्ण कें ऐसे अवतार भी होते हैंय परंतु इस सारस्वत कल्प में स्वयं भगवान अपने समस्त अंश कला वैभवों के साथ परिपूर्ण रूप से प्रकट हुए हैं। 

अतएव इनमें सभी का समावेश है। 

ब्रह्माजी ने स्वयं इस पूर्णता को अपने दिव्य नेत्रों से देखा था। 

सृष्टि में प्राकृत-अप्राकृत जो कुछ भी तत्त्व हैं, श्रीकृष्ण सभी के मूल तथा आत्मा हैं। 

वे समस्त जीवों के, समस्त देवताओं के, समस्त ईश्वरों के, समस्त अवतारों के एक मात्र कारण, आश्रय और स्वरूप हैं।

सित - कृष्ण केशावतार, नारायणावतार पुरुषावतार - सभी इनके अन्तर्गत हैं।

वे क्या नहीं हैं? 

वे सबके सब कुछ हैं। 

वे ही सब कुछ हैं। 

समस्त पुरुष, अंश-कला, विभूति, लीला - शक्ति आदि अवतार उन्हीं में अधिष्ठित हैं। 

इसी से स्वयं भगवान हैं -


‘ कृष्णस्तु भगवान स्वयम्। ’

लोचन मीन, लसैं पग कूरम, कोल धराधर की छवि छाजैं।
वे बलि मोहन साँवरे राम हैं दुर्जन राजन कौ हनि भ्राजैं।।

हैं बल में बल, ध्यान में बुद्ध, लखें कलकी बिपदा सब भाजैं।
मध्य नृसिंह हैं, कान्ह जू मैं सिगरे अवतारन के गुन राजैं।।

किन्हीं महानुभावों ने तीन तत्त्व माने हैं - ‘विष्णु’ ‘महाविष्णु’ और ‘महेश्वर’। 

भगवान श्रीकृष्ण में इन तीनों का समावेश है।

ब्रह्मवैवर्तपुराण  ( श्रीकृष्ण खण्ड ) में आया है कि पृथ्वी भाराक्रान्त हो कर ब्रह्माजी की शरण जाती है। 

ब्रह्माजी देवताओं को साथ लेकर महेश्वर श्रीकृष्ण के गोलोक धाम में पहुँचते हैं।

नारायण - ऋषि भी उनके साथ रहते हैं। 

ब्रह्मा तथा देवताओं की प्रार्थना पर भगवान श्रीकृष्ण अवतार ग्रहण करना स्वीकार करते हैं। 

तब अवतार का आयोजन होने लगता है। 

अकस्मात एक मणि - रत्रखचित अपूर्व सुन्दर रथ दिखायी पड़ता है। 

उस रथ पर शंख - चक्र - गदा - पद्मधारण किये हुए महाविष्णु विराजित हैं।

वे नारायण रथ से उतर कर महेश्वर श्रीकृष्ण के शरीर में विलीन हो जाते हैं- 

‘गत्वा नारायणो देवो विलीनः कृष्णविग्रहे।’

परंतु महाविष्णु के विलीन होने पर भी श्रीकृष्णावतार का स्वरूप पूर्णतया नहीं बना तब एक दूसरे स्वर्णरथ पर आरुढ़ पृथ्वी पति श्रीविष्णु वहाँ दिखायी दिये और वे भी श्रीराधिकेश्वर श्रीकृष्ण के शरीर में विलिन हो गये - 

‘स चापि लीनस्तत्रैव राधिकेश्वरविग्रहे।’

अब अवतार के लिये पार्थिक मानुषी तत्त्व की आवश्यकता हुई। 

नारायण - ऋषि वहाँ थे ही वे भी उन्हीं में विलीन हो गये। 

यों महाविष्णु विष्णु-नारायण रूप स्वयं महेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया तथा नारायण के सभी नर-ऋषि अर्जुन रूप से अवतार-लीला में सहायतार्थ अवतरित हुए।

श्रीमद्भागवत के अनुसार असुर रूप दुष्ट राजाओं के भार से आक्रान्त दुःखिनी पृथ्वी गोरूप धारण करके करुण क्रन्दन करती हुई ब्रह्माजी के पास जाती है ।

 और ब्रह्माजी भगवान शंकर तथा अन्याय देवताओं को साथ लेकर क्षीरसागर पर पहुँचते हैं और क्षीराब्धिशायी पुरुष रूप भगवान का स्तवन करते हैं।

ये क्षीरोदशायी पुरुष ही व्यष्टि पृथ्वी के राजा हैं, अतएव पृथ्वी अपना दुःख इन्हीं को सुनाया करती है।

ब्रह्मादि देवताओं के स्तवन करने पर ब्रह्माजी ध्यानमग्र हो जाते हैं और उन समाधिस्थ ब्रह्माजी का क्षीराब्धिशायी भगवान की आकाशवाणी सुनायी देती है।

 तदनन्तर वे देवताओं से कहते हैं -


गां पौरुषीं मे श्रृणुतामराः पुन-।
र्विधीयतामाशु तथैव मा चिरम्।।

पुरैव पुंसावधृतो धराज्वरो भवद्धिरंशैर्यदुषूपजन्यताम्।
स यावदुव्र्या भरमीश्वरेश्वरः स्वकालशक्त्या क्षपयंश्चरेद् भुवि।।

वसुदेवगृह साक्षाद् भगवान पुरुषः परः।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं सम्भवन्तु सुरस्त्रियः।।

‘देवताओं! मैंने भगवान की आकाशवाणी सुनी है। 

उसे तुम लोग मेरे द्वारा सुनो और फिर बिना विलम्ब इसी के अनुसार करो। 

हम लोगों की प्रार्थना के पूर्व ही भगवान पृथ्वी के संताप को जान चुके हैं। 

वे ईश्वरों के भी ईश्वर अपनी कालशक्ति के द्वारा धरा का भार हरण करने के लिये जब तक पृथ्वी पर लीला करें, तब तक तुम लोग भी यदुकुल में जन्म लेकर उनकी लीला में योग दो। 

वे परम पुरुष भगवान स्वयं वसुदेवजी के घर में प्रकट होंगे।

उनकी तथा उनकी प्रियतमा ( श्रीराधाजी ) की सेवा के लिये देवांगनाएँ भी वहाँ जन्म धारण करें।’

क्षीरोशायी भगवान के इस कथन का भी यही अभिप्राय है कि ‘साक्षात परम पुरुष स्वयं भगवान प्रकट होंगे, वे क्षीराब्धिशायी नहीं।

अतएव स्वयं पुरुषोत्तम भगवान ही, जिनके अंशावतार नारायण हैं, वसुदेवजी के घर प्रकट हुए थे। 

देवकीजी की स्तुति से भी यही सिद्ध है

यस्यांशांशांशभागेन विश्वोत्पत्तिलयोदयाः।
भवन्ति किल विश्वात्मंस्तं त्वाद्याहं गति गता ।।

‘हे आद्य! जिस आपके अंश ( पुरुषावतार ) का अंश ( प्रकृति ) है, उसके भी अंश ( सत्त्वादि गुण ) के भाग ( लेशमात्र ) से इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हुआ करते हैं, विश्वात्मन् !

आज मैं उन्हीं आपके शरण हो रही हूँ।’

अब रही 

‘सित-कृष्ण-केश’

की बात, सो यों कहा गया है कि इसका प्रयोग भगवान के श्वेत या श्यामवर्ण की शोभा के लिये किया गया है। 

श्रीबलरामजी  का वर्ण उज्ज्वल है और श्रीकृष्ण का नीलश्याम।

शेष ( दिव्य सत्संग ) अगले भाग में.

जय जय श्री राधे गोविन्द जय जय श्री राधे कृष्णा 

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित प्रवचन ।।



श्री ऋगवेद श्री यजुर्वेद और श्री रामचरित्रमानस आधारित विस्तृत प्रवचन 

ग्रन्थ - मानस चिन्तन-१   ( भाग-३ )

संदर्भ - प्रार्थना!! प्रार्थना के लक्षण।

सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।

अस्तुति करत जोरि कर सावधान मति धीर।।



"नयन बह नीर" का तात्पर्य है - ब्रह्मा की आँखों से अश्रुपात हो रहा है। 

अश्रुपात कई प्रकार की भावनाओं को अपने-आप में समेटे हुये है। दु:ख और सुख की समान अभिव्यक्ति का यदि कोई संकेत है तो वह है आँसू।

 असमर्थता और व्याकुलता के क्षणों में आँसू बह निकलते ही हैं, पर आनन्दातिरेक के क्षणों में भी आँसू छलक उठते हैं‌

हृदय की भावनाओं को व्यक्त करने के लिये वाणी और नेत्र दो केन्द्र हैं। 

परन्तु वाणी के द्वारा अपनी हृदयगत भावनाओं को प्रगट करने के लिये भाषा का आश्रय लेना पड़ता है। 

भाषा देश-काल की सीमाओं में बँधी हुई है, सम्भव है हमारी भाषा को दूसरे न समझ सकें, किन्तु भावनाओं की अभिव्यक्ति का दूसरा केन्द्र नेत्र इतना सशक्त है कि वह देश-काल की सीमाओं में बँधा हुआ नहीं है।

ईश्वर तक अपनी बात किस माध्यम से पहुँचाना उचित होगा ?

 यदि वाणी के द्वारा भाषा का प्रयोग करें तो वह कौन-सी भाषा है, जो ईश्वर तक अपनी बात पहुँचाने के लिये उपयुक्त होगी ?

 प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही भाषा का प्रयोग इसके लिये करे, यह स्वाभाविक है।

पर ईश्वरीय भाषा तो नेत्र के माध्यम से ही पूरी तरह प्रतिफलित होती है। 

यदि आँखों में असमर्थता और प्रीति से भरे अश्रु बोल न पड़े तो ईश्वर हमारी बात अस्वीकार कर सके, यह सम्भव नहीं है। 

आँखों के आँसू इसी असमर्थता और प्रीति के परिचायक हैं।

ब्रह्मा सृष्टि के निर्माता हैं, उनके सामर्थ्य की सीमाएँ बहुत विशाल हैं‌, पर रावण के रूप में जिस महान् संकट का उदय हुआ है, वहाँ वे इस असमर्थता का अनुभव करते हैं। 

उनके आँसुओं में असमर्थता झलक रही है, पर उसमें प्रीति और प्रसन्नता भी मिश्रित हैं।

 उन्हें आनन्द और गौरव की अनुभूति होती है कि इन निर्णायक क्षणों में सृष्टि की बात ईश्वर तक पहुँचाने का सौभाग्य उन्हें मिला है। 

फिर भगवान शिव ने यह कह कर एक नवरस की सृष्टि कर दी थी कि ईश्वर सर्वव्यापक है। 

मानों यहीं खड़ा हुआ वह सारी बातें सुन रहा हो, पर सामने नहीं आता। 

जैसे आँखमिचौली का खेल खेल रहा हो। ब्रह्मा की आँखें आँसू बहाती हुई मानो उसी को चारों ओर ढ़ूढ़ रही है।

ब्रह्मा के दोनों हाथ जुड़े हुये हैं।

 यह प्रार्थना द्वारा कर्म के समर्पण का प्रतीक है‌। 

हाथ कर्मशक्ति के प्रतीक हैं। 

हाथ जोड़कर पितामह इसी समग्रता को प्रगट करते हैं।

दोहे में ब्रह्मा के लिये "सावधान" का भी विशेषण दिया गया है।

 किसी श्रेष्ठ पुरुष के सामने होने पर व्यक्ति सावधान हो जाता है।


 महापुरुष की अनुपस्थिति में सजगता भी समाप्त हो जाती है।

 वैसे तो भौतिक दृष्टि से ब्रह्मा के सामने प्रभु नहीं हैं, पर ब्रह्मा की यह सावधानी सच्ची आस्तिक वृत्ति का परिणाम है।

भगवान शिव ने ईश्वर की सर्वव्यापकता का पक्ष प्रस्तुत किया था। 

जिसे ईश्वर की अनुभूति सर्वत्र हो रही है, उसका जीवन में प्रतिक्षण सावधान रहना भी स्वाभाविक ही है। 

जिसका स्वामी सामने खड़ा हो, भले ही वह दृष्टिगोचर न हो, उसके जीवन में प्रमाद का अवसर कहाँ ?

आगे - शेष भाग‌
दोहे का अंतिम शब्द है "मतिधीर"। 
मतिधीर का तात्पर्य है - 
जिसकी बुद्धि स्थिर हो।

।। श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि ।।



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*तांबे का सिक्का*


एक राजा का जन्मदिन था। 

सुबह जब वह घूमने निकला, तो उसने तय किया कि वह रास्ते मे मिलने वाले पहले व्यक्ति को पूरी तरह खुश व संतुष्ट करेगा।



उसे एक भिखारी मिला। 

भिखारी ने राजा से भीख मांगी, तो राजा ने भिखारी की तरफ एक तांबे का सिक्का उछाल दिया।
.
सिक्का भिखारी के हाथ से छूट कर नाली में जा गिरा। 

भिखारी नाली में हाथ डाल तांबे का सिक्का ढूंढ़ने लगा।
.
राजा ने उसे बुला कर दूसरा तांबे का सिक्का दिया। 

भिखारी ने खुश होकर वह सिक्का अपनी जेब में रख लिया और वापस जाकर नाली में गिरा सिक्का ढूंढ़ने लगा।
.
राजा को लगा की भिखारी बहुत गरीब है, उसने भिखारी को चांदी का एक सिक्का दिया।
.
भिखारी राजा की जय जयकार करता फिर नाली में सिक्का ढूंढ़ने लगा।
.
राजा ने अब भिखारी को एक सोने का सिक्का दिया।
.
भिखारी खुशी से झूम उठा और वापस भाग कर अपना हाथ नाली की तरफ बढ़ाने लगा।
.
राजा को बहुत खराब लगा। 

उसे खुद से तय की गयी बात याद आ गयी कि पहले मिलने वाले व्यक्ति को आज खुश एवं संतुष्ट करना है।
.
उसने भिखारी को बुलाया और कहा कि मैं तुम्हें अपना आधा राज - पाट देता हूं, अब तो खुश व संतुष्ट हो ?
.
भिखारी बोला : 


मैं खुश और संतुष्ट तभी हो सकूंगा, जब नाली में गिरा तांबे का सिक्का मुझे मिल जायेगा।
.
हमारा हाल भी उस भिखारी जैसा ही है। 

हमें भगवान ने हमे मानव योनि के रूप में सामाजिक / धार्मिक एवं आध्यात्मिकता रूपी अनमोल खजाना दिया है ।

और हम उसे भूलकर संसार रूपी नाली में तांबे के सिक्के निकालने के लिए जीवन गंवाते जा रहे है।



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|| जय श्रीमन्नारायण ||

सत्कर्म कर उसे भूल जाना चाहिए अन्यथा व्यक्ति अभिमान से बच नहीं सकेगा। 

अपने दाहिने हाथ से तुम जो कुछ देते हो उसका बाएं हाथ को भी पता नहीं होना चाहिए। 

' नेकी कर दरिया में डाल।’ 

सफल एवं सार्थक जीवन के लिए कर्म जरूरी है, लेकिन उसके साथ विवेक भी जरूरी है। 

कर्म मनुष्य के स्वभाव में निहित है। 

गीता में कहा गया है कि हम कर्म करें, वह हमारा अधिकार है, किंतु फल की इच्छा न करें। 

हमारा शरीर दरवाजा है। 

उस खुले दरवाजे से सभी तरह के कर्मों को करने की प्रेरणा मिलती है। 

एक मनीषी ने लिखा है कि यह शरीर नौका है।

यह डूबने भी लगता है और तैरने भी लगता है, क्योंकि हमारे कर्म सभी तरह के होने से यह स्थिति बनती है। 

इसी लिए बार - बार अच्छे कर्म करने की प्रेरणा दी जाती है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। 

हमें यह समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार एक डाल पर बैठा व्यक्ति उसी डाल को काटता है तो उसका नीचे गिर जाना अवश्यंभावी है, ठीक उसी प्रकार गलत काम करने वाला व्यक्ति अंततोगत्वा गलत फल पाता है।

उदाहरण के लिए हम किसी पर क्रोध करते हैं तो उसका प्रत्यक्ष फल हमारी आंखों के सामने आ जाता है। 

हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी बुद्धि, सब कुछ उत्तेजित हो उठता है जिससे हमारी शक्ति का अपव्यय होता है।

साथ ही हम उस व्यक्ति को भी क्षुब्ध करते हैं जो हमारे क्रोध का भाजन होता है। 

हम कोई बुरा शब्द मुंह से निकालते हैं तो हमारी जबान गंदी हो जाती है। 

हम चोरी करते हैं तो हमारे भीतर बड़ी अशांति और बेचैनी होती है। 

इस के विपरीत जब हमारे हाथों से कोई अच्छा काम होता है तो तत्काल हमें बड़े ही आत्मिक संतोष और प्रसन्नता की अनुभूति होती है।

मनुष्य के हाथ में कर्तव्य करना है, लेकिन उसका फल नहीं है। 

वह अनेक कारणों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। 

सच्चाई यह भी है कि कर्म कराने वाला और कोई है। हम तो निमित्त मात्र हैं। 

हममें से अधिकांश व्यक्ति इस सत्य को भूल जाते हैं। 

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि हम फल की आशा रखते हैं तो अनुकूल फल होने से हमें हर्ष होता है और प्रतिकूल फल होने से विषाद होता है। 

इससे राग और द्वेष पैदा होते हैं।

इसी लिए कहा गया है कि कर्म करो, किंतु तटस्थ भाव से करो। 

हममें से अधिकतर लोग सत्कर्म करके उसका हिसाब रखते हैं। 

यह उचित नहीं है। 

इससे पुण्य क्षीण हो जाता है। 

हाथ से तुम जो कुछ देते हो उसका बाएं हाथ को भी पता नहीं होना चाहिए। हमारे यहां भी कहावत है।

‘नेकी कर दरिया में डाल।’

इस का तात्पर्य यह है कि सत्कर्म करके भी उसे भूल जाना चाहिए। अन्यथा व्यक्ति अभिमान से बच नहीं सकेगा।

        || जय श्री श्याम श्रीं कृष्ण ||

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