https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: ।। श्री कृष्ण के परम भक्त नरसिह महेता ।।

।। श्री कृष्ण के परम भक्त नरसिह महेता ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री कृष्ण के परम भक्त नरसिह महेता ।।


|| अर्जुन बनो, श्रीकृष्ण मिलेंगे ||

जिस किसी में सत्य के प्रति अर्जुन जैसी प्रगाढ़ निष्ठा होगी, उसे श्रीकृष्ण मिल ही जाएँगे। 

तुम्हारे भीतर वो प्रश्न उठें तो सही, जो अर्जुन में उठते थे। 

केन्द्रीय बात है मुक्ति और बोध की, वो अगर है, तो फिर कुछ - न - कुछ हो ही जाएगा। 

जिसे चाहिए, उसे मिल ही जाता है, चाह मूल है। 

हर मार्ग पर तुम्हें अपनी मुमुक्षा का,अपनी आतुरता का परिचय देना ही पड़ता है।

उसके अलावा कोई रास्ता नहीं है।

योगीजन द्वारा बताया गया मुक्ति मार्ग साधारण लोगों के लिए बहुत दुष्कर और दुस्साध्य होता है। 

लेकिन ये भी सत्य है कि इसी कठिन मार्ग से गुज़रने पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दृष्टि प्रदान की थी; हालाँकि यह बहुत संकरा मार्ग है। 







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क्या साधारण जन के लिए मोक्ष या मुक्ति का कोई सुलभ मार्ग हो सकता है,जो योगियों द्वारा बताये गए कठिन मार्ग से अलग हो?

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दृष्टि यूँ ही नहीं प्रदान कर दी थी, अर्जुन ने कई तरीकों से अपनी पात्रता का परिचय दिया था। 

ऐसा नहीं है कि योगियों का मार्ग संकीर्ण या संकरा होता है, और कोई दूसरा मार्ग होता है जो सुलभ या सरल हो। 

हर मार्ग पर तुमको अपनी मुमुक्षा का, अपनी आतुरता का परिचय देना ही पड़ता है, उसके अलावा कोई रास्ता नहीं है।

सुन रहे हो न, श्रीकृष्ण क्या कह रहे थे अर्जुन से? 

अर्जुन होना आसान बात नहीं है। 

अर्जुन होने का अर्थ होता है ये उपदेश ग्रहण करना कि मोह पर बाण चला दो; प्रकृति के, रक्त के,अतीत के जो नाते हैं, उनकी बहुत परवाह मत करो। 

अर्जुन तो पीछे हटने को तैयार हो रहा था, कह रहा था कि घरेलू बातचीत है, छोड़िए, इसमें रक्तपात ठीक नहीं है। 

और श्रीकृष्ण उससे कह रहे हैं कि जो तुम सोच रहे हो वो बात छोटी है, असली बात ज़्यादा बड़ी है; असली बात मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम युद्ध करो।

अर्जुन होना आसान है? 

और पचासों तरह की शंकाएँ हैं अर्जुन के मन में! एक शंका ये तक उठी उसे बीच में कि श्रीकृष्ण कहीं उसे भ्रमित तो नहीं कर रहे।

हम तो दुनिया देखकर चलते हैं। 

तुम्हें क्या लगता है, श्रीकृष्ण सामने खड़े हैं, बोल रहे हैं, अर्जुन को क्या ये शंका नहीं उठी होगी कि और तो कोई इनकी बात नहीं सुन रहा, न ही किसी और को पकड़कर ये उपदेश दे रहे हैं? 

बाकी सब लोग तो अपने - अपने मन पर चल रहे हैं, कोई किसी श्रीकृष्ण से, किसी सारथी से, किसी गुरु से दिशा माँगने नहीं जा रहा, मैं ही क्यों सुन रहा हूँ इनकी?

बहुत आसान होता, अर्जुन कह सकता था, ये तो हम भाइयों के बीच का आपसी मामला है, आप तो रिश्तेदार हैं भी तो बहुत दूर के, हम सुलझा लेंगे। 

और आप अगर कोई सलाह देना चाहते हों तो समझौते की दें; हममें प्रेम बढ़े, भाईचारा बढ़े, इसकी सलाह दें; लड़ाई - झगड़े की बात न करें कृपया।’ 

पर अर्जुन ने एक साफ़ निर्णय किया हुआ है कि मोह पर और शरीर के अतीत के सम्बन्धों पर बोध भारी रहेगा।

श्रीकृष्ण जब बात कर रहे हैं अर्जुन से तो उसके लिए श्रीकृष्ण ही सर्वोपरि हैं....! 

वो ये नहीं कह रहा कि जाऊँ ज़रा अपने बड़े भैया से तो पूछ आऊँ, वो भी धर्मराज कहलाते हैं। 

लोभ और शंका उठ सकते थे न अर्जुन के मन में कि हे श्रीकृष्ण! अगर आप धर्म की बात कर रहे हो तो थोड़ा - बहुत धर्म तो मेरे ज्येष्ठ भ्राता भी जानते हैं...! 

मैं आपकी बातों का ज़रा सत्यापन, तो करा लूँ उनसे, क्योंकि आप बहुत - बहुत खतरनाक कह रहे हो।

आप कह रहे हो कि पितामह को मार दो, आप कह रहे हो कि अपने गुरु को मार दो...! 

आप कह रहे हो कि अपने भ्राताओं को मार दो, तो मैं ज़रा थोड़ी - बहुत रायशुमारी कर लूँ; इधर मेरे और भी लोग खड़े हैं, उनकी सहमति भी ले लूँ। 

अर्जुन किसी की नहीं सुन रहा। 

आसान नहीं है अर्जुन हो जाना।

जिस किसी में अर्जुन जैसी प्रगाढ़ निष्ठा होगी सत्य के प्रति, उसे श्रीकृष्ण मिल ही जाएँगे दिव्य नेत्र प्रदान करने के लिए।

श्रीकृष्ण का कोई एक रूप तो होता नहीं न? 

जैसे तुम्हारा रूप अर्जुन जैसा नहीं है, इसी तरीके से तुम्हें जो श्रीकृष्ण मिलेंगे, उनका भी रूप वैसा नहीं होगा जैसा उस अर्जुन ने देखा था। 

तुम यदि बिल्कुल अर्जुन जैसे ही होते, तो तुम्हारे सामने जो श्रीकृष्ण खड़े होते, वो भी ऐतिहासिक श्रीकृष्ण जैसे ही होते। 

पर जब तुम्हारा रूप दूसरा है, तो श्रीकृष्ण का भी रूप दूसरा होगा।

तुममें अर्जुन जैसी लौ लगे तो सही, तुम्हारे भीतर वो प्रश्न उठे तो सही जो अर्जुन में उठते थे। 

यही रास्ता होता है, बाकी सारी बातें सांयोगिक होती हैं। 

कौन योग का पथ ले लेता है, कौन भक्ति का ले लेता है, कौन ज्ञान का ले लेता है; 

पथ इत्यादि ये सब सांयोगिक बातें हैं, वो सब घटनाएँ घट जाती हैं जैसे घटनी होती हैं। 

मूल बात दूसरी है, केन्द्रीय बात है मुक्ति की, बोध की तुम्हारी अभीप्सा, वो अगर है तो फिर कुछ - न - कुछ हो जाएगा। 

कैसे होगा, ये कोई निश्चित नहीं होता, पहले से बताया नहीं जा सकता; किसी - न - किसी तरीके से कुछ हो ही जाता है। 

जिसे चाहिए वो खोज ही लेता है, या कह सकते हो कि जिसे चाहिए उसे मिल ही जाता है। 

चाह मूल है।

और चाहने का क्या मतलब होता है? 

चाहने का मतलब ये नहीं होता कि मेरे पास जो कुछ है, उसमें मैं एक चीज़ और जोड़ लूँ जो मैंने चाही है। 

हम आमतौर पर जब चाहते हैं, तो हमारी चाहत ऐसी ही होती है कि कुछ है मेरे पास, और उसमें कुछ और जोड़ लूँ। 

मैं भी बना रहूँ, जो कुछ मेरे पास है वो भी बना रहे, और मेरे खजाने में कुछ जुड़ ही जाए।

वास्तविक चाहत, आध्यात्मिक चाहत कहती है कि जो मुझे चाहिए, उसके लिए मेरे पास पहले से ही जो कुछ है, मैं वो सब लुटाने को तैयार हूँ। 

और वो इतना कहकर भी रुक नहीं जाती। 

पहली बात तो ये कि जो मुझे चाहिए, वो मुझे इतना प्यारा है कि उसके लिए मेरे पास जो कुछ है, मैं वो सबकुछ छोड़ देने को तैयार हूँ; 

बस बदले में वो बहुमूल्य चीज़ मिलनी चाहिए। 

और इतने पर भी अगर वो चीज़ न मिल रही हो तो मैं उस चीज़ को पाने के लिए अपनेआप को भी छोड़ देने को तैयार हूँ। 

समझना बात को।

जो कुछ तुम्हें चाहिए अगर तुम्हें नहीं मिल रहा...! 

तो इसी लिए नहीं मिल रहा होगा न क्योंकि तुममें कोई खोट होगी? 

तुम्हें जो चाहिए अगर तुम्हें नहीं मिल रहा, इसका मतलब तुम कुपात्र हो, तुममें ही कोई खोट है, इसी लिए मिल नहीं रहा। 

तो वास्तविक चाहत का मतलब होता है कि जो मुझे चाहिए, वो इतना प्यारा है मुझे कि अगर उसको पाने की राह में मैं ही बाधा हूँ तो मैं ही ख़ुद को छोड़ दूँगा। 

जो मुझे चाहिए, वो मुझे क्यों नहीं मिल रहा? 

क्योंकि मैं कुपात्र हूँ। 

मैं कुपात्र हूँ तो फिर किसको जाना होगा, किसको खत्म होना होगा ? 

मुझे खत्म होना होगा। 

जो चाहिए वो तो चाहिए ही, मैं अगर उसके लायक नहीं हूँ तो मुझे खत्म होना होगा।

व्यक्ति फिर ये नहीं कहता कि मैं वही तो चाहूँगा न जितना पाने की या माँगने की मेरी योग्यता, पात्रता होगी। 

व्यक्ति कहता है, ‘जो चाहिए, वो तो अब निश्चित है,वो आवश्यक है, उस पर कोई सन्धि - समझौता नहीं हो सकता। 

हाँ, अगर मेरा पात्र छोटा है, मेरा दामन छोटा है, मैं ही ऐसा नहीं हूँ जिसे मिल सके, तो मैं मिटने को तैयार हूँ। 

अगर अपनी राह में मैं स्वयं ही बाधा हूँ तो मैं इस बाधा को हटाने को तैयार हूँ, पर पाना तो है।

देखो, हमारे भीतर दोनों तत्व मौजूद हैं। 

हमारे भीतर जो कुछ भी स्थूल है, वो समायोजित होना जानता है, वो एडजस्टमेन्ट में प्रवीण होता है। 

और हमारे भीतर जो कुछ सूक्ष्म है और जितना ज़्यादा सूक्ष्म है, वो उतना ज़्यादा विद्रोही होता है, वो समायोजन नहीं कर सकता। 

क्योंकि अधूरा अधूरे को समायोजित कर सकता है, जो पूरा है वो बेचारा समायोजित कैसे करेगा?

( गिलास की ओर इशारा करते हुए) इसमें आधा पानी भरा हो तो इसमें आप आधा तेल मिला सकते हैं। 

अधूरे ने अधूरे को समायोजित कर लिया, दोनों ने समझौता कर लिया।

मैं तो आधा था ही, आधे में तू आजा।’ )

पर जो पूरा है, वो एक बूँद भी किसी प्रकार का अतिक्रमण बर्दाश्त नहीं करता। 

ये पात्र पूरा भरा हुआ हो तो ये एक बूँद भी कुछ ऐसा स्वीकार नहीं करेगा जो अतिरिक्त हो; अतिरिक्त माने अनावश्यक। 

ये विद्रोह कर देगा, और इसका विद्रोह अभिव्यक्त होगा पात्र के छलक जाने में।

        || नर नारायण की जय हो ||

श्री कृष्ण के परम भक्त नरसिह महेता...! 

**नरसी भगत**

एक बार जूनागढ़ में कवि नरसी जी महेता का बड़ा भाई भाई नरसी जी के घर आया।

पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था।

भाई ने नरसी जी से कहा :- 






'कल पिताजी का वार्षिक श्राद्ध करना है।

कहीं अड्डेबाजी मत करना बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना।

काम-काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।'

नरसी जी ने कहा :- 

'पूजा पाठ करके ही आ
सकूँगा।'

इतना सुनना था कि बड़ा भाई उखड गए और बोले :-

 'जिन्दगी भर यही सब करते रहना।

जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है।

तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।'

नरसी जी ने कहा :-

``नाराज क्यों होते हो भैया?'

मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।

'दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है, नागर-मंडली को मालूम हो गया।'

नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नागर मंडली ने बदला लेने की सोची।

पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित कर दिया।

अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई जी को लग गया वह चिंतित हो उठी।

अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार गए।

नरसी जी घी उधार में चाहते थे पर किसी ने उनको घी नहीं दिया।

अंत में एक दुकानदार राजी हो गया पर ये शर्त

रख दी कि नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा।

बस फिर क्या था, मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद हो गया।

अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है।

अब नरसी मेहता जी गाते गए भजन उधर नरसी के रूप में *भगवान कृष्ण* 
श्राद्ध कराते रहे।

यानी की दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहां श्राद्ध 

*"कृष्ण भगवान"*

 नरसी जी के भेस में करवा रहे हैं।







जय हो, जय हो वाह प्रभू क्या माया है.....

वो कहते हैं ना की :-

*"अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा।*
*प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर, प्रभु को नियम बदलते देखा,*
*अपना मान भले टल जाये, भक्त मान नहीं टलते देखा।"*

तो महाराज सात सौ ब्राह्मणों ने छककर भोजन किया।

दक्षिणा में एक एक अशर्फी भी प्राप्त की।

सात सौ ब्राह्मण आये तो थे नरसी जी का अपमान करने और कहाँ बदले में सुस्वादु भोजन और अशर्फी दक्षिणा के रूप में...
नरसी जी को होश आया तो घर आए और बोले आने में ज़रा देर हो गयी।

क्या करता, कोई उधार का घी भी नहीं दे रहा पत्नि बोली स्वयं खड़े होकर तुमने श्राद्ध का सारा कार्य किया।

ब्राह्मणों को भोजन करवाया, दक्षिणा दी।

ये बात सुनते ही नरसी जी समझ गए कि उनके इष्ट स्वयं उनका मान रख गए।

गरीब के मान को, भक्त की लाज को परम प्रेमी करूणामय भगवान् ने बचा ली।

मन भर कर गाते रहे :-

**दिल कभी ना लगाना दुनिया से *दर्द ही पाओगे
बीती बातेँ याद करके रोते ही रह जाओगे।।

   करना ही है तो करो भजन श्याम का
      हमेशा उम्मीद से दुगुना ही पाओगे।।

*बंधन मुक्ति..!!*





    
*राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक ( सर्प ) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ।*

*अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था।* 

*तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा सुनानी आरंभ की।* 

*राजन !*

*बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया।* 

*संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुँचा।*

*उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी वर्षा पड़ने लगी।*

*जंगल में सिंह व्याघ्र आदि बोलने लगे।* 

*वह राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा।* 

*रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया।*

*वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी ।* 

*वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था।* 

*अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था।* 

*बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी।* 

*उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की।*

*बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते हैं।* 

*मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं।*

*इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं।* 

*ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ।*

*इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता।* 
 
*मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।*

*राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा।*

*उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है।*

*बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी l*

*बहेलिये ने सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिया ।*

*राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा।*

*सोने पर झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा।* 

*अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वह वहीं निवास करने की बात सोचने लगा।* 

*वह बहेलिये से अपने और ठहरने की प्रार्थना करने लगा।*

*इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा।* 

*राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर विवाद खड़ा हो गया ।*  

*कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा,"परीक्षित !* 

*बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा रहने के लिए झंझट करना उचित था ?"*

*परीक्षित ने उत्तर दिया," भगवन् !* 

*वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये?*

*वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है।*

*उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है।*

*"श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा," हे राजा परीक्षित ! 

वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं। 

इस मल-मूल की गठरी देह ( शरीर ) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। 

अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। 

फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते। 

क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है.??*

*राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए।*

*वास्तव में यही सत्य है।* 

*जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् !* 

*मुझे यहाँ ( इस कोख ) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है  पैदा होते ही रोने लगता है।* 

*फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ की खुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता ।* 

*अतः संसार में आने के अपने वास्तविक उद्देश्य को पहचाने और उसको प्राप्त करें ऐसा कर लेने पर आपको मृत्यु का भय नहीं सताएगा..!!*
जय श्री कृष्ण

प्रेम से बोलो राधे राधे. 🙏🙏🌹🌹

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Ramanatha Swami Covil Car Parking Ariya Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits , V.O.C. Nagar , RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
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