https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: जून 2025

श्री गंगालहरी स्त्रोत्र पाठ , मां गंगा का सफर गौमुख :

 श्री गंगालहरी स्त्रोत्र पाठ , मां गंगा का सफर गौमुख 


श्री गंगालहरी स्त्रोत्र पाठ ( हिंदी अनुवाद सहित )


समृद्धं सौभाग्यं सकल वसुधायाः किमपि तत्-

महैश्वर्यं लीला जनित जगतः खण्डपरशोः ।

श्रुतीनां सर्वस्वं सुकृतमथ मूर्तं सुमनसां

सुधासौन्दर्यं ते सलिलमशिवं नः शमयतु॥१॥


( हे माँ! ) महेश्वर शिव की लीला जनित इस सम्पूर्ण वसुधा की आप ही समृद्धि और सौभाग्य हो, वेदो का सर्वस्व सारतत्व भी आप ही हो. मूर्तिमान दिव्यता की सौंदर्य-सुधायुक्त आपका जल, हमारे सारे अमंगल का शमनकारी हो.




Veronese Statue de Ganesh (Ganesha) Éléphant hindou Dieu du succès Bronze véritable moulé en poudre 19,5 cm

https://amzn.to/446qh76



दरिद्राणां दैन्यं दुरितमथ दुर्वासनहृदाम्

द्रुतं दूरीकुर्वन् सकृदपि गतो दृष्टिसरणिम् ।

अपि द्रागाविद्याद्रुमदलन दीक्षागुरुरिह

प्रवाहस्ते वारां श्रियमयमऽपारां दिशतु नः॥२॥


आपकी दृष्टि मात्र से ही ह्रदय की दुर्वासनाएं और दरिद्रों के दैन्य शीघ्र दूर हो जाते हैं. राग और अविद्या के गुल्म आपके गुरुसम अपार प्रवाह की दीक्षा से समूल नष्ट हो जाएँ और हमें अतुलनीय श्रेय की प्राप्ति हो.


उदञ्चन्मार्तण्ड स्फुट कपट हेरम्ब जननी

कटाक्ष व्याक्षेप क्षण जनितसंक्षोभनिवहाः।

भवन्तु त्वंगंतो हरशिरसि गङ्गातनुभुवः

तरङ्गाः प्रोत्तुङ्गा दुरितभव भङ्गाय भवताम्॥३॥


गणेशजननी की बालार्क कटाक्षदृष्टि से शिव जटाओं में बद्ध गंगा की संक्षोभित उत्ताल तरंगें, कठिन अघयुक्त-भुवनभय भंगकारी हों!


तवालम्बादम्ब स्फुरद्ऽलघुगर्वेण सहसा

मया सर्वेऽवज्ञा सरणिमथ नीताः सुरगणाः ।

इदानीमौदास्यं भजसि यदि भागीरथि तदा

निराधारो हा रोदिमि कथय केषामिह पुरः॥४॥


आपके अवलंबन के आश्रय से सहसा अति गर्वित हो मैंने सभी अन्य देवों की अवज्ञा करली, ऐसे में यदि आप मुझसे उदासीन हो गयी तो मैं निराधार किसके आगे अपना रोना रोऊँ?


स्मृतिं याता पुंसामकृतसुकृतानामपि च या

हरत्यन्तस्तन्द्रां तिमिरमिव चण्डांशु सरणिः।

इयं सा ते मूर्तिः सकलसुरसंसेव्यसलिला

ममान्तःसन्तापं त्रिविधमपि पापं च हरताम्॥५॥


सूर्य रश्मियों की उपस्थिति मात्र से ही जैसे तम का नाश हो जाता है, आपके स्मरण मात्र से ही पुण्यहीनों की भी कुंठाओं का शमन हो जाता है. दिव्यात्माओं द्वारा भी अभिलाषित आपका पावन जल मेरे भी त्रिविध  पाप संताप को दूर कर दे.


अपि प्राज्यं राज्यं तृणमिव परित्यज्य सहसा

विलोलद्वानीरं तव जननि तीरं श्रितवताम् ।

सुधातः स्वादीयः सलिलभरमातृप्ति पिबताम्

जनानामानन्दः परिहसति निर्वाणपदवीम्॥६॥


बड़े बड़े साम्राज्यों का तृणवत त्याग करके, आपके तीर का आश्रय ले कर तृण विलोलित आपके जल के  आतृप्त अमृतपान के आनंद की तुलना में तो निर्वाणपद भी हेय है.


प्रभाते स्नान्तीनां नृपति रमणीनां कुचतटी-

गतो यावन् मातः मिलति तव तोयैर्मृगमदः।

मृगास्तावद्वैमानिक शतसहस्रैः परिवृता

विशन्ति स्वच्छन्दं विमल वपुषो नन्दनवनम्॥७॥


राजमहिषियों द्वारा प्रातःकाल आप में स्नान से  कस्तूरीलेपित वक्षों  से आपके जल में मृगमद अर्पित हो जाने के पुण्य से वे मृग  अनायास ही सहस्रशत विमानों से परिवृत हो दिव्यरूप प्राप्त कर नंदनवन में स्वच्छंद प्रवेश और विचरण करते हैं.


स्मृतं सद्यः स्वान्तं विरचयति शान्तं सकृदपि

प्रगीतं यत्पापं झटिति भवतापं च हरति ।

इदं तद्गङ्गेति श्रवण रमणीयं खलु पदम्

मम प्राण प्रान्त: वदन कमलान्तर्विलसतु॥८॥


स्मरण करते ही जो तुरंत मन में प्रशांति रच देता है, गान करने से जो अविलम्ब भवताप हर लेता है, श्रवण मात्र से “गंगा” यह नाम मेरे मन के कमलवन में और मुख में प्राणांत तक विलास करता रहे.


यदन्तः खेलन्तो बहुलतर सन्तोष भरिता

न काका नाकाधीश्वर नगर साकाङ्क्ष मनसः ।

निवासाल्लोकानां जनि मरण शोकापहरणम्

तदेतत्ते तीरं श्रम शमन धीरं भवतु नः॥९॥


और तो और, आपकी सन्निधि में कौवे भी इतने संतोष से भरे रमते हैं कि उनको अब स्वर्ग की भी चाहना नहीं. आपके तीर का निवास जन्म मरण के शोक का तो हरण करता ही है, इसका नैकट्य भी निष्ठावानों का श्रमहारी हो.


न यत्साक्षाद्वेदैरपि गलितभेदैरवसितम्

न यस्मिञ्जीवानां प्रसरति मनोवागवसरः ।

निराकारं नित्यं निजमहिम निर्वासित तमो-

विशुद्धं यत्तत्त्वं सुरतटि नि तत्त्वं न विषयः॥१०॥


आप नित्य निराकार तमोहारी विशुद्ध दिव्य तत्त्व हो, जीवों के मन वाणी के विषयों से परे, अगोचर हो. सारे भेदों को पार करके साक्षात वेद भी आपका निरूपण नहीं कर सकते.


महादानैः ध्यानैर्बहुविध वितानैरपि च यत्

न लभ्यं घोराभिः सुविमल तपोराजिभिरपि।

अचिन्त्यं तद्विष्णोःपदमखिल साधारणतया

ददाना केनासि त्वमिह तुलनीया कथय नः॥११॥


बहुविधियों से दान, ध्यान बलिदान और घोर ताप से भी जो अचिन्त्य विष्णु पद अप्राप्य रहता है, वो भी आप सहजता से प्रदान कर देती हो तो भला आप किससे तुलनीय हैं?


नृणामीक्षामात्रादपि परिहरन्त्या भवभयम्

शिवायास्ते मूर्तेः क इह महिमानं निगदतु ।

अमर्षम्लानायाः परममनुरोधं गिरिभुवो

विहाय श्रीकण्ठः शिरसि नियतं धारयति याम्॥१२॥


कोई मनुष्य आपको देख भर ले तो भवभय से निर्भय हो जाता है,ऐसी आपकी   महिमा की कौन प्रशस्ति कर सकता है? इसी कारण, अमर्ष से अम्लान हुई पार्वतीजी की भी अनदेखी करते हुए सदाशिव आपको सदा अपने मस्तक पर धारण किये रहते हैं.


विनिन्द्यान्युन्मत्तैरपि च परिहार्याणि पतितैः

अवाच्यानि व्रात्यैः सपुलकमपास्यानि पिशुनैः ।

हरन्ती लोकानामनवरतमेनांसि कियताम्

कदाप्यश्रान्ता त्वं जगति पुनरेका विजयसे॥१३॥


निन्दितों द्वारा भी निंदनीय पापियों को भी आप तार देती हो, जो पतितों द्वारा भी घृणित और नीचों द्वारा भी त्याज्य हैं, ऐसों को भी आप निरंतर आश्रय देते हुए भी श्रमित न होकर इस विश्व में सदैव एकमात्र विजयमान रहती हो.


स्खलन्ती स्वर्लोकादवनितलशोकापहृतये

जटाजूटग्रन्थौ यदसि विनिबद्धा पुरभिदा ।

अये निर्लोभानामपि मनसि लोभं जनयताम्

गुणानामेवायं तव जननि दोषः परिणतः॥१४॥


माँ! शोकग्रस्तों को तारने के लिए आपके  स्वयं को अपने दिव्यलोक से पत्तन करती हुई को निर्लोभी शिव ने अपनी जटाजूट ग्रंथियों में आबद्ध करके मानो स्वयं में लोभ का दोष आरोपित कर आपकी महिमा को निरुपित किया.


जडानन्धान्पङ्गून् प्रकृतिबधिरानुक्तिविकलान्

ग्रहग्रस्तानस्ताखिलदुरितनिस्तारसरणीन् ।

निलिम्पैर्निर्मुक्तानपि च निरयान्तर्निपततो

नरानम्ब त्रातुं त्वमिह परमं भेषजमसि॥१५॥


मूर्खों, अन्धों, पंगुओं, मूक बधिर और ग्रहादि दोषों से ग्रस्त, जिनका पाप से निस्तारण का कोई मार्ग न हो,  देवताओं द्वारा परित्यक्त उन नर्कगामियों की, हे माँ, आप ही परम उद्धारक औषधि हो.


स्वभावस्वच्छानां सहजशिशिराणामयमपाम्

अपारस्ते मातर्जयति महिमा कोऽपि जगति ।

मुदा यं गायन्ति द्युतलमनवद्यद्युतिभृतः

समासाद्याद्यापि स्पुटपुलकसान्द्राः सगरजाः॥१६॥


माँ! आपके स्वच्छ शीतल जल की इस जगत में अपार महिमा अवर्णनीय है. निष्कलंक कीर्ति से स्वर्ग प्राप्त किये सगरपुत्र आज भी पुलकित रोमावलीयुक्त हो आज भी आपकी महिमा का गान करते हैं.


कृतक्षुद्रैनस्कानथ झटिति सन्तप्तमनसः

समुद्धर्तुं सन्ति त्रिभुवनतले तीर्थनिवहाः ।

अपि प्रायश्चित्तप्रसरणपथातीतचरितान्

नरान् दूरीकर्तुं त्वमिव जननि त्वं विजयसे॥१७॥


छोटे मोटे पापों से शीघ्र क्षुब्ध मन वालों के परित्राण के लिए तो हे माँ! इस विश्व में अनेको पवित्र तीर्थ व सरिताएँ हैं, परन्तु जघन्य पापों और पापियों के उद्धार के लिए तो एक मात्र आप ही हैं.


निधानं धर्माणां किमपि च विधानं नवमुदाम्

प्रधानं तीर्थानाममलपरिधानं त्रिजगतः।

समाधानं बुद्धेरथ खलु तिरोधानमधियाम्

श्रियामाधानं नः परिहरतु तापं तव वपुः॥१८॥


सर्व धर्मों की निधान, नव प्रसन्नता की विधान,त्रिभुवन में पवित्रवारि तीर्थों में प्रधान और कुविचारों का तिरोधान कर बुद्धि को समग्र समाधान प्रदान करने वाली माँ, आप ऐश्वर्यों का भंडार हो. आपका वपु हमारे सब तापों का शमन करे.


पुरो धावं धावं द्रविण मदिरा घूर्णित दृशाम्

महीपानां नाना तरुणतर खेदस्य नियतम् ।

ममैवायं मन्तुः स्वहित शत हन्तुर्जडधियो

वियोगस्ते मातः यदिह करुणातः क्षणमपि॥१९॥


मदोन्मत्त शासकों के सामने चाटुकारिता करते करते मुझमे नाना भांति के विकार आ गए हैं  और जड़ बुद्धि हो मैं स्वयं का ही हितनाशक हो गया,क्योंकि क्षण भर का भी आपकी करुणा से वियोग मेरी ही भूल है.


मरुल्लीला लोलल्लहरि लुलिताम्भोज पटली-

स्खलत्पां-सुव्रातच्छुरण विसरत्कौंकुम रुचि ।

सुर स्त्री वक्षोज क्षरद् अगरु जम्बाल जटिलम्

जलं ते जम्बालं मम जनन जालं जरयतु॥२०॥


वायु की लीला से दोलित पंकजों की पतित केसर से केसरिया और सुर ललनाओं के वक्षो से क्षरित अगरु से प्रगाढ़ हुआ आपका जल मेरे जन्म-मृत्यु जाल का निवारक हो.


समुत्पत्तिः पद्मारमण पद पद्मामल नखात्

निवासः कन्दर्प प्रतिभट जटाजूट भवने ।

अथायं व्यासङ्गो हतपतित निस्तारण विधौ

न कस्मादुत्कर्षस्तव जननि जागर्तु जगतः॥२१॥


रमारमण विष्णु के पदकंजों के अमल श्रीनखों से निसरित, मदनारी महादेव के जटाजूट-भवन निवासिनी माँ, आप दुखियों और पतितों के उद्धार में निरत हैं. तो फिर इस जगत की जाग्रति और उन्नति  कैसे न होगी!


नगेभ्यो यान्तीनां कथय तटिनीनां कतमया

पुराणां संहर्तुः सुरधुनि कपर्दोऽधिरुरुहे ।

कया च श्रीभर्तुः पद कमलमक्षालि सलिलैः

तुलालेशो यस्यां तव जननि दीयेत कविभिः॥२२॥


हे देवसरिता! और कौन नदी नगेन्द्र से निकल कर त्रिपुरारी की अलकों  पे चढ़ी है? या जिसने रमापति के चरण कमलों का प्रक्षालन किया है?और हो भी तो क्या कोई कवि उसकी आपसे लेश मात्र भी तुलना कर सकता है?


विधत्तां निःशङ्कं निरवधि समाधिं विधिरहो

सुखं शेषे शेतां हरि: अविरतं नृत्यतु हरः ।

कृतं प्रायश्चित्तैरलमथ तपोदानयजनैः

सवित्री कामानां यदि जगति जागर्ति भवती॥२३॥


जगत में जब आप जाग्रत हो कम्नापूर्ण कर ही रही हैं, तो भले ब्रह्मा निरवधि समाधिस्थ हो जाएँ,विष्णु सुख से शेष शयन करें या शिव अविरत लास्य करें, तप दान बलि यज्ञादि युक्त प्रायश्चित्त परिष्कार की भी कोई आवश्यकता नहीं है.


अनाथः स्नेहार्द्रां विगलितगतिः पुण्यगतिदाम्

पतन् विश्वोद्भर्त्री गदविदलितः सिद्धभिषजम् ।

सुधासिन्धुं तृष्णाऽकुलितहृदयो मातरमयम्

शिशुः संप्राप्तस्त्वामहमिह विदध्याः समुचितम्॥२४॥


मुझ पथभ्रष्ट अनाथ पर आप स्नेहाद्र हो कर पुन्यगति प्रदायिनी हों. आप पतित को विश्व में अभ्यूदयी बनाने वाली, रुग्ण को सिद्धौषधिदायी,तृष्णातुर ह्रदय के लिए सुधासिंधु रूपा हैं, हे माँ,मैं  बाल रूप से आपके पास आया हूँ, आप जैसा उचित समझें, वैसा करें.


विलीनो वै वैवस्वतनगर कोलाहल भरः

गता दूता दूरं क्वचिदपि परेतान् मृगयितुम् ।

विमानानां व्रातो विदलयति वीथीर्दिविषदाम्

कथा ते कल्याणी यदवधि महीमण्डलमगात्॥२५॥


 हे शुभे! जिस दिन से आपकी कथा धरती पर पहुंची है, यमपुरी का कोलाहल शांत हो गया है,दूतों को उन्हें प्राप्य मृतकों की खोज में दूर दूर जाना पड़ता है. दिव्यों के नगर की गलियाँ यानों की घर्घराहट से व्याप्त हो गई हैं.


स्फुरत्काम क्रोध प्रबलतर सञ्जातजटिल-

ज्वरज्वाला जाल ज्वलित वपुषां नः प्रति दिनम् ।

हरन्तां सन्तापं कमपि मरुदुल्लासलहरी-

छटाश्चञ्चत्पाथः,कणसरणयो दिव्यसरितः॥२६॥


हे दिव्यसरित! उल्लसित मारुत  द्वारा आपकी लहरों  से विसरित जल कण, काम और क्रोध की प्रबल ज्वालाओं से  प्रतिदिन दग्ध  हमारे तन के अवर्णनीय ताप को दूर करे.


इदं हि ब्रह्माण्डं सकल भुवनाभोगभवनम्

तरङ्गैर्यस्यान्तर्लुठति परितस्तिन्दुकमिव ।

स एष श्रीकण्ठ प्रवितत जटाजूट जटिलः

जलानां सङ्घातस्तव जननि तापं हरतु नः॥२७॥


माँ! आपका जल, जिसने पूरे ब्रह्माण्ड को तिन्दुक फल की भांति प्लावित कर दिया था,परन्तु   शिव की खोली हुई जटाओं के जाल में आबद्ध हो के रह गया, हमारे लिए तापहारी हो!


त्रपन्ते तीर्थानि त्वरितमिह यस्योद्धृतिविधौ

करं कर्णे कुर्वन्त्यपि किल कपालिप्रभृतयः।

इमं तं मामम्ब त्वमियमनुकम्पार्द्रहृदये

पुनाना सर्वेषां अघमथन दर्पं दलयसि॥२८॥


मुझ जैसे पतित को, जिसे तारने में शिव जैसे देव ने भी कानों पर हाथ रख कर और अनेक तीर्थों ने लज्जित हो कर अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी,अपनी अनुकम्पा से तार कर, हे दयार्द्र हृदया माँ! आपने तो जैसे सभी तारकों के पापहारिता के दर्प का दलन कर दिया.


श्वपाकानां व्रातैरमितविचिकित्साविचलितैः

विमुक्तानामेकं किल सदनमेनः परिषदाम् ।

अहो मामुद्धर्तुं जननि घटयन्त्याः परिकरम्

तव श्लाघां कर्तुं कथमिव समर्थो नरपशुः॥२९॥


मैं तो दुश्चिंताओं से भरे चांडालों से भी त्यक्त पापों का भण्डार हूँ, फिर भी आप मेरे उद्धार तत्पर हैं. आपकी स्तुति करने में मुझ जैसा नर पशु कैसे समर्थ होगा?


न कोऽप्येतावन्तं खलु समयमारभ्य मिलितो

मदुद्धारादाराद्भवति जगतो विस्मयभरः ।

इतीमामीहां ते मनसि चिरकालं स्थितवतीम्

अयं संप्राप्तोऽहं सफलयितुमम्ब प्रथमतः॥३०॥


अनादि काल से हे माँ, आप सोचती रही हैं की क्या कोई ऐसा पतित भी मिलेगा जिसके उद्धार से सम्पूर्ण विश्व विस्मित हो जाय. अंततः आपकी इस इच्छापूर्ती हेतु प्रथम व्यक्ति के रूप में आपको मैं प्राप्त हो ही गया!  


श्ववृत्तिव्यासङ्गो नियतमथ मिथ्याप्रलपनम्

कुतर्केष्वभ्यासः सततपरपैशून्यमननम् ।

अपि श्रावं श्रावं मम तु पुनरेवं गुणगणान्

ऋते त्वां को नाम क्षणमपि निरीक्षेत वदनम् ॥ ३१ ॥


कुतर्की की भांति हर समय मिथ्या प्रलापों में दूसरों की निंदा करते हुए मैंने श्वान वत जीवन जिया है. मेरे इन गुणों को जान कर, आपके सिवा कौन है जो क्षण मात्र के लिए भी मेरी और देखे?


विशालाभ्यामाभ्यां किमिह नयनाभ्यां खलु फलम्

न याभ्यामालीढा परमरमणीया तव तनुः ।

अयं हि न्यक्कारो जननि मनुजस्य श्रवणयोः

ययोर्नान्तर्यातस्तव लहरिलीलाकलकलः ॥ ३२ ॥


चाहे कितनी ही आभा से व्याप्त विशाल क्यों न हो, वो नेत्र ही क्या जिन्होंने आपके परम रमणीय स्वरुप  को ना देखा! धिक् उन मनुष्यों के कानों को जिनमे आपकी लीला लहरी की कलकल न पड़ी!


विमानैः स्वच्छन्दं सुरपुरमयन्ते सुकृतिनः

पतन्ति द्राक्पापा जननि नरकान्तः परवशाः ।

विभागोऽयं तस्मिन्नुभयविध मूर्तिः जनपदे

न यत्र त्वं लीला शमित मनुजाशेषकलुषा ॥ ३३ ॥


ये तो आप से हीन जनपदों की रीत है कि पुण्यवान सुरपुर जाते और पापी परवश हो शीघ्र नारकीय हो जाते हैं. आपकी लीलास्थली में ऐसा नहीं है क्योंकि यहाँ किसी में भी कोई कलुष बचता ही नहीं!


अपि घ्नन्तो विप्रानविरतमुषन्तो गुरुसतीः

पिबन्तो मैरेयं पुनरपि हरन्तश्च कनकम् ।

विहाय त्वय्यन्ते तनुमतनुदानाध्वरजुषाम्

उपर्यम्ब क्रीडन्त्यखिलसुरसंभावितपदाः॥३४॥


ब्रह्महत्या, गुरुतिय गमन, सुरापान, और तो और स्वर्ण चोरी जैसे जघन्य पाप करने वाले भी यदि आपकी सन्निधि में देहत्याग करते हैं तो वे भी दान बलि आदि सत्कर्म कर स्वर्गादि प्राप्त करने वालों से भी ऊँचे सुर सम्मानित दिव्य पद प्राप्त कर लेते हैं.


अलभ्यं सौरभ्यं हरति सततं यः सुमनसाम्

क्षणादेव प्राणानपि विरह शस्त्रक्षत भृताम् ।

त्वदीयानां लीलाचलित लहरीणां व्यतिकरात्

पुनीते सोऽपि द्रागहह पवमानस्त्रिभुवनम्॥३५॥


अहो, पुष्प सौरभयुक्त दुर्लभ पवन भी वियोगपीड़ा  और शस्त्राघात पीड़ितों के प्राण क्षण में हर लेती है, वह भी आपकी अठखेलियाँ करती लहरों का स्पर्श पा तत्क्षण त्रिभुवन पावनी हो जाती है.


कियन्तः सन्त्येके नियतमिह लोकार्थ घटका:

परे पूतात्मानः कति च परलोकप्रणयिनः ।

सुखं शेते मातस्तव खलु कृपातः पुनरयम्

जगन्नाथः शश्वत्त्त्वयि निहितलोकत्रयभरः॥३६॥


माँ, कितने हैं जो सामान्य जन का कल्याण करने को तत्पर हैं? कितनी पुण्यात्माएं परलोकाभिलाषा में हैं. ये तो आपकी करुणा है जिस पर शाश्वत त्रिभुवनतारण का भार जान  कर ये जगन्नाथ निश्चिन्तता से  सुख से सो रहा है. 


भवत्या हि व्रात्याऽधम पतित पाषण्डपरिषत्

परित्राणस्नेहः श्लथयितुमशक्यः खलु यथा।

ममाप्येवं प्रेमा दुरितनिवहेष्वम्ब जगति

स्वभावोऽयं सर्वैरपि खलु यतो दुष्परिहरः॥३७॥


जैसे आप पतित, अधम और पाखंडियों के उद्धार का बिरद नहीं छोड़ सकती, ऐसे ही मैं भी दुष्कर्म और अधमता का त्याग नहीं कर सकता. अरे माँ,कोई कैसे अपने स्वाभाव का परित्याग कर सकता है?


प्रदोषान्तर्नृत्यत्पुरमथनलीलोद्धृतजटा-

तटाभोगप्रेङ्खल्लहरिभुजसन्तानविधुतिः ।

गलक्रोड क्रीडज्जल डमरु टङ्कार सुभगः

तिरोधत्तां तापं त्रिदश तटिनी ताण्डव विधिः॥३८॥


सांध्य तांडव करते भगवान शिव की झूलती जटाओं में से निराबद्ध हो कर, डमरू की टंकारवत क्रीडा करता और हरकंठ को आबद्ध करता हुआ गंगाजल, मानो स्वयं भी ताण्डव रत हो,  मेरे ताप का शमन करे.  


सदैव त्वय्येवार्पित कुशल चिन्ताभरमिमं

यदि त्वं मामम्ब त्यजसि समयेऽस्मिन् सुविषमे ।

तदा विश्वासोऽयं त्रिभुवन तलादस्तमयते

निराधारा चेयं भवति निर्व्याजकरुणा॥३९॥


माँ, मैंने तो अपनी कुशल की सारी चिंताओं का भार सदैव आप पर ही छोड़ा हुआ है. यदि ऐसे विषम समय में आप मेरा त्याग करोगी तो त्रिभुवन में आपकी अहैतुकि करुणा का विश्वास और आधार ही उठ जायेगा.


कपर्दादुल्लस्य प्रणयमिलदर्धाङ्गयुवतेः

मुरारेः प्रेङ्खन्त्यो मृदुलतर सीमन्त सरणौ।

भवान्या सापत्न्या स्फुरितनयनं कोमलरुचा

करेणाक्षिप्तास्ते जननि विजयन्तां लहरयः॥४०॥


भगवान अर्धनारीश्वर की जटाओं से निसृत आपकी लहरों का जल लगने पर  किंचित झुंझलाहट दृष्टि से देखते हुए माँ पारवती ने अपने कोमल करों से हटाया, ऐसी आपकी धन्य लहरें विजयशाली हों.


प्रपद्यन्ते लोकाः कति न भवतीमत्रभवतीम्

उपाधिस्तत्रायं स्फुरति यदभीष्टं वितरसि ।

अये तुभ्यं मातर्मम तु पुनरात्मा सुरधुनि

स्वभावादेव त्वय्यमितमनुरागं विधृतवान्॥४१॥


अभीष्ट की पूर्ती हो जाने के कारण असंख्य लोग आपका आश्रय लेते हैं. जहाँ तक मेरा प्रश्न है, हे माँ, मैं तो स्वभावतः ही आपका अमित अनुरागी हूँ.


ललाटे या लोकैरिह खलु सलीलं तिलकिता

तमो हन्तुं धत्ते तरुणतरमार्तण्डतुलनाम् ।

विलुम्पन्ती सद्यो विधिलिखितदुर्वर्णसरणिं

त्वदीया सा मृत्स्ना मम हरतु कृत्स्नामपि शुचम्॥४२


लोग आपके जल की मृत्तिका का अपने ललाट पर तिलक लगाते हैं जो तमोहारि बालार्क की भांति शोभा पाता है, क्योंकि विधि द्वारा लिखित दुर्भाग्य-तम का इससे तुरंत नाश हो जाता है. ऐसी सद्य मृत्तिका मुझे शुचिता प्रदान करे.


 नरान्मूढांस्तत्तज्जनपदसमासक्तमनसः

हसन्तः सोल्लासं विकच कुसुम व्रातमिषतः ।

पुनानाः सौरभ्यैः सतत मलिनो नित्यमलिनान्

सखायो नः सन्तु त्रिदशतटिनीतीरतरवः॥४३॥


देवसरित के तट पर अवस्थित डोलते पुष्पद्रुमों से लदे वृक्ष मानो उन हत्भागियों पर हँसते हैं तो इससे विमुख हो अपनी ही विषम दुनिया में आसक्त रहते हैं. नित्य मलीन मधुमक्खियों को भी अपनी सुवास से सतत पवित्र करते पुष्पों वाले ये वृक्ष हमारे सखा हों.


भजन्त्येके देवान् कठिनतर सेवांस्तदपरे

वितानव्यासक्ता यमनियमारक्ताः कतिपये ।

अहं तु त्वन्नामस्मरणहितकामस्त्रिपथगे

जगज्जालं जाने जननि तृणजालेन सदृशम्॥४४॥


कोई देवताओं को भजते तो कोई कठिन सेवा में लगते, कोई बलि देते,  कुछ यम नियम में रत रहते या कठोर तपसाधन और ध्यान करते हैं. पर हे त्रिपथगामिनी, मैं तो आराम से मात्र आपका  नाम स्मरण मात्र ही करता हुआ इस जगत्जाल को तृणजालवत अनुभव करता हूँ.


अविश्रान्तं जन्मावधि सुकृतकर्मार्जनकृताम्

सतां श्रेयः कर्तुं कति न कृतिनः सन्ति विबुधाः ।

निरस्तालम्बानाम.ऽकृतसुकृतानां तु भवतीम्

विनामुष्मिन् लोके न परमवलोके हितकरम्॥४५॥


जन्म से ही सतत सत्कर्मियों के लिए श्रेयस्कर तो कई विद्वान और सुकृती होंगे. परन्तु सुकर्म ना करने वाले और अवलम्बनहीनों के उद्धार के लिए मुझे तो आपके अतिरिक्त और कोई नहीं दिखता है. 


पयः पीत्वा मातस्तव सपदि यातः सहचरैः

विमूढैः संरन्तुं क्वचिदपि न विश्रान्तिमगमम् ।

इदानीमुत्सङ्गे मृदुपवनसञ्चारशिशिरे

चिरादुन्निद्रं मां सदयहृदये स्थापय चिरम्॥४६॥


अरे माँ, तेरा पय-जल पान करके भी मैं तुरंत विमूढ़ों के साहचर्य में चला गया, और कहीं भी विश्रांति न पाई. अब तो हे सदय हृदया माँ, मुझे सदा के लिए मृदु शीतल पवन युक्ता अपनी पावन गोद में   चिर विश्राम देदे, काफी देर बाद मेरे जीवन में  आपकी प्रेम के प्रति जागृति आयी है.


बधान द्रागेव द्रढिम रमणीयं परिकरम्

किरीटे बालेन्दुं नियमय पुनः पन्नग गणैः ।

न कुर्यास्त्वं हेलामितर जनसाधारण धिया

जगन्नाथस्य अयं सुरधुनि समुद्धार समयः॥४७॥


हे दिव्य सरिता! अपनी दृढ रमणिक कटि कसकर बालचंद्र के मुकुट को सर्पों के द्वारा सुस्थिर कर लो. ये किसी साधारण अधम जन का प्रकरण नहीं है. इस जगन्नाथ के समुद्धार का समय आ गया है.


शरच्चन्द्रश्वेतां शशिशकल शोभाल मुकुटाम्

करैः कुम्भाम्भोजे वराभय निरासौ विदधतीम् ।

सुधासाराकाराभरणवसनां शुभ्रमकर-

स्थितां त्वां ध्यायन्त्युदयति न तेषां परिभवः॥४८॥


आप शिशिरचन्द्र की धवलता लिए हैं और वक्रचन्द्र शोभित किरीट  आपको शोभित कर रहा है. हाथों में अभयमुद्रा युक्त हाथों में   कुम्भ्सम कुमुद हैं, सुधासार रूप वसन और अलंकार धारण किये हुए आप शुभ्र मकर पर आरूढ़ हैं. ऐसे आपके रूप का जो ध्यान धरता है, उसका कभी परिभव नहीं, अभ्युदय ही शोता है.


दरस्मित समुल्लसद्वदनकान्तिपूरामृतैः

भवज्वलन भर्जिताननिशमूर्जयन्ती नरान् ।

विवेकमय चन्द्रिका चयचमत्कृतिं तन्वती

तनोतु मम शं तनोः सपदि शन्तनोरङ्गना॥४९॥


शांतनु अन्गिनी गंगा! तीन ताप के भवजाल से निरंतर विदग्धित जीवों को अपने स्मितमुस्कान युक्त  मुख, कांतिपूरित वदनामृत और विवेक चन्द्रिका प्रसाद से शीतलता प्रदान करने वाली आप, मेरे भी पाप ताप का शमन कर शांति प्रदान करें.


मंत्रैर्मीलितमौषधैर्मुकुलितं त्रस्तं सुराणां गणैः

स्रस्तं सान्द्रसुधा रसैर्विदलितं गारुत्मतैर्ग्रावभिः ।

वीचिक्षालित कालिया हित पदे स्वर्लोक कल्लोलिनि

त्वं तापं निरयाधुना मम भवव्यालावलीढात्मनः॥५०॥


स्वर्गलोक कल्लोलिनी गंगे! आपकी लहरों के स्पर्श से तो कलि बह ही गया! अब मेरी इस त्रस्त आत्मा का भी उद्धार करो. भाव भुजंग से ग्रसित इसका न मन्त्र, न औषधि, न सुरसमूह, न गरिष्ठ सुधा और न ही गरुत्मान मणि उपचार है.


द्यूते नागेन्द्रकृत्ति प्रमथगण मणिश्रेणि नन्दीन्दुमुख्यं

सर्वस्वं हारयित्वा स्वमथपुरभिदिद्राक्पणी कर्तुकामे ।

साकूतं हैमवत्या मृदुलहसितया वीक्षितायास्तवाम्ब

व्यालो लोल्लासि वल्गल्लहरि नटघटी ताण्डवं नः पुनातु॥५१॥


चौसर की द्यूत क्रीडा में दांव पर अपने प्रमथगण,नंदी, ईंदु, गलहार नाग, गजचर्म सहित सब कुछ हारने के बाद जब शिव स्वयं को दांव पर लगाने को तत्पर हुए, तब अकूत जलभंडार युक्त स्वर्णकलश लिए तांडव नर्तक की भांति आपके जिस नर्तन को मृदुल हास्य के साथ पार्वतीजी ने देखा, वो हमारा पवित्र प्रोक्षण करे.


विभूषितानङ्ग रिपूत्तमाङ्गा, सद्यः कृतानेकजनार्तिभङ्गा ।

मनोहरोत्तुङ्गचलत्तरङ्गा,गङ्गा ममाङ्गान्यमली करोतु॥५२॥


अनंग-रिपु शिव के उत्तम भाल को विभूषित करने वाली गंगा असंख्य जनों के कष्टों का क्षण में शमन करती है. मनोहर उत्तंग तरंगों से हे माँ, मेरे अंगों को अमल करदो.


इमां पीयूषलहरीं जगन्नाथेन निर्मिताम् । 

यः पठेत्तस्य सर्वत्र जायन्ते सुखसम्पदः ॥ ५३॥


मां गंगा का सफर गौमुख से हरिद्वार तक :


उत्तराखंड देवभूमि है। 

यहां पंच प्रयाग में दर्शन से जीवन में उल्लास आता है।


ये प्रमुख पंच प्रयाग हैं विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग और देवप्रयाग।


यह पंच प्रयाग उत्तराखंड की मुख्य नदियों के संगम पर हैं। 

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नदियों का संगम बहुत ही पवित्र माना जाता है। 

इन पंच प्रयागों का पवित्र जल एक साथ अलकनंदा और भगीरथी का जल भगवान श्रीराम की तपस्थली देवप्रयाग में मिलता है और यहीं से भगीरथी और अलकनंदा का संगम गंगा के रूप में अवतरित होता है। 


उत्तराखंड के हिमालय के क्षेत्र के पंच प्रयाग यानी संगम को सबसे पवित्र माना गया है, क्योंकि गंगा, यमुना सरस्वती और उनकी सहायक नदियों का उत्तराखंड देवभूमि उद्गम स्थल है। 

जिन जगहों पर इनका संगम होता है उन्हें प्रमुख तीर्थ माना जाता है। 

जिनमें स्नान का विशेष महत्व है और इन्हीं संगम स्थलों पर पूर्वजों के मोक्ष के लिए श्राद्ध तर्पण भी किया जाता है।


विष्णुप्रयाग :


बद्रीनाथ से होकर निकलने वाली विष्णु प्रिया अलकनंदा नदी और धौली गंगा नदी का जोशीमठ के नजदीक जिस स्थान पर मिलन होता है इन दोनों नदियों के उस पवित्र संगम को विष्णु प्रयाग कहते हैं। 

इस पवित्र संगम पर भगवान विष्णु का प्राचीन मंदिर है। 

यह या पवित्र संगम तल से 1372 मीटर की ऊंचाई पर है। 

स्कंदपुराण में विष्णुप्रयाग की महिमा बताई गई है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार इस संगम की प्रमुख नदियों धौलीगंगा और अलकनंदा में पांच-पांच कुंड हैं। 

यहीं से सूक्ष्म बदरिकाश्रम प्रारंभ होता है। 

इसी स्थान पर दाएं जय और बाएं विजय दो पर्वत स्थित हैं, जिन्हें विष्णु भगवान के द्वारपालों के रूप में जाना जाता है।


नंदप्रयाग


अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों के संगम को नंदप्रयाग कहते हैं। 

यह समुद्र तल से 2805 फुट की ऊंचाई पर है। 

पौराणिक कथा के मुताबिक इस स्थान पर मंदाकिनी और अलकनंदा के संगम स्थल पर नंद महाराज ने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए और पुत्र की प्राप्ति की कामना के लिए कठोर तप किया था। 

यहां पर नंदादेवी का दिव्य और भव्य मंदिर है। 

नन्दा का मंदिर, नंद की तपस्थली एवं नंदाकिनी के संगम के कारण इस स्थान का नाम नंदप्रयाग पड़ा।


कर्णप्रयाग


अलकनंदा तथा पिण्डर नदियों का संगम स्थल कर्णप्रयाग के नाम से विख्यात है। 

पिण्डर नदी को कर्ण गंगा भी कहा जाता है। 

इस लिए इस तीर्थ संगम का नाम कर्ण प्रयाग पडा। यहां पर उमा मंदिर और कर्ण मंदिर स्थित है। 

संगम स्थल पर मां भगवती उमा का अत्यंत प्राचीन मंदिर है। 

कहते हैं कि यहां पर दानवीर कर्ण ने कठोर तपस्या की थी और यहां पर संगम से पश्चिम दिशा की तरफ शिलाखंड के रूप में दानवीर कर्ण की तपस्थली और मन्दिर हैं। 

कर्ण की तपस्थली होने के कारण ही यह पवित्र पावन स्थान कर्णप्रयाग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।


रुद्रप्रयाग


मंदाकिनी तथा अलकनंदा नदियों के संगम पर रुद्रप्रयाग स्थित है। 

संगम स्थल क्षेत्र में चामुंडा देवी व रुद्रनाथ मंदिर है। 

मान्यता है कि नारद मुनि ने इस पर संगीत के रहस्यों को जानने के लिये रुद्रनाथ महादेव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया था। 

पौराणिक मान्यता है कि यहां पर ब्रह्मा की आज्ञा से देवर्षि नारद ने कई वर्षों तक भगवान शंकर की तपस्या की थी भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर नारद को सांगोपांग गांधर्व शास्त्र विद्या से पारंगत किया था। 

यहां पर भगवान शंकर का रुद्रेश्वर नामक लिंग है। 

यहीं से केदारनाथ के लिए तीर्थ यात्रा शुरू होती है।


देवप्रयाग


देवप्रयाग में अलकनंदा तथा भागीरथी नदियों का संगम है। 

देवप्रयाग समुद्र तल से 1500 फुट की ऊंचाई पर है। 

गढ़वाल क्षेत्र में भगीरथी नदी को सास तथा अलकनंदा नदी को बहू कहा जाता है। 

देवप्रयाग में शिव मंदिर तथा रघुनाथ मंदिर हैं। 

रघुनाथ मंदिर द्रविड़ शैली से निर्मित है। 

देवप्रयाग को सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है। 

स्कंद पुराण के केदारखंड में इस तीर्थ ब्रह्मपुरी क्षेत्र कहा गया है लोक कथाओं के अनुसार देवप्रयाग में देव शर्मा नामक ब्राह्मण ने सतयुग में निराहार सूखे पत्ते चबाकर तथा एक पैर पर खड़े रहकर कई वर्षों तक कठोर तप किया और भगवान विष्णु के दर्शन कर वर प्राप्त किया।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 


गुरु और शिष्य :

 || गुरु और शिष्य ||


गुरु और शिष्य :


ज्ञान हमेशा झुककर ही हासिल किया 

 जा सकता है खुद को ज्ञानी समझने से नहीं।।


एक शिष्य गुरू के पास आया। 

शिष्य पंडित था और प्रसिद्ध भी, गुरू से भी ज्यादा। 

सारे शास्त्र उसे कंठस्थ थे। 

समस्या यह थी कि सभी शास्त्र कंठस्थ होने के बाद भी वह सत्य की खोज नहीं कर सका था। 

ऐसे में जीवन के अंतिम क्षणों में उसने गुरू की तलाश शुरू की। 

संयोग से गुरू मिल गए। वह उनकी शरण में पहुंचा।




A&S Ventures Gold Plated Copper Rahu Yantra (Golden, 4 x 4 Inches),Home Puja

https://amzn.to/43C5CHU

गुरू ने पंडित की तरफ देखा और कहा, तुम लिख लाओ कि तुम क्या-क्या जानते हो। 

तुम जो जानते हो, फिर उसकी क्या बात करनी है। 

तुम जो नहीं जानते हो, वह तुम्हें बता दूंगा।'  

शिष्य को वापस आने में सालभर लग गया, क्योंकि उसे तो बहुत शास्त्र याद थे।

वह सब लिखता ही रहा, लिखता ही रहा। 

कई हजार पृष्ठ भर गए। पोथी लेकर आया। 

गुरू ने फिर कहा, 'यह बहुत ज्यादा है। 

मैं बूढ़ा हो गया। 

मेरी मृत्यु करीब है। 

इतना न पढ़ सकूंगा। 

तुम इसे संक्षिप्त कर लाओ, सार लिख लाओ।


पंडित फिर चला गया। 

तीन महीने लग गए। 

अब केवल सौ पृष्ठ थे। 

गुरू ने कहा, मैं  'यह भी ज्यादा है। 

इसे और संक्षिप्त कर लाओ।' 

कुछ समय बाद शिष्य लौटा। 

एक ही पन्ने पर सार - सूत्र लिख लाया था, लेकिन गुरू बिल्कुल मरने के करीब थे। 

कहा, 'तुम्हारे लिए ही रूका हूं। 

तुम्हें समझ कब आएगी ? 

और संक्षिप्त कर लाओ।' 

शिष्य को होश आया। 

भागा दूसरे कमरे से एक खाली कागज ले आया। 

गुरू के हाथ में खाली कागज दिया। 

गुरू ने कहा, 'अब तुम शिष्य हुए। 

मुझ से तुम्हारा संबंध बना रहेगा।' 

कोरा कागज लाने का अर्थ हुआ, मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं। 

जो ऐसे भाव रख सके गुरू के पास, वही शिष्य है।


निष्कर्ष: -


गुरू तो ज्ञान - प्राप्ति का प्रमुख स्त्रोत है, उसे अज्ञानी बनकर ही हासिल किया जा सकता है। 

पंडित बनने से गुरू नहीं मिलते।


व्यक्ति जिस शक्ति और ऊर्जा के साथ पैदा होता है,वो उसके जीवन के विकास के लिये होती है। 

जो उसे औरों से अलग बनाती है।

पर जाने अनजाने व्यक्ति अपनी ऊर्जा को बेमतलब के लडाई - झगड़ो और मन मुटावों में लगा कर अपना समय और ऊर्जा दोनों को व्यर्थ करता रहता है। 

यदि व्यक्ति अपनी ऊर्जा को सही से उपयोग करना सीख जायें तो उसके जीवन की आधी से ज्यादा समस्याएं वैसे ही समाप्त हो जाती है।

व्यक्ति अपनी ऊर्जा को सही दिशा देकर खुद के जीवन को बेहतरीन तरीके से बिता सकता है,और दूसरों के लिये प्रेरणा स्त्रोत भी बन सकता है। 

पर उसके लिए विवेकशीलता बहुत जरूरी है।

शरीरं स्वरूपं नवीनं कलत्रं

धनं मेरुतुल्यं यशश्चारु चित्रम् ।


हरेरङ्घ्रिपद्मे मनश्चेन्न लग्नं 

तत: किं तत: किं तत: किं तत: किम्।।


शरीर चाहे कितना भी सुन्दर हो,पत्नी चाहे कितनी भी मनमोहिनी हो,धन चाहे कितना भी सुमेरु पर्वत की भांति असीम हो और सारे संसार में चाहे कितना भी नाम प्रख्यात हो चुका हो। 

लेकिन जब तक जीवन प्रदान करने वाले श्रीहरि के चरण कमलों में मन नहीं लगा,तब तक क्या प्राप्त किया ? 

क्या पाया ? 

अर्थात् सब व्यर्थ  है!


नीरोग रहना, ऋणी न होना,


परदेस में न रहना, अच्छे लोगों के साथ मेल होना,

 

अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निडर होकर रहना-


ये छः मनुष्य लोक के सुख हैं।


कमल का कीचड़ में खिलना प्रकृति का शाश्वत नियम है, कीचड़ में कमल का खिलना कीचड़ की किस्मत नही अपितु कमल की स्वयं सिद्धता होती है यदि आपमें क्षमता है कमल जैसे खिलने की तो कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप किन लोगों के बीच काम कर रहें हैं।

आप अपनी प्रतिभा के दम पर विकट परिस्थितियों में भी अपने आचरण की सौन्दर्यता के गुण के साथ,अपनें मूल्य को बरकरार रखते हुए भी अपना अस्तित्व स्थापित कर सकतें हैं। 

कीचड़ या विपरित स्थिति को दोष देने की जगह उसे उपयोगी बना सकतें हैं। 

यदि जीवन में सच में श्रेष्ठ होना है कमल जैसे खिलना है,तो कीचड़ से परहेज न करें बल्कि स्वयं को साबित करके बतायें।

जैसे पारस और लोहे को टकराते रहो तो पहले लोहे पर लगी हुई मिट्टी, जंग आदि व्यवधान दूर होंगे और बाद में स्पर्श होने पर लोह स्वर्ण बन जाएगा। 

बस इसी प्रकार बार - बार के सत्संग से परम सेवा से पापरुपी मल दूर हो जाएगा और अन्त में कल्याण हो जाएगा


जिस प्रकार शुद्ध लोहे को ही चुंबक खिचता है अपने तरफ उसी प्रकार शुद्ध जीवात्मा ही वास्तविक महापुरुषों के तरफ खिंचा चला आता है और सहजता से परमात्मा की प्राप्ति कर पाता है

 निष्काम भाव से की गई  सेवा करने वाले साधक सांसारिक राग द्वेष से मुक्त हो कर शुद्ध हो जाते हैं और परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर सरलता से आगे बढ़ते चले जाते हैं*


सेवा अमूल्य सेवा है जो बहुत बड़े सौभाग्य से प्राप्त होती है।भगवान की कृपा से प्राप्त होती है

सेवा का फल निष्फल नही जाता


*गुरु घर में एक नौ साल का लडका 

बहुत भाग भाग कर प्रेम से सेवा कर रहा था*

*उस लडके को सेवा करते हुए

 संत महापुरुष देख रहे थे। उन्होंने एक

सेवादार को उस लडके को बुलाने भेजा। 

उस लडके ने सेवादार भाई को उसके साथ 

जाने से मना कर दिया, 

उसने सेवादार भाई को कहा कि जिनकी

आज्ञा से मैं यहाँ पर सेवा कर रहा हूँ वो

अभी यहाँ नही है, उनकी आज्ञा के बिना मै आपके साथ नही चल सकता। यही बात सेवादार भाई ने महापुरुषों को बताई,

थोडे समय बाद जब लडके को सेवा पर

लगाने वाले भगत जी वापिस आये तो

उस सेवादार भाई ने सारी बात बताई। 

वो तुरंत उस लडके के पास गये और 

उसे संत महापुरुषों के पास ले गये*


*संत महापुरुषों ने एक पैन लेकर उस 

लडके के माथे पर 0 लिख दिया। 

ये देखकर सभी सेवादार महापुरुषों से पूछने 

लगे कि हम सब को इस 0 का राज बताए।


सभी की जिज्ञासा को शाँत करने के लिए संत महापुरुषों ने कहा कि इस लडके की आयु सिर्फ नौ साल थी, मगर इस लडके ने गुरु-घर की सेवा बहुत लगन और प्रेम से की है, 

इसकी सेवा से खुश होकर सतगुरु की 

दया मेहर से अब इस लडके की 

आयु 90 साल की हो गई है*


*इसलिए सेवा बहुत अनमोल है, 

हमे सेवा की कद्र करनी चाहिए।

 जब भी सेवा मिले इसे प्रभु  की दया 

समझ कर करनी चाहिए। क्या पता कौन

 सा कर्म कौन सी सेवा करके कट जाना है ।

 सेवा के महत्व को समझना चाहिए।


सकारात्मक सोच &सकारात्मक परिणाम :


पुराने समय की बात है, एक गाँव में दो किसान रहते थे। दोनों ही बहुत गरीब थे, दोनों के पास थोड़ी थोड़ी ज़मीन थी, दोनों उसमें ही मेहनत करके अपना और अपने परिवार का गुजारा चलाते थे।


अकस्मात कुछ समय पश्चात दोनों की एक ही दिन एक ही समय पर मृत्यु हो गयी। यमराज दोनों को एक साथ भगवान के पास ले गए। उन दोनों को भगवान के पास लाया गया। 


भगवान ने उन्हें देख के उनसे पूछा, "अब तुम्हें क्या चाहिये, तुम्हारे इस जीवन में क्या कमी थी, अब तुम्हें क्या बना कर मैं पुनः संसार में भेजूं।”


भगवान की बात सुनकर उनमें से एक किसान बड़े गुस्से से बोला, ” हे भगवान! आपने इस जन्म में मुझे बहुत घटिया ज़िन्दगी दी थी। 

आपने कुछ भी नहीं दिया था मुझे। 

पूरी ज़िन्दगी मैंने बैल की तरह खेतो में काम किया है, जो कुछ भी कमाया वह बस पेट भरने में लगा दिया, ना ही मैं कभी अच्छे कपड़े पहन पाया और ना ही कभी अपने परिवार को अच्छा खाना खिला पाया। 

जो भी पैसे कमाता था, कोई आकर के मुझसे लेकर चला जाता था और मेरे हाथ में कुछ भी नहीं आया। 

देखो कैसी जानवरों जैसी ज़िन्दगी जी है मैंने।”


उसकी बात सुनकर भगवान कुछ समय मौन रहे और पुनः उस किसान से पूछा, "तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हें क्या बनाऊँ।”


भगवान का प्रश्न सुनकर वह किसान पुनः बोला, "भगवन आप कुछ ऐसा कर दीजिये, कि मुझे कभी किसी को कुछ भी देना ना पड़े। मुझे तो केवल चारों तरफ से पैसा ही पैसा मिले।”


अपनी बात कहकर वह किसान चुप हो गया। 

भगवान ने उसकी बात सुनी और कहा, "तथास्तु, तुम अब जा सकते हो मैं तुम्हे ऐसा ही जीवन दूँगा जैसा तुमने मुझसे माँगा है।”


उसके जाने पर भगवान ने पुनः दूसरे किसान से पूछा, "तुम बताओ तुम्हें क्या बनना है, तुम्हारे जीवन में क्या कमी थी, तुम क्या चाहते हो?”


उस किसान ने भगवान के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा, "हे भगवन। 

आपने मुझे सबकुछ दिया, मैं आपसे क्या मांगू। आपने मुझे एक अच्छा परिवार दिया, मुझे कुछ जमीन दी जिसपर मेहनत से काम करके मैंने अपने परिवार को एक अच्छा जीवन दिया। 

खाने के लिए आपने मुझे और मेरे परिवार को भरपेट खाना दिया। 

मैं और मेरा परिवार कभी भूखे पेट नहीं सोया। 

बस एक ही कमी थी मेरे जीवन में, जिसका मुझे अपनी पूरी ज़िन्दगी अफ़सोस रहा और आज भी हैं। 

मेरे दरवाजे पर कभी कुछ भूखे और प्यासे लोग आते थे, भोजन माँगने के लिए, परन्तु कभी - कभी मैं भोजन न होने के कारण उन्हें खाना नहीं दे पाता था,  और वो मेरे द्वार से भूखे ही लौट जाते थे। 

ऐसा कहकर वह चुप हो गया।”


भगवान ने उसकी बात सुनकर उससे पूछा, ”तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हें क्या बनाऊँ।


किसान भगवान से हाथ जोड़ते हुए विनती की, "हे प्रभु! आप कुछ ऐसा कर दो कि मेरे द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा ना जाये।” 


भगवान ने कहा, “तथास्तु, तुम जाओ तुम्हारे द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा नहीं जायेगा।”


अब दोनों का पुनः उसी गाँव में एक साथ जन्म हुआ। दोनों बड़े हुए।


पहला व्यक्ति जिसने भगवान से कहा था, कि उसे चारों तरफ से केवल धन मिले और मुझे कभी किसी को कुछ देना ना पड़े, वह व्यक्ति उस गाँव का सबसे बड़ा भिखारी बना। 

अब उसे किसी को कुछ देना नहीं पड़ता था, और जो कोई भी आता उसकी झोली में पैसे डालके ही जाता था।


और दूसरा व्यक्ति जिसने भगवान से कहा था कि उसे कुछ नहीं चाहिए, केवल इतना हो जाये की उसके द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा ना जाये, वह उस गाँव का सबसे अमीर आदमी बना।


हर बात के दो पहलू होते हैं

सकारात्मक और नकारात्मक,

अब ये आपकी सोच पर निर्भर करता है कि आप चीज़ों को नकारत्मक रूप से देखते हैं या सकारात्मक रूप से। 

अच्छा जीवन जीना है तो अपनी सोच को अच्छा बनाइये, चीज़ों में कमियाँ मत निकालिये बल्कि जो भगवान ने दिया है उसका आनंद लीजिये और हमेशा दूसरों के प्रति सेवा का भाव रखिये !!!

क्यों  विलासी  भावना  से

तुम मलिन मन कर रही हो ?


प्रेम  दर्शन  का विषय  है

 तुम  प्रदर्शन  कर रही  हो !


क्या नही तुमने सुनी है प्रीत की पावन कहानी ?कृष्ण की बनकर रही हैं  राधिका , मीरा दीवानी ?

राम ने  मां जानकी हित  सिंधु पर था सेतु बाँधा।क्या नही तुमने पढ़ी है शिव सती की पुण्य गाथा ?


तुम समय के केंद्र में क्यों

व्यर्थ नर्तन कर रही हो ?


प्रेम दर्शन  का  विषय है

तुम प्रदर्शन कर रही हो !


प्रीत के  सच्चे उपासक  प्रेयसी सब  जानते हैं। 

एक स्नेहिल  दृष्टि को वो  सृष्टि अपनी  मानते हैं।

हाथ  के स्पर्श तक को पाप की संज्ञा बताते।

आह ! 

ये निश्छल रसिक अब हैं कहां जीवन बिताते ?


क्यों प्रणय की इस प्रथा का

 मान  मर्दन  कर  रही  हो ?


प्रेम  दर्शन  का  विषय  है

 तुम  प्रदर्शन  कर  रही  हो !


जानते हो , इस सदी के  ये युगल  क्या  कर रहे हैं ?

चेतना  की  पीठि का  पर  वासना  को  धर  रहे  हैं।

प्रेमियों ! सच  में  तुम्हारी मर चुकी संवेदना  है।

नेह में क्यों देह का ही ध्येय  तुमको भेदना है ?


नेह  से  निर्मित  भवन  का

 क्यों प्रभंजन कर रही हो ?


प्रेम  दर्शन   का   विषय  है

 तुम प्रदर्शन  कर  रही हो !


धर्मात्मा सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर यिद।पौरुषेचाप्रतिद्वन्द्वः शरणं जहि रावणिम्॥


अर्थात् हे मेरे प्रिय बाण, यदि यह सत्य है कि दशरथ जी के पुत्र राम ने अपने मन में केवल पुण्य केन्द्रित किया है और यदि यह भी सत्य है कि वे सदैव अपने वचनों की ओर अग्रसर हैं और यदि वे अपने कौशल में किसी से पीछे नहीं हैं तो इन्द्रजीत को नष्ट कर दो। 

इस श्लोक के मन में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अधर्मी और विधर्मी इसमें एक कुतर्क जोड़ देते हैं कि क्या कोई दुर्जन व्यक्ति भी इन शब्दों के साथ किसी सज्जन व्यक्ति पर वार करके उसकी हत्या करने में सफल हो सकता है ? 

नहीं, केवल लक्ष्मण धार्मिक पुरुष के रूप में इन शब्दों में राममंत्र की शक्ति समाहित कर किसी दुर्जन का वध कर सकती है।

   

   || जय श्री राम जय हनुमान ||

           || जय श्री हरि विष्णु ||

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 

|| जय गुरुदेव प्रणाम आपको ||

सखियों के श्याम वास्तविक मूल्य !

सखियों के श्याम वास्तविक मूल्य !


 श्रीहरिः


सखियों के श्याम :


(अकथ कथा)


श्यामसुन्दरसे भी नहीं मिलती अब ?'— सब कुछ सुनकर श्रियाने पूछा। 

मैंने 'नहीं' मैं सिर हिला दिया। 


'यह क्या किया तूने, हम सबमें एक तू ही तो सबसे मोटी, गदबदी, नटखट और तीखी-लड़ाकू थी। 

इतने पर भी श्याम सुन्दर से तेरी जाने कैसे पटती थी।


 तेरा अधिकार और हिम्मत देख हम सब चकित थी। 

लड़की होनेपर भी तू हमारे साथ कम ही रहती या तो अकेली खेलती या फिर श्यामसुन्दरके साथ।'


'जब कभी मैं तेरे साथ होती, संकोचके मारे सिर झुकाये खड़ी ही रह जाती। 

तुझसे छीन वे फल या मिठाई मुझे देते और तू दौड़कर मुझसे छीन लेती। 

वे तुझसे रूठकर चल देते, तब तू अपने हाथकी वस्तु मुँहमें डाल उन्हें मनाने के बदले दौड़कर उनकी पीठपर लटक जाती और कानसे मुख लगाकर जाने क्या कहती कि वे खिलखिला पड़ते।'




Hawai 24K Gold Plated Pocket Size Self Adhesive Ashta Laxmi Shree Yantra for Home Office Puja Ghar Worship, 8.5x6cm SFDI011

https://amzn.to/43o86JQ


उन्हें जाते देख मैं व्याकुल हो जाती । 

तेरी हिम्मत देख आश्चर्यमें डूब जाती और उन्हें प्रसन्न देख प्राण सरस जाते। 

इनकी दी हुई वस्तु तू खा गयी, यह पीड़ा भूलकर मैं प्रसन्न हो जाती कि तू उन्हें लौटा लाई है। 


तू उनकी पीठपर लदी हुई पाँव उछालती हुई कभी गले और कभी कानमें मुख लगा फुर्र करती — 

वे रोमाँचित हो हँसते हुए अपने गलेमें पड़े तेरे दोनों हाथ अपने हाथोंसे पकड़े गिरने से बचाते हुए कहते—

'उतर नीचे, नहीं तो अभी गिरा दूँगा।'


 'उँ हूँ! श्रियाके पास ले चलो।'


'अब श्रियाको चढ़ाओ।' —

मेरे पास उतरकर तू कहती।


तेरी बात सुन मैं संकोचमें गड़ जाती, मेरी दृष्टि उनके लाल-लाल चरणोंपर जाती और संकेतसे तुझे दिखाकर कहती— 

'देख चरण थककर लाल हो गयी है।'


..तू धप्पसे नीचे बैठकर कहती—

'आओ कान्ह जू! अब मैं तुमको उठाकर ले चलती हूँ।'


 'नहीं मुझे कहीं नहीं जाना, मैं यहीं खेलूँगा।' — 

वे वहीं बैठ जाते।


'देखो न तुम्हारे चरणतल कैसे अरुण हो गये हैं।' 

तू उनका हाथ खींचती— 

'आओ मेरी पीठपर चढ़ो।'


'नहीं इला! मुझे कुछ नहीं हुआ, तू कहे तो अभी तुम दोनोंको उठाकर घरतक पहुँचा सकता हूँ।'


' श्रिया! तू समझा न इस हठीली को।' 

'तुम्हारे चरण ही अरुण नहीं हुए, भालपर भी श्रमबिंदु झलक आये हैं। '— 

मैं कहती।


" आ इला! अपने दोनों इनके पद संवाहन करें।"


तू एकदमसे झपटकर उनका एक पद अपनी गोदमें धर लेती। 

'अहा, केवल अरुण ही नहीं, उष्ण भी हो गये हैं। '— 

कहती हुई कभी उनके चरणोंको कपोलोंसे, होठों, आँखों और हृदयसे लगा लेती। 

मैं मुग्ध-सी तेरे इस मुक्त व्यवहारको देखती रहती।


श्रियाकी बातें सुनते हुए इला के नेत्र मानो निर्झर बन गये, उसने श्रियाकी हथेलियाँ अपने हृदयसे लगा लीं।


"अहा तेरे हाथ कितने शीतल है बहिन! उन चरणोंकी शीतलता, स्पर्शकी राह तेरे हाथों में उतर आयी है ?"


'चल बहिन उसी स्थानपर चलें।' — 

श्रियाने इला का हाथ पकड़ उठाना चाहा।


'क्या करूँगी बहिन! वहाँ जाकर अब न मेरा वह हीरक जटित बचपन रहा— 

न हृदयमें वह उल्लास। 

भीतर शीतल-कठिन दाह सुलग उठा है। 

जाने यह कैसा रोग है बहिन! 

उनके दर्शन - स्पर्शको प्राण तरसते है, पर पद उस ओर उठते नहीं। 

मेरी सारी हिम्मत जाने कहाँ चुक गयी है। 


एक बार जैसे-तैसे साहस किया भी, तो देखा-तमालसे पीठ टिकाये हाथमें वंशी लिये कान्ह जू खड़े किसीकी प्रतिक्षा कर रहे हैं। 

सम्भवतः वे तेरी प्रतिक्षा कर रहे थे अन्यथा मैं तो सदा उनसे झगड़ती रही। 

मारती–काटती सदा अपनी ही बातपर अड़नेवाली हठीली और वे....!!'– 

इलाकी वाणी रुद्ध हो गयी।


वह स्थिर दृष्टि से यमुनाकी ओर देखते हुए गद्गद कंठसे कहने लगी — 

‘वे सदा मेरी ही रुचि रखते। 

वन से गुंजा, गेरू, पंख, पुष्प और रंग-बिरंगे पाहन लाते — 

इला देख ! 

तेरे लिये क्या लाया हूँ।'


'व्रजमें ऐसा कौन है बहिन! जो उनके हाथसे एक रज कणिका पाकर भी अपनेको धन्य न समझे। 

किंतु मैं अधम; अपनी इच्छित वस्तु न पाकर मुँह फुलाकर चल देती। 

वे दौड़कर सम्मुख आकर कहते—

'यो रूठ मत इला ! 

कह न, तुझे क्या चाहिये, मैं कल अवश्य ले आऊँगा। 

यह सब मुझे अच्छा लगा इस लिये ले आया।'


मैंने तो शुक - पिच्छ माँगा था, तुम हंस - पिच्छ क्यों ले आये?'—

मैं रो पड़ती।


'रो मत, तू मत रो! कलकी कौन बात, मैं अभी ला देता हूँ शुक-पिच्छ ।' — 

वे मुझे गोदमें भर लेते। 

व्याकुल होकर कहते— 

'मैं भूल गया री! मैया कहती है मैं बड़ा भोला हूँ, इसीसे याद नहीं रहता। 

तू यही ठहर, जाना नहीं तुझे मेरी सौगन्ध ! 

मै अभी शुक –

पिच्छ लेकर आता हूँ।'


वे शुक- पिच्छ ढूंढ़ने चले गये और मैं उनकी लायी वस्तुओंसे खेलने लगी। 

बार-बार लगता — 

इतनी देर हो गयी, कहाँ गये श्याम जू ?' 


'ए इला! देख मिल गया शुक–पिच्छ ।'– 

उन्होंने दूरसे ही पुकारा |


मैं दौड़कर उनसे लिपट गयी, आँखोंमें आँसू भर आये। 

उन्होंने पूछा—

'क्या हुआ तुझे ? देख वह शुक- पिच्छ.... ।'


 'इतनी दूर क्यों गये इसे ढूंढ़ने! क्यों गये तुम ?'


'दूर कहाँ गया! उस पलाशके नीचे तो मिला मुझे। 


ले, अच्छा है न?" 


'मुझे यहीं नहीं; तुम्हीं चाहिये !'


'अब यह 'तुम्हीं' क्या है? कलतक ढूंढ़ लाऊँ तो चलेगा? किसीसे पूछना पड़ेगा कि 'तुम्ही' क्या चीज है।' 


चिढ़कर दोनों हाथों की मुट्ठी बाँध उनके वक्षपर रखते हुए बोली— 'तुम, तुम, तुम कान्ह जू चाहिये!'


 'अरे बावरी! मैं तो तेरो ही हूँ।' —वे हँस पड़े।


'नहीं! मैं तुम्हारी हूँ।'


'नहीं! मैं तेरो हूँ।'


बहुधा इस विवादका निर्णय मेरी मैया अनन्दा या बाबा सुवीर करते। 


दोनों एक ही निर्णय देते–'तुम दोनों एक-दूसरेके हो।'


मैं बाबा—मैयासे भी झगड़ती। कहा—

'यदि ऐसा होता, तो हम साथ रहते न! जैसे तुम रहते हो।'


'वह तो ब्याह होनेपर रहोगे बेटी!'– 

बाबा समझाते।


 ‘तो आज—

अभी कर दो हमारा ब्याह ।'–

मैं बाबाका हाथ खींचकर आग्रह करती।


'अभी कैसे हो सकता है भला! ब्याहके लिये बहुत बड़ा आयोजन करना पड़ता है। 

कान्ह जू व्रजराज कुँवर है, व्रजराजकी इच्छा होनेपर ही ब्याह हो पायेगा। 

शाण्डिल्य ऋषि मुहूर्त बतायेंगे— 

बहुत बड़ी देर लगती है इन सब कार्यों में। 

यह सब होगा, तबतक तुम दोनों भी बड़े हो जाओगे।'


'आह! यह बड़ा होना भी कैसा दुःखदायी है। 

कभी मैं बड़ी होनेके लिये उतावली हो उठी थी। 

नित्य बाबा मैयासे, श्याम जू से पूछती — 

आज मैं बड़ी हो गयी न ?'


'तुझे बड़ा होना अच्छा लगता है ?'— 

वे पूछते ।


 'हाँ, फिर हमारा ब्याह होगा न, इसीसे।'


'तू तो झगड़ती है, मैं तुझसे ब्याह नहीं करूँगा।' 


'मैं तो करूँगी! और तुमसे ही ब्याह करूंगी।'


'मैं नहीं करूंगा।'


'तुम चिढ़ाते हो, इसीसे तो झगड़ती हूँ। 

नहीं खिजाओगे तो नहीं लहूँगी। 

और बड़े होनेपर थोड़े ही कोई लड़ता है भला!'


'अहा, कहाँ गये वे दिन वे रातें, क्या सोचते होंगे वे ?"


 'चल उठ न इला!'— श्रियाने हाथ थामकर उठा दिया।


'वहाँ कोई है श्रिया !"


श्यामसुंदर है ! तेरी प्रतिक्षा कर रहे हैं। चल पगली! खड़ी क्यों रह गयी? 

वे तेरी बाट देखते हैं बहिन!'


'मैं तो महा अपदार्थ हूँ, कैसे अपना मुँह दिखाऊँ उन्हें! तू जा, मैं यहाँ बैठती हूँ।'


श्रियाने मुझे बैठने नहीं दिया, हाथ पकड़कर खींच ले चली। 

हृदयकी अवस्था क्या कहूँ! दर्शन—

स्पर्शको प्राण व्याकुल थे; पर लज्जा—

संकोच, बचपनका दुस्साहस पाँव आगे बढ़ने नहीं देते थे।


मैंने दूरसे ही देखा — 

सन्ध्याके अरुण प्रकाशमें उनकी कैसी शोभा है— 

शीतल सान्ध्य समीरसे पीतपट फहरा रहा है, अलकें बार-बार मुख कमलपर घिर आती हैं। 

गौ-रज मण्डित अलकें-पलकें, फेंटमें बंसी, हाथमें लकुट, सर्वाङ्ग धातुचित्रित, पुष्पाभरण-सज्जित, कुण्डलोंकी आभासे दमकते कपोल, अन्वेषण तत्पर दीर्घदृग! वह सिंह ठवन, विशाल वक्ष, बाहु..... बैरिन चेतना साथ छोड़ गयी।


जय श्री राधे....

वास्तविक मूल्य !


बहुत समय पहले की बात है। 

उपरमालिया गाँव में एक बूढ़ा व्यक्ति रहता था। उसके दो बेटे थे। 

बूढ़ा वस्तुओं के उपयोग के मामले में कंजूस था और उन्हें बचा-बचा कर उपयोग किया करता था।


उसके पास एक पुराना चांदी का पात्र था। वह उसकी सबसे मूल्यवान वस्तु थी। 

उसने उसे संभालकर संदूक में बंद कर रखता था। 

उसने सोच रखा था कि सही अवसर आने पर ही उसका उपयोग करेगा।


एक दिन उसके यहाँ एक संत आये। 

जब उन्हें भोजन परोसा जाने लगा, तो एक क्षण को बूढ़े व्यक्ति के मन में विचार आया कि क्यों न संत को चांदी के पात्र में भोजन परोसूं? 

किंतु अगले ही क्षण उसने सोचा कि मेरा चांदी का पात्र बहुत कीमती है। 

गाँव-गाँव भटकने वाले इस संत के लिए उसे क्या निकालना? 

जब कोई राजसी व्यक्ति मेरे घर पधारेगा, तब यह पात्र निकालूंगा। 

यह सोचकर उसने पात्र नहीं निकाला।


कुछ दिनों बाद उसके घर राजा का मंत्री भोजन करने आया। 

उस समय भी बूढ़े व्यक्ति ने सोचा कि चांदी का पात्र निकाल लूं। 

किंतु फिर उसे लगा कि ये तो राजा का मंत्री है। 

जब राजा स्वयं मेरे घर भोजन करने पधारेंगे, तब अपना कीमती पात्र निकालूंगा।


कुछ दिनों के बाद स्वयं राजा उसके घर भोजन के लिए पधारे। 

राजा उसी समय पड़ोसी राज्य से युद्ध हार गए थे और उनके राज्य के कुछ हिस्से पर पड़ोसी राजा ने कब्जा कर लिया था। भोजन परोसते समय बूढ़े व्यक्ति ने सोचा कि अभी-अभी हुई पराजय से राजा का गौरव कम हो गया है। 

मेरे पात्र में किसी गौरवशाली व्यक्ति को ही भोजन करना चाहिए। 

इसलिए उसने चांदी का पात्र नहीं निकाला।


इस तरह उसका पात्र बिना उपयोग के पड़ा रहा। 

एक दिन बूढ़े व्यक्ति की मृत्यु हो गई।


उसकी मृत्यु के बाद उसके बेटे ने उसका संदूक खोला। 

उसमें उसे काला पड़ चुका चांदी का पात्र मिला। 

उसने वह पात्र अपनी पत्नी को दिखाया और पूछा, “इसका क्या करें?”


पत्नी ने काले पड़ चुके पात्र को देखा और मुँह बनाते हुए बोली, “अरे इसका क्या करना है। 

कितना गंदा पात्र है। इसे कुत्ते को भोजन देने के लिए निकाल लो।”


उस दिन के बाद से घर का पालतू कुत्ता उस चांदी के पात्र में भोजन करने लगा। 

जिस पात्र को बूढ़े व्यक्ति ने जीवन भर किसी विशेष व्यक्ति के लिए संभालकर रखा, अंततः उसकी ये गत हुई।


बन्धुओ किसी वस्तु का मूल्य तभी है, जब वह उपयोग में लाई जा सके। 

बिना उपयोग के बेकार पड़ी कीमती वस्तुओं का भी कोई मूल्य नहीं। 

इस लिए यदि आपके पास कोई वस्तु है, तो यथा समय उसका उपयोग कर लें।

श्री राधे 🙏🏽पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 🙏🏽 श्री राधे 🙏🏽 श्री राधे 🙏🏽 श्री राधे 🙏🏽


aadhyatmikta ka nasha

एक लोटा पानी।

 श्रीहरिः एक लोटा पानी।  मूर्तिमान् परोपकार...! वह आपादमस्तक गंदा आदमी था।  मैली धोती और फटा हुआ कुर्ता उसका परिधान था।  सिरपर कपड़ेकी एक पु...

aadhyatmikta ka nasha 1