श्री रामचरित्रमानस संक्षिप्त प्रवर्चन :
दश धर्मं न जानन्ति
धृतराष्ट्र! निबोध तान्।
मत्त: प्रमत्त उन्मत्त:
श्रान्त: क्रुद्धो बुभुक्षितः।।
त्वरमाणश्च लुब्धश्च
भीतः कामी च ते दश।।
(महाभारत, उ.प. ३३/१०१-०२)
अर्थात : नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, शीघ्र कार्य करने वाला ( जल्दबाज ), लोभी , भयभीत और कामी - हे महाराज धृतराष्ट्र!
ये दस प्रकार के लोग धर्म के तत्व को नही जानते।
महर्षि वाल्मीकि जन्मोत्सव विशेष :
आश्विन मास की पूर्णिमा को महर्षि वाल्मीकि की जयंती के रूप में मनाया जाता है।
इस दिन को परगट दिवस या वाल्मिकी जयंती के रूप में भी जाना जाता है , और यह हिंदू धर्म के बाल्मीकि धार्मिक संप्रदाय के अनुयायियों का एक प्रमुख उत्सव भी है।
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वाल्मीकि, संस्कृत रामायण के प्रसिद्ध रचयिता हैं जो आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं।
उन्होंने संस्कृत मे रामायण की रचना की।
महर्षि वाल्मीकि द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई।
रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्री राम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य व कर्तव्य से, परिचित करवाता है।
आदिकवि शब्द 'आदि' और 'कवि' के मेल से बना है।
'आदि' का अर्थ होता है 'प्रथम' और 'कवि' का अर्थ होता है 'काव्य का रचयिता'।
वाल्मीकि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है।
प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये।
जीवन परिचय :
किंवदंती के अनुसार वह एक बार महान ऋषि नारद से मिले और उनके साथ उनके कर्तव्यों पर चर्चा की।
नारद के शब्दों से प्रभावित होकर, अग्नि शर्मा ने तपस्या करना शुरू कर दिया और "मरा" शब्द का जाप किया जिसका अर्थ था "मरना"।
जैसे ही उन्होंने कई वर्षों तक तपस्या की, शब्द "राम" बन गया, जो भगवान विष्णु का एक नाम था।
अग्नि शर्मा के चारों ओर विशाल एंथिल का निर्माण हुआ और इससे उन्हें वाल्मिकी नाम मिला।
एक अन्य कथा के अनुसार ऋषि बनने से पहले वाल्मिकी एक चोर थे, इसके बारे में कुछ किंवदंतियाँ भी मौजूद हैं।
स्कंद पुराण के नागर खंड में मुखारा तीर्थ के निर्माण पर अपने खंड में उल्लेख किया गया है कि वाल्मिकी का जन्म एक ब्राह्मण के रूप में हुआ था , जिसका नाम लोहजंघा था और वह अपने माता-पिता के प्रति समर्पित पुत्र थे।
उसकी एक खूबसूरत पत्नी थी और वे दोनों एक - दूसरे के प्रति वफादार थे।
एक बार, जब अनारता क्षेत्र में बारह वर्षों तक बारिश नहीं हुई, तो लोहजंघा ने अपने भूखे परिवार की खातिर, जंगल में मिलने वाले लोगों को लूटना शुरू कर दिया।
इस जीवन के दौरान वह सात ऋषियों या सप्तर्षियों से मिला और उन्हें भी लूटने की कोशिश की।
लेकिन विद्वान ऋषियों को उस पर दया आ गई और उन्होंने उसे उसकी मूर्खता बता दी।
उनमें से एक, पुलहा ने उसे ध्यान करने के लिए एक मंत्र दिया और ब्राह्मण बना चोर उसके पाठ में इतना तल्लीन हो गया कि उसके शरीर के चारों ओर चींटियों की पहाड़ियाँ उग आईं।
जब ऋषि वापस आये और उन्होंने चींटी पहाड़ी से मंत्र की ध्वनि सुनी, तो उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया और कहा, "चूंकि तुमने वाल्मीक ( एक चींटी का झुंड ) के भीतर बैठकर महान सिद्धि प्राप्त की है, इस लिए तुम दुनिया में वाल्मिकी के रूप में प्रसिद्ध हो जाओगे।" ।"
वाल्मिकी जी के पिता का नाम प्रचेत था।
वाल्मीकि जी ने 24000 श्लोकों में श्रीराम उपाख्यान ‘रामायण’ लिखी।
ऐसा वर्णन है कि- एक बार वाल्मीकि क्रौंच पक्षी के एक जोड़े को निहार रहे थे।
वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि बहेलिये ने प्रेम - मग्न क्रौंच ( सारस ) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया।
इस पर मादा पक्षी विलाप करने लगी।
उसके विलाप को सुनकर वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्॥
अर्थ : हे दुष्ट, तुमने प्रेम मे मग्न क्रौंच पक्षी को मारा है।
जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी और तुझे भी वियोग झेलना पड़ेगा।
उसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण" ( जिसे "वाल्मीकि रामायण" के नाम से भी जाना जाता है ) की रचना की और "आदिकवि वाल्मीकि" के नाम से अमर हो गये।
अपने महाकाव्य "रामायण" में उन्होंने अनेक घटनाओं के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है।
इस से ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड ज्ञानी थे।
महर्षि वाल्मीकि जी ने पवित्र ग्रंथ रामायण की रचना की परंतु वे आदिराम से अनभिज्ञ रहे।
अपने वनवास काल के दौरान भगवान"श्रीराम" वाल्मीकि के आश्रम में भी गये थे।
भगवान वाल्मीकि को "श्रीराम" के जीवन में घटित प्रत्येक घटना का पूर्ण ज्ञान था।
सतयुग, त्रेता और द्वापर तीनों कालों में वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है....!
इस लिए भगवान वाल्मीकि को सृष्टिकर्ता भी कहते है....!
रामचरितमानस के अनुसार जब श्रीराम वाल्मीकि आश्रम आए थे....!
तो आदिकवि वाल्मीकि के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने के लिए वे जमीन पर डंडे की भांति लेट गए थे और उनके मुख से निकला था....!
"तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा, विस्व बदर जिमि तुमरे हाथा।"
अर्थात आप तीनों लोकों को जानने वाले स्वयं प्रभु हैं।
ये संसार आपके हाथ में एक बैर के समान प्रतीत होता है।
महाभारत काल में भी वाल्मीकि का वर्णन मिलता है।
जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत जाते हैं तो द्रौपदी यज्ञ रखती है.....!
जिसके सफल होने के लिये शंख का बजना जरूरी था....!
परन्तु कृष्ण सहित सभी द्वारा प्रयास करने पर भी पर यज्ञ सफल नहीं होता तो कृष्ण के कहने पर सभी वाल्मीकि से प्रार्थना करते हैं।
जब वाल्मीकि वहाँ प्रकट होते हैं तो शंख खुद बज उठता है और द्रौपदी का यज्ञ सम्पूर्ण हो जाता है।
इस घटना को कबीर ने भी स्पष्ट किया है "सुपच रूप धार सतगुरु आए।
पाण्डवो के यज्ञ में शंख बजाए।
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रावण को मुक्का मार क्यो रोने लगे हनुमान जी :
हनुमान जी अजर और अमर हैं।
हनुमान ऐसे देवता हैं जिनको यह वरदान प्राप्त है कि जो भी भक्त हनुमान जी की शरण में आएगा उसका कलियुग में कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगा।
जिन भक्तों ने पूर्ण भाव एवं निष्ठा से हनुमान जी की भक्ति की है, उनके कष्टों को हनुमान जी ने शीघ्र ही दूर किया है।
हनुमान भक्तों को जीवन में कभी भी कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता उनके संकटों को हनुमान जी स्वयं हर लेते हैं।
इस लेख के माध्यम से हम अपने पाठको को हनुमानजी से संबंधित एक रोचक प्रसंग बताने जा रहे हैं।
क्या आपको पता है कि आमतौर पर हनुमान जी युद्ध में गदा का प्रयोग नहीं करते थे, अपितु मुक्के का प्रयोग करते थे।
रामचरितमानस में हनुमान जी को "महावीर" कहा गया है।
शास्त्रों में "वीर" शब्द का उपयोग बहुतो हेतु किया गया है।
जैसे भीम, भीष्म, मेघनाथ, रावण, इत्यादि परंतु "महावीर" शब्द मात्र हनुमान जी के लिए ही उपयोग होता है।
रामचरितमानस के अनुसार "वीर" वो है जो पांच लक्षण से परिपूर्ण हों....!
1.विद्या-वीर,
2.धर्म-वीर,
3.दान-वीर,
4.कर्म-वीर,
5.बलवीर।
परंतु "महावीर" वो है जिसने पांच लक्षण से युक्त वीर को भी अपने वश में कर रखा हो।
भगवान् श्री राम में पांच लक्षण थे और हनुमान जी ने उन्हें भी अपने वश में कर रखा था।
रामचरितमानस मानस की यह चौपाई इसे सिद्ध करती है...!
"सुमिर पवनसुत पावननामु।
अपने वस करि राखे रामू"
तथा रामचरितमानस मानस में "महाबीर विक्रम बजरंगी" भी प्रयोग हुआ है।
शास्त्रानुसार इंद्र के "एरावत" में 10,000 हाथियों के बराबर बल होता है।
"दिग्पाल" में 10,000 एरावत जितना बल होता है।
इंद्र में 10,000 दिग्पाल का बल होता है।
परंतु शास्त्रों में हनुमान जी की सबसे छोटी उगली में 10,000 इंद्र का बल होता है।
शास्त्रों में वर्णित इस प्रसंग के अनुसार रावण पुत्र मेघनाथ हनुमानजी के मुक्के से बहुत डरता था।
हनुमान जी को देखते ही मेघनाथ भाग खड़ा होता था।
जब रावण ने हनुमान के मुक्के कि प्रशंसा सुनि तो उसने हनुमान जी का सामना कर हनुमानजी से बोला, "आपका मुक्का बड़ा ताकतवर है, आओ जरा मेरे ऊपर भी आजमाओ, मैं आपको एक मुक्का मारूंगा और आप मुझे मारना।"
फिर हनुमानजी ने कहा "ठीक है!
पहले आप मारो।"
रावण ने कहा "मै क्यों मारूँ ?
पहले आप मारो"।
हनुमान बोले "आप पहले मारो क्योंकि मेरा मुक्का खाने के बाद आप मारने के लायक ही नहीं रहोगे"।
अब रावण ने पहले हनुमान जी को मुक्का मारा।
इस प्रकरण की पुष्टि यह चौपाई कर्ट है "देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर"।
रावण के प्रभाव से हनुमान जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए संभलकर उठे।
रावण मोह का प्रतीक है और मोह का मुक्का इतना तगड़ा होता है कि अच्छे - अच्छे संत भी अपने घुटने टेक देते हैं।
फिर हनुमानजी ने रावण को एक घुसा मारा।
रावण ऐसा गिर पड़ा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो।
रावण मूर्च्छा भंग होने पर फिर वह जागा और हनुमानजी के बड़े भारी बल को सराहने लगा, गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं कि "अहंकारी रावण किसी की प्रशंसा नहीं करता पर मजबूरन हनुमान जी की प्रशसा कर रहा है।
प्रशंसा सुनकर हनुमान जो को प्रसन्न होना चाहिए पर वे तो रो रहे हैं स्वयं को धिक्कार रहे हैं" गोस्वामी जी के अनुसार हनुमानजी ने रोते हुए कहा कि "मेरे पौरुष को धिक्कार है, धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है, ''जो हे देवद्रोही! तू अब भी जीता रह गया''
अर्थात हनुमान जी का मुक्का खाने के बाद भी रामद्रोही रावण जीवित है।
मोह की ताकत देखो, मोह को यदि कोई मार सकता है तो केवल भगवान श्रीराम उनके अलावा कोई नहीं मार सकता। इसकी पुष्टि यह चौपाई करती है
"मुरुछा गै बहोरि सो जागा।
कपि बल बिपुल सराहन लागा धिग धिग मम पौरुष धिग मोही।
जौं तैं जिअत रहेसिसुरद्रोही"।





