सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
रक्षा-बन्धन का शास्त्रोक्त तात्पर्य या दर्शनः-
येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वाम् अनुबध्नामि, रक्ष मा चल मा चल।।
भारतीय अध्यात्म एवं दर्शन में श्री अर्थात् श्रेय की देवी है लक्ष्मी। देवी का अर्थ है प्रकाशित करने वाली ज्योति अर्थात् वह ज्ञानरश्मि जो हमें इस तथ्य का बोध प्रदान करे कि क्या करने, जानने, मानने, चिन्तन-मनन आदि करने से तथा किस दृष्टिकोण से वस्तु, व्यक्ति, देश काल, द्रव्य, कर्म, भोग, पद, सम्बन्ध, उपाधि आदि प्रपंच की प्रतीतियों को देखने से श्रेय की प्राप्ति होती है, प्रेय के बन्धन से मुक्ति मिलती है, उस श्रेयस्कर ज्ञान की उद्भासिका देवी का नाम है श्री या लक्ष्मी।
उक्त श्री की देवी के पति, सिरमौर, आधार एवं रक्षक हैं भगवान विष्णु अर्थात् वह सत्ता जो कि सर्वव्याप्त है, कण-कण, क्षण-क्षण, चराचर, व्यक्ताव्यक्त, दृश्यादृश्य में सर्वत्र समाई हुई है, व्याप्त है, ओतप्रोत है, ठीक वैसे ही जैसे कि कपड़े में सूत अथवा धागा ओतप्रोत रहता है।
भारतीय दर्शन एवं प्रतीकशास्त्र बताता है कि वे विष्णु भगवान शेष नाग पर विराजमान हैं। अब प्रश्न है कि यह शेष कौन है? और नाग कौन है? वेदान्त बताता है कि जिज्ञासु जब अपनी नित्यानित्य विवेक दृष्टि से प्रपंच की प्रत्येक प्रतीति के सत्यत्व का निषेध कर देता है, उसके मिथ्यात्व को जान लेता है, तो उन सबके निषेध के उपरान्त केवल स्वयं निषेधकर्ता ही अन्तिम सत्य के रूप में शेष रह जाता है, क्यों? क्योंकि इस निषेधकर्ता का निषेध वैसे ही संभव नहीं है, जैसे कि कोई कहे कि मेरे मुँह में जीभ नहीं है। इस प्रकार समस्त प्रपंच के अशेष निषेध के उपरान्त जो निषेधकर्ता स्वयमेव शेष रहता है, वही सर्वव्याप्त आत्मसत्ता या विष्णु है, और उस निर्विकार शेष सत्ता में कोई आग नहीं है अर्थात् राद-द्वेषादि पंचक्लेशों की आग उसमें नहीं है, और इसलिए, वह नाग (न+आग) है। इस प्रकार, इस केवल शेषनाग-स्वरूप, अपरोक्ष-बोधाधार पर प्रतिष्ठित, विराजमान एवं अभिव्यक्त व्यावहारिक साकार विवर्त का नाम है विष्णु भगवान।
रूपक का अगला पात्र है महाबली दानवेन्द्र राजा बली। राजा बली दानवों के त्रिलोकजयी सम्राट थे अपनी दानशीलता के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध थे और उसी दानशीलता के कारण महाबली भी थे। दानशीलता में सर्वोत्कृष्ट गुण सतोगुण की चरम अभिव्यक्ति होती है। तमोगुणी अहंकार बहुत बलवान होता है किन्तु सतोगुण का अहंकार, दानशीलता का अहंकार, अच्छे कार्यों का अहंकार तो महाबली होने के साथ-साथ छद्म-श्रेष्ठता, छद्म-श्रेय या छद्म-श्री के भाव से भी पुष्ट होता है। तमोगुण एवं रजोगुण को हेय जानने के कारण, इन्हें दुर्गण समझने के कारण, इनका त्याग तो सभी करना चाहते हैं, किन्तु सतोगुण में श्रेष्ठता या श्रेय का भाव होने से, इसका त्याग दुष्कर है और फलस्वरूप सतोगुणी कर्मों के अहंकार से जिज्ञासु के स्वरूपज्ञान का, अपरोक्ष-बोध का, विष्णुत्व का, आत्मा के सर्वव्यापकत्व का हरण हो जाता है, आत्मज्ञान पर अहंकार का आवरण आजाता है, बन्धनग्रस्त हो जाता है। इसी का नाम दानवराज बली द्वारा विष्णु भगवान को पाताल में अपने द्वार पर नियुक्त कर देना है अर्थात् आत्मज्ञान का दिखावा करना है, जिसका परिणाम उस अपरोक्ष बोध का, स्वरूपज्ञान का, आत्मा के विष्णुत्व का असुरक्षित हो जाना है।
ऐसी स्थिति में श्रेय की देवी लक्ष्मी अर्थात् श्रेयदात्री आत्मनिष्ठ बुद्धि सतोगुण के अहंकार से दर्पित तथा जीवभाव से भावित राजा बली को अपने सर्वोत्कृष्ठ, सिरमौर, पतिस्वरूप आत्मज्ञान या अपरोक्षबोध को अक्षुण्य रखने की, उसे सुरक्षित रखने की, अहंकारमुक्त रखने की, श्री या श्रेयभाव के भक्षक से रक्षक होने की अभ्यर्थना करती है, सतोगुण के अहंकार के फैलाव या प्रसार का ऋतम्भरा प्रज्ञा से शमन करती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के द्वारा अहंकार को नित्यानित्य विवेक, वैराग्य, षट-सम्पत्ति एवं तीव्र मुमुक्षा रूपी रक्षासूत्रों द्वारा आवेष्ठित करती है, ब्रह्मसूत्र बांधती है और इसी सूत्रबन्धन का नाम आत्मभाव की अहंकार से रक्षा-बन्धन करना है। रक्षा-बन्धन का यही शास्त्रिय दर्शन है। अस्तु।
हर हर महादेव
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏
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