https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: मई 2025

सखियों के श्याम , तुलसीदास और श्री राम मिलन..!

 सखियों के श्याम , तुलसीदास और श्री राम मिलन..!


श्रीहरिः


सखियों के श्याम 


(अकथ कथा)


'इला कहाँ है काकी! दो दिनसे नहीं देखा उसे, रुग्ण है क्या ?' 


'ऊपर अटारी में सोयी है बेटी! 

जाने कहाँ भयो है, न पहले सी खावे — खेले, न बतरावै। 

तू ही जाकर पूछ लाली। 

मुझे तो कुछ बताती ही नहीं।' 


मैंने लेटे - लेटे ही मैया और श्रियाकी बात सुनी। 

श्रिया मेरी एक मात्र बाल सखी है। 

यों तो मैया - बाबा की एकलौती संतान होनेके कारण अकेली ही खेलने - खानेकी आदी रही हूँ, किंतु श्रियाको मेरा और मुझे उसका साथ प्रिय लगता है। 




eSplanade - Latón Radha Krishna - Tamaño grande - Escultura de estatua de ídolo de Radha de latón (21 pulgadas) (21 pulgadas) (color Radha Krishna)

https://amzn.to/45rksSH


यदि एक - दो दिन भी हम आपसमें न मिले, तो उसे जाने कितनी असुविधा होने लगती है कि साँझ - सबेरा कुछ नहीं देखती, भाग आती है घरसे मेरे पास।


सीढ़ियाँ चढ़कर वह मेरे पास आयी और पलंगपर ही बैठ गयी। 

मेरी पीठपर हाथ धरकर बोली- 'क्या हुआ तुझे ? 

ज्वर है क्या ?'


हाथ और ललाट छूकर बोली — 'नहीं ज्वर तो नहीं है, फिर क्या बात है ? 

लेटी क्यों है भला तू ? 

यमुनातट, टेढ़ा - तमाल, वंशीवट सभी स्थान देख लियो! 

कितने दिनसे नहीं मिली तू? 


अरे जानती है; कल जल भर ने को कलशी लेकर माधवी जलमें उतरी तो पता नहीं कहाँसे आकर श्यामसुन्दरने भीतर – ही – भीतर उसका पाँव खींच लिया। 

वह 'अरी मैया' कहती डूबकी खा गयी। 

हम सब घबरायीं, यों कैसे डूब गयी माधवी ? 

तभी श्यामसुन्दर उसे उठाये हुए बाहर निकले, उसकी कलशी लहरों पर नृत्य करती दूर - दूर होती चली गयी । 

ए, इला! 

तू बोलती क्यों नहीं ?'


उसकी बकर – बकर से ऊबकर मैंने पीठ फेर ली, पर माधवी के सौभाग्य ने हृदय से गहरी कराह उठा दी, लाख दबा ने पर भी हलका - सा स्वर मुख से बाहर निकल ही पड़ा।


'क्या है कहीं पीड़ा है ?' – 

श्रियाने पूछा। 

मैंने 'नहीं' में सिर हिला दिया।


'तब क्यों सोई है ? 

उठ चल, टेढ़ा तमाल चले।'


मैं चुप रही।


'ए इला! बोलती क्यों नहीं? 

मुझे नहीं बतायेगी मन की बात ?' 


मैं चुप थी, कैसे क्या कहूँ। 

कैसे किन शब्दोंमें समझाऊँ कि — 'मेरा बचपन मुझसे बरबस छीन लिया गया है। 

उसकी ठौर जिस दस्युने बलात् अधिकृत कर ली है, उससे मैं भयभीत हूँ। 


कौन मानेगा कि सदाकी निर्द्वन्द – निर्भय – निरपेक्ष इला इस आंधी तूफान जैसे दस्युसे भयभीत हो गयी है। 

आह मेरा सोने जड़ा वह बचपन जाने किस दिशामें ठेल दिया गया। 

उसीके साथ मेरा सर्वस्व चला गया....! 

सब कुछ लूट गया मेरा।' 

पुनः गहरी निश्वास छूट गयी।


ए इला! कुछ तो बोल। 

देख न कैसी हो गयी है तू ? 

सोने जैसा तेरा रंग कैसा काला काला हो गया री ?"


एका एक उसके मनमें मान जागा बोली—' 

पर क्यों कुछ कहेगी मुझसे मैं लगती क्या हूँ तेरी ? 

यह तो मैं ही बावरी हूँ कि भीतरकी एक - एक पर्त खोलकर दिखा देती हूँ तुझे। 

यदि परायी न समझती तो क्या स्वयं नहीं दौड़ी आती मेरे पास अपना हृदय - रहस्य सुनाने ?


चलो आज ज्ञात हो गया है कि मैं तेरी कितनी अपनी हूँ।' 

वह व्यथित हो जाने को उठने लगी।


मैंने हाथ बढ़ाकर उसका हाथ थाम लिया, किंतु कहनेको कुछ नहीं सुझा, केवल आँखें झरने लगी। 

यह देख श्रिया मुझसे लिपट गयी- 

'जाने भी नहीं देगी और कुछ कहेगी भी नहीं? 

मैं पाहन हूँ क्या कि यों तुझे रोती देखती बैठी रहूँ? 


उसने भरे कंठसे कहा और अपनी ओढ़नीके आँचलसे मेरे आँसु पोंछते हुए बोली –

‘पहले कुछ खा ले, अन्यथा निश्चित जान ले कि मैं भी अन्न - जल त्याग दूंगी।'


वह मेरा हाथ छुड़ाकर नीचे गयी और भोजन सामग्री लाकर मेरे सम्मुख रख दी- 'चल उठ थोड़ा खा ले नहीं तो....!' 

वाक्य अधूरा छोड़ उसने कौर मेरे मुखमें दिया — 

'तेरे संग खानेकी साध लिये आयी थी, अभी तक मैंने भी कुछ नहीं खाया है। 

जो तू न खाये तो क्या मेरे गले उतरेगा कुछ ?'


आँसुओंकी बरसात के मध्य जैसे - तैसे उसका मन रखने को मैंने कौर निगल लिया और उसे खानेका संकेत किया।


'कैसे खाऊँ ? 

तेरे आँसू तो मेरी भूखको भगाये देत है। 

अरी तू तनिक धैर्य धरे तो मेरा भी खानेका मन बने न !'


ज्यों - त्यों थोड़ा बहुत दोनोंने खाया, हाथ - मुँह धो बर्तन यथास्थान रखकर उसने कहा — 

'चल मेरे साथ।' 


मैंने केवल दृष्टि उठाकर उसकी ओर देखा और चुपचाप साथ चल दी।


यमुना तटपर इस समय कोई नहीं था, घाटकी कुछ सीढ़ियाँ उतरकर उसने मुझे बैठा दिया और एक सीढ़ी नीचे उतरकर वह स्वयं भी अपने दोनों हाथ मेरी गोदमें धरकर बैठ गयी। 

मेरे हाथ पकड़ उसने मेरी ओर देखा, उस दृष्टिका सामना न कर पाकर मैंने पलकें झुका लीं।


भगवान् आदित्य देवी प्रतीचीकी ओर देख मुस्करा दिये और वे महाभागा अपना लज्जारुण मुख झुकाकर भवन द्वारमें नीराजन थाल उठाये ठिठकी रह गयी थी। 


चारों ओरकी वृक्षावलियोंपर पक्षी चहचहा रहे थे। 

कालिन्दी धीमी मन्थर गतिसे बह रही थी शीतल समीर प्रवहमान था, सौन्दर्य सुषमाका अपार वैभव चारों ओर पसरा हुआ था; किंतु यह सब मेरे लिये तनिक भी सुखप्रद नहीं थे। 


जी करता था उठ जाऊँ यहाँसे यमुना जल और गगन- दोनों ही की ओर दृष्टि जाते ही प्राण हाहाकार कर उठते थे। 

भीतर ऐसी टीस उठती कि कहते नहीं बनता। 

पलकें झुकाये मैं बैठी रही।


 'न बोलनकी सौगन्ध खा रखी है?'– 

उसने पूछा।


मैंने आँसू भरी आँखोंसे उसकी ओर देखते हुए 'नहीं' में सिर हिला दिया। 


'तब मैं सुनने योग्य नहीं ?'– 

उसने भरे कंठसे कहा। 

उसकी पलकों पर ओसकण - सी बूंदे तैर उठीं।


मैंने असंयत हो उसे बाँहों में भर लिया, किसी प्रकार मुखसे निकला — 'क्या कहूँ ?'


'मेरी इलाको हुआ क्या है ?'


'तुझे मैं 'इला' दिखायी देती हूँ!'- 

मेरे नेत्र टपकने लगे।


'ऐसा क्यों कहती है सखी ? 

'इला' नहीं तो फिर तू कौन है भला?"


'तेरी 'इला' की हत्यारी हूँ मैं? 

मैंने ही 'इला' को मारा है।' 


'क्या कहती है ? 

भला ऐसी बातमें क्या तुक है। 

तू कौन है कह तो ?' 


'कौन हूँ यह तो नहीं जानती। पर 'इला' मर गयी बहिन! 

तू मुझसे घृणा कर — 

धिक्कार मुझे!'


'अहा, सचमुच तुझे मारनेको जी करता है। 

क्या हुआ, कैसे हुआ; कुछ कहेगी भी कि यों ही बिना सिर-पैरकी बातें करती जायेगी ?" 


'तेरी 'इला' क्या मेरे ही जैसी थी ?'


'चेहरा मोहरा तो वही लगता है, पर यह चुप्पी — गम्भीरता उसकी नहीं लगती। 

वह तो महा - चुलबुली और हँसने - हँसानेवाली थी। 

तू तो दुबली पतली हो गयी है, पहले कैसी मोटी, सदा वस्त्राभूषणोंसे लदी - सजी रहती थी।


एक तू ही तो श्याम सुन्दर से धींगा - मस्ती कर सकती थी। 

ऐसी कैसे हो गयी री तू ? 

बस यही बता दे मुझे।'


जय श्री राधे....


तुलसीदास और श्री राम मिलन :


काशी में एक जगह पर तुलसीदास रोज रामचरित मानस को गाते थे वो जगह थी अस्सीघाट। 

उनकी कथा को बहुत सारे भक्त सुनने आते थे। 

लेकिन एक बार गोस्वामी प्रातःकाल शौच करके आ रहे थे तो कोई एक प्रेत से इनका मिलन हुआ। 

उस प्रेत ने प्रसन्न होकर गोस्वामीजी को कहा कि मैं आपको कुछ देना चाहता हूँ। 

आपने जो शौच के बचे हुए जल से जो सींचन किया है मैं तृप्त हुआ हूँ। 

मैं आपको कुछ देना चाहता हूँ।


गोस्वामीजी बोले – 

भैया, हमारे मन तो केवल एक ही चाह है कि ठाकुर जी का दर्शन हमें हो जाए। 

राम की कथा तो हमने लिख दी है, गा दी है।

पर दर्शन अभी तक साक्षात् नहीं हुआ है। 

ह्रदय में तो होता है पर साक्षात् नहीं होता। 

यदि दर्शन हो जाए तो बस बड़ी कृपा होगी।


उस प्रेत ने कहा कि महाराज! 

मैं यदि दर्शन करवा सकता तो मैं अब तक मुक्त न हो जाता? 

मैं खुद प्रेत योनि में पड़ा हुआ हूँ, अगर इतनी ताकत मुझमें होती कि मैं आपको दर्शन करवा देता तो मैं तो मुक्त हो गया होता अब तक।


तुलसीदास जी बोले – 

फिर भैया हमको कुछ नहीं चाहिए।


तो उस प्रेत ने कहा – 

सुनिए महाराज! मैं आपको दर्शन तो नहीं करवा सकता लेकिन दर्शन कैसे होंगे उसका रास्ता आपको बता सकता हूँ।


तुलसीदास जी बोले कि बताइये।


बोले आप जहाँ पर कथा कहते हो, बहुत सारे भक्त सुनने आते हैं, अब आपको तो मालूम नहीं लेकिन मैं जानता हूँ आपकी कथा में रोज हनुमानजी भी सुनने आते हैं। 

मुझे मालूम है हनुमानजी रोज आते हैं।


बोले कहाँ बैठते हैं?


बताया कि सबसे पीछे कम्बल ओढ़कर, एक दीन हीन एक कोढ़ी के स्वरूप में व्यक्ति बैठता है और जहाँ जूट चप्पल लोग उतारते हैं वहां पर बैठते हैं। 

उनके पैर पकड़ लेना वो हनुमान जी ही हैं।


गोस्वामीजी बड़े खुश हुए हैं। 

आज जब कथा हुई है गोस्वामीजी की नजर उसी व्यक्ति पर है कि वो कब आएंगे? 

और जैसे ही वो व्यक्ति आकर बैठे पीछे, तो गोस्वामीजी आज अपने आसन से कूद पड़े हैं और दौड़ पड़े। 

जाकर चरणों में गिर गए हैं।


वो व्यक्ति बोला कि महाराज आप व्यासपीठ पर हो और मेरे चरण पकड़ रहे हो। 

मैं एक दीन हीन कोढ़ी व्यक्ति हूँ। 

मुझे तो न कोई प्रणाम करता है और न कोई स्पर्श करता है। 

आप व्यासपीठ छोड़कर मुझे प्रणाम कर रहे हो?


गोस्वामीजी बोले कि महाराज आप सबसे छुप सकते हो मुझसे नहीं छुप सकते हो। 

अब आपके चरण मैं तब तक नहीं छोडूंगा जब तक आप राम से नहीं मिलवाओगे। 

जो ऐसा कहा तो हनुमानजी अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट हो गए।


आज तुलसीदास जी ने कहा कि कृपा करके मुझे राम से मिलवा दो। 

अब और कोई अभिलाषा नहीं बची। 

राम जी का साक्षात्कार हो जाए हनुमानजी, आप तो राम जी से मिलवा सकते हो। 

अगर आप नहीं मिलवाओगे तो कौन मिलवायेगा?


हनुमानजी बोले कि आपको रामजी जरूर मिलेंगे और मैं मिलवाऊँगा लेकिन उसके लिए आपको चित्रकूट चलना पड़ेगा, वहाँ आपको भगवन मिलेंगे।


गोस्वामीजी चित्रकूट गए हैं। मन्दाकिनी जी में स्नान किया, कामदगिरि की परिकम्मा लगाई। 

अब घूम रहे हैं कहाँ मिलेंगे? 

कहाँ मिलेंगे? 

सामने से घोड़े पर सवार होकर दो सुकुमार राजकुमार आये। 

एक गौर वर्ण और एक श्याम वर्ण और गोस्वमीजी इधर से निकल रहे हैं। 

उन्होंने पूछा कि हमको रास्ता बता तो हम भटक रहे हैं।


गोस्वामीजी ने रास्ता बताया कि बेटा इधर से निकल जाओ और वो निकल गए। 

अब गोस्वामीजी पागलों की तरह खोजते हुए घूम रहे हैं कब मिलेंगे? 

कब मिलेंगे?


हनुमानजी प्रकट हुए और बोले कि मिले?

गोस्वामीजी बोले – कहाँ मिले?


हनुमानजी ने सिर पकड़ लिया और बोले अरे अभी मिले तो थे। 

जो घोड़े पर सवार राजकुमार थे वो ही तो थे। 

आपसे ही तो रास्ता पूछा और कहते हो मिले नहीं। 

चूक गए और ये गलती हम सब करते हैं। 

न जाने कितनी बार भगवान हमारे सामने आये होंगे और हम पहचान नहीं पाए। 

कितनी बार वो सामने खड़े हो जाते हैं हम पहचान नहीं पाते। 

न जाने वो किस रूप में आ जाये।


गोस्वामीजी कहते हैं हनुमानजी आज बहुत बड़ी गलती हो गई। 

फिर कृपा करवाओ। 

फिर मिलवाओ।


हनुमानजी बोले कि थोड़ा धैर्य रखो। 

एक बार और फिर मिलेंगे। 

गोस्वामीजी बैठे हैं। 

मन्दाकिनी के तट पर स्नान करके बैठे हैं। 

स्नान करके घाट पर चन्दन घिस रहे हैं। 

मगन हैं और गा रहे हैं। 

श्री राम जय राम जय जय राम। 

ह्रदय में एक ही लग्न है कि भगवान कब आएंगे। 

और ठाकुर जी एक बार फिर से कृपा करते हैं। 

ठाकुर जी आ गए और कहते हैं बाबा.. बाबा… चन्दन तो आपने बहुत प्यारा घिसा है। 

थोड़ा सा चन्दन हमें दे दो… लगा दो।


गोस्वामीजी को लगा कि कोई बालक होगा। चन्दन घिसते देखा तो आ गया। 

तो तुरंत लेकर चन्दन ठाकुर जी को दिया और ठाकुर जी लगाने लगे, हनुमानजी महाराज समझ गए कि आज बाबा फिर चूके जा रहे हैं। 

आज ठाकुर जी फिर से इनके हाथ से निकल रहे हैं। 

हनुमानजी तोता बनकर आ गए शुक रूप में और घोषणा कर दी कि चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर।

तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर।

हनुमानजी ने घोसणा कर दी कि अब मत चूक जाना। 

आज जो आपसे चन्दन ग्रहण कर रहे हैं ये साक्षात् रघुनाथ हैं और जो ये वाणी गोस्वामीजी के कान में पड़ी तो गोस्वामीजी चरणों में गिर गए ठाकुर जी तो चन्दन लगा रहे थे। 

बोले प्रभु अब आपको नहीं छोडूंगा। 

जैसे ही पहचाना तो प्रभु अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट हो गए हैं और बस वो झलक ठाकुर जी को दिखाई दी है। 

ठाकुर जी अंतर्ध्यान हो गए और वो झलक आखों में बस गई ह्रदय तक उतरकर। 

फिर कोई अभिलाषा जीवन में नहीं रही है। 

परम शांति। 

परम आनंद जीवन में आ गया ठाकुर जी के मिलने से।


आराम की तलब है तो एक काम करले आ राम की शरण में और राम राम करले।


और इस तरह से आज तुलसीदास जी का राम से मिलन हनुमानजी ने करवाया है। 

जय सियाराम!! पंडारामा प्रभु राज्यगुरु जय सियाराम!!

वट सावित्री व्रत :

वट सावित्री व्रत :

 वट सावित्री (अमावस्या) व्रत :


वट सावित्रि व्रत का महत्व :


जैसा कि इस व्रत के नाम और कथा से ही ज्ञात होता है कि यह पर्व हर परिस्थिति में अपने जीवनसाथी का साथ देने का संदेश देता है। 

इससे ज्ञात होता है कि पतिव्रता स्त्री में इतनी ताकत होती है कि वह यमराज से भी अपने पति के प्राण वापस ला सकती है। 

वहीं सास - ससुर की सेवा और पत्नी धर्म की सीख भी इस पर्व से मिलती है। 

मान्यता है कि इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु, स्वास्थ्य और उन्नति और संतान प्राप्ति के लिये यह व्रत रखती हैं।




SAREE MALL Women's Bhagalpuri Silk Ethnic Motif Printed Saree With Unstitched Blouse Piece(30WOM30901_HS_Parent)

https://amzn.to/4mq92DY


स्कन्द और भविष्य पुराण अनुसार यह व्रत ज्येष्ठ पूर्णिमा और निर्णयामृतादि अनुसार ज्येष्ठ अमावस्या को किया जाता है। 

दोनों परम्पराओं में यह व्रत पूर्व ( चतुर्दशी ) विद्धा अमावस्या या पूर्णिमा के दिन किया जाता है।


भारतीय पञ्चाङ्ग अनुसार वट सावित्री अमावस्या की पूजा और व्रत इस वर्ष 26 मई को मनाया जाएगा। इस वर्ष विशेष बात यह है कि वट सावित्री व्रत के दिन वृषभ राशि में सूर्य, चंद्रमा विराजमान रहेंगे। 


वट सावित्री व्रत समय :


ज्योतिष गणना के अनुसार, इस वर्ष यह पर्व 26 मई के दिन सोमवार को कृतिका नक्षत्र और अतिगण्ड योग में पड़ रहा है, जो ज्योतिषीय गणना के अनुसार उत्तम योग है। 

ज्येष्ठ अमावस्या तिथि का प्रारंभ 26 मई दिन सोमवार को दोपहर 12 बजकर 11 मिनट पर हो रहा है, जो 27 मई को प्रातः 08:31 बजे तक रहेगी।


वट सावित्रि व्रत पूजा विधि :


सामग्री :


सावित्री-सत्यवान की मूर्ति, 

कच्चा सूत, 

बांस का पंखा, 

लाल कलावा, 

बरगद का फल,

धूप

मिट्टी का दीपक 

घी, 

फल (आम, लीची और अन्य फल)

सत्यवान-सावित्री की मूर्ति,, कपड़े की बनी हुई

बाँस का पंखा

लाल धागा

धूप

मिट्टी का दीपक

घी

फूल

फल( आम, लीची तथा अन्य फल)

कपड़ा – 1.25 मीटर का दो

सिंदूर

इत्र

सुपारी

पान

नारियल

लाल कपड़ा

दूर्वा घास

चावल (अक्षत)

सुहाग का सामान, 

नकद रुपए

पूड़ि‍यां, 

भिगोया हुआ चना, 

स्टील या कांसे की थाली

मिठाई

घर में बना हुआ पकवान

जल से भरा कलश आदि।


पूजा विधि :


वट सावित्रि व्रत में वट यानि बरगद के वृक्ष के साथ-साथ सत्यवान-सावित्रि और यमराज की पूजा की जाती है। 

माना जाता है कि वटवृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देव वास करते हैं। 

अतः वट वृक्ष के समक्ष बैठकर पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। 

वट सावित्री व्रत के दिन सुहागिन स्त्रियों को प्रातःकाल उठकर स्नान करना चाहिये इसके बाद रेत से भरी एक बांस की टोकरी लें और उसमें ब्रहमदेव की मूर्ति के साथ सावित्री की मूर्ति स्थापित करें। 

इसी प्रकार दूसरी टोकरी में सत्यवान और सावित्री की मूर्तियाँ स्थापित करें दोनों टोकरियों को वट के वृक्ष के नीचे रखे और ब्रहमदेव और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करें। 

तत्पश्चात सत्यवान और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करे और वट वृक्ष को जल दे वट - वृक्ष की पूजा हेतु जल, फूल, रोली - मौली, कच्चा सूत, भीगा चना, गुड़ इत्यादि चढ़ाएं और जलाभिषेक करे। 


फिर निम्न श्लोक से सावित्री को अर्घ्य दें :


अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते।

पुत्रान्‌ पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥ 


इसके बाद निम्न श्लोक से वटवृक्ष की प्रार्थना करें :


यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले।

तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मा सदा॥

पूजा में जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फूल तथा धूप का प्रयोग करें।


जल से वटवृक्ष को सींचकर उसके तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेटकर तीन बार अथवा यथा शक्ति 5,11,21,51, या 108 बार परिक्रमा करें।  

बड़ के पत्तों के गहने पहनकर वट सावित्री की कथा सुनें। 

फिर बाँस के पंखे से सत्यवान-सावित्री को हवा करें। बरगद के पत्ते को अपने बालों में लगायें। 

भीगे हुए चनों का बायना निकालकर, नकद रुपए रखकर सासुजी के चरण-स्पर्श करें। 

यदि सास वहां न हो तो बायना बनाकर उन तक पहुंचाएं। 

वट तथा सावित्री की पूजा के पश्चात प्रतिदिन पान, सिन्दूर तथा कुंमकुंम से सौभाग्यवती स्त्री के पूजन का भी विधान है। यही सौभाग्य पिटारी के नाम से जानी जाती है। 

सौभाग्यवती स्त्रियों का भी पूजन होता है। 

कुछ महिलाएं केवल अमावस्या को एक दिन का ही व्रत रखती हैं अपनी सामर्थ्य के हिसाब से पूजा समाप्ति पर ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि वस्तुएं बांस के पात्र में रखकर दान करें। 

घर में आकर पूजा वाले पंखें से अपने पति को हवा करें तथा उनका आशीर्वाद लें। 


अंत में निम्न संकल्प लेकर उपवास रखें।


मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं

सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये।


उसके बाद शाम के वक्त मीठा भोजन करे।


वट सावित्रि व्रत की कथा :


वट सावित्रि व्रत की यह कथा सत्यवान - सावित्रि के नाम से उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रचलित हैं। 

कथा के अनुसार एक समय की बात है कि मद्रदेश में अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा का राज था। 

उनकी कोई भी संतान नहीं थी। 

राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया। 

कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा। 

विवाह योग्य होने पर सावित्री के लिए द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण किया। 

सत्यवान वैसे तो राजा का पुत्र था लेकिन उनका राज-पाट छिन गया था और अब वह बहुत ही द्ररिद्रता का जीवन जी रहे थे। 

उसके माता-पिता की भी आंखो की रोशनी चली गई थी। 

सत्यवान जंगल से लकड़ियां काटकर लाता और उन्हें बेचकर जैसे-तैसे अपना गुजारा कर रहा था। 

जब सावित्रि और सत्यवान के विवाह की बात चली तो नारद मुनि ने सावित्रि के पिता राजा अश्वपति को बताया कि सत्यवान अल्पायु हैं और विवाह के एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जाएगी। 

हालांकि राजा अश्वपति सत्यवान की गरीबी को देखकर पहले ही चिंतित थे और सावित्रि को समझाने की कोशिश में लगे थे। 

नारद की बात ने उन्हें और चिंता में डाल दिया लेकिन सावित्रि ने एक न सुनी और अपने निर्णय पर अडिग रही। 

अंततः सावित्री और सत्यवान का विवाह हो गया। 

सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही। 

नारद मुनि ने सत्यवान की मृत्यु का जो दिन बताया था, उसी दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन को चली गई। 

वन में सत्यवान लकड़ी काटने के लिए जैसे ही पेड़ पर चढ़ने लगा, उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी और वह सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गया। 

कुछ देर बाद उनके समक्ष अनेक दूतों के साथ स्वयं यमराज खड़े हुए थे। 

जब यमराज सत्यवान के जीवात्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे, पतिव्रता सावित्री भी उनके पीछे चलने लगी। 

आगे जाकर यमराज ने सावित्री से कहा, ‘हे पतिव्रता नारी! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने अपने पति का साथ दे दिया। 

अब तुम लौट जाओ’ इस पर सावित्री ने कहा, ‘जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे जाना चाहिए। 

यही सनातन सत्य है’ यमराज सावित्री की वाणी सुनकर प्रसन्न हुए और उसे वर मांगने को कहा। 

सावित्री ने कहा, ‘मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें नेत्र-ज्योति दें’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा और आगे बढ़ने लगे किंतु सावित्री यम के पीछे ही चलती रही यमराज ने प्रसन्न होकर पुन: वर मांगने को कहा। 

सावित्री ने वर मांगा, ‘मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर पुनः उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अपनी बात पर अटल रही और वापस नहीं गयी। 

सावित्री की पति भक्ति देखकर यमराज पिघल गए और उन्होंने सावित्री से एक और वर मांगने के लिए कहा तब सावित्री ने वर मांगा, ‘मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनना चाहती हूं। 

कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें’ सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्न हो इस अंतिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान की जीवात्मा को पाश से मुक्त कर दिया और अदृश्य हो गए। 

सावित्री जब उसी वट वृक्ष के पास आई तो उसने पाया कि वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीव का संचार हो रहा है। 

कुछ देर में सत्यवान उठकर बैठ गया। 

उधर सत्यवान के माता-पिता की आंखें भी ठीक हो गईं और उनका खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया।


वट सावित्री व्रत :


सनातन धर्म में व्रत और त्योहारों का विशेष स्थान है, जो पारिवारिक जीवन में भी संतुलन और समृद्धि लाते हैं। 

इन्हीं विशेष व्रतों में से एक है वट सावित्री व्रत, जिसे विवाहित महिलाएं पूरे श्रद्धा - भाव से अपने पति की लंबी उम्र और दांपत्य जीवन की सुख - शांति के लिए करती हैं।

हिंदू पंचांग के अनुसार, यह व्रत ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है। 

इस बार यह पर्व 26 मई को पड़ रहा है। 

व्रती महिलाएं इस दिन विशेष रूप से वट वृक्ष ( बरगद के पेड़ ) की पूजा करती हैं, क्योंकि इसे अखंड सौभाग्य और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। 

लेकिन कई बार घर के आस - पास वट वृक्ष मौजूद नहीं होता है।


वट सावित्री व्रत की तिथि :


हिंदू पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ महीने की अमावस्या तिथि 26 मई को दोपहर 12 बजकर 11 मिनट पर शुरू होगी। 

वहीं, इसका समापन अगले दिन यानी 26 मई को सुबह 08 बजकर 31 मिनट पर होगा। 

सनातन धर्म में उदया तिथि का महत्व है। 

ऐसे में वट सावित्री व्रत 26 मई को रखा जाएगा।


पूजा विधि :


सुबह जल्दी उठें स्नान करें और पूजा घर की सफाई करें।

इस व्रत में बरगद के पेड़ का विशेष महत्व होता है।

बरगद के पेड़ के नीचे साफ-सफाई करें और मंडप बनाएं।

वट वृक्ष के नीचे सफाई करें और पूजा स्थल तैयार करें।

सावित्री और सत्यवान की पूजा करें, और वट वृक्ष को जल चढ़ाएं।

लाल धागे से वट वृक्ष को बांधें और 7 बार परिक्रमा करें।

व्रत कथा का पाठ करें या सुनें और अंत में आरती करें।

गरीबों और ब्राह्मणों को दान दें और उनसे आशीर्वाद लें।

व्रत का पारण अगले दिन सूर्योदय के बाद करें।


वट वृक्ष की पूजा का महत्व :


पौराणिक कथाओं के अनुसार सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे बैठकर कठिन तपस्या से अपने पति सत्यवान को यमराज से पुनः जीवनदान दिलवाया था। 

तभी से इस वृक्ष की पूजा करने की परंपरा चली आ रही है। 

व्रत तभी पूर्ण माना जाता है जब इस वृक्ष की पूजा विधिपूर्वक की जाए।


बरगद का पेड़ पास में न हो तो क्या करें ?


आज के समय में खासकर शहरी क्षेत्रों में वट वृक्ष हर जगह आसानी से उपलब्ध नहीं होता। 

यदि आपके आस - पास बरगद का पेड़ नहीं है, तो आप एक दिन पहले किसी परिचित से बरगद की एक टहनी मंगवा सकती हैं। 

पूजा के दिन उस टहनी को स्वच्छ स्थान पर स्थापित कर विधिपूर्वक पूजन किया जा सकता है। 

ऐसा करने से भी व्रत का पूरा फल प्राप्त होता है। पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

सखियों के श्याम , अग्नि की उत्पत्ति कथा

सखियों के श्याम ,  अग्नि की उत्पत्ति कथा :

 श्रीहरिः


सखियों के श्याम 


(जात न पूछे कोय)


पर यह कौन है ?' – मेरे प्रश्न करते ही वह उठकर खड़ी हो गयी और भागनेको उद्यत हुई तो मैंने बाँह थाम ली। 

'कौन जाने उनकी उन कजरारी अंखियोंने कहाँ-कहाँ किस-किसको घायल किया हैं।' — मैंने मनमें कहा।


'कौन हो, यहाँ ऐसे कैसे पड़ी थी? क्या नाम है ?'— मैंने पूछा । 


'कुछ नहीं।' — उसने सिर हिलाकर बताया, किंतु आँखोंमें भरे आँसू न चाहते भी छलक पड़े।


'मुझसे न कहेगी सखी!'


'कहा कहूँ ?' उसका कंठ इतना ही कहते रुद्ध हो गया और दो धारायें कपोलोंसे उतर वक्षावरण भिगोने लगीं।




eSplanade - Latón Radha Krishna - Tamaño grande - Escultura de estatua de ídolo de Radha de latón (21 pulgadas) (Radha Antique)

https://amzn.to/4kUNI9d


'यहाँ तो कू व्रजराज कुँअर मिले हते ?"


उसने 'हाँ' में सिर हिलाया।


'आ, यहाँ आकर बैठ सखी! हम दोनों एक ही रोगकी रोगिणी है, एक दूजेसे बात कर मन को ठंडो करें। 

उनकी चर्चा तें सुख मिले सखी! तेरो नाम कहा है? - कहते हुए मैं उसी पाहनपर बैठ गयी और अपने समीप ही उसे बिठाने लगी।


'ऐसी अनीति न करें स्वामिनी!'– वह मेरे पैरोंपर गिर पड़ी। मैंने उसे उठाकर अपनेसे लगा लिया। 


पीठपर हाथ फेरते हुए पूछा— 'अपनो नाम नहीं बतायेगी ?'


'कंका है मेरो नाम।'


'कब, कैसे मिले श्यामसुन्दर, कहा कही ?'


उसने एक बार अपने जलपूर्ण नेत्र उठाकर भोली और शंका भरी दृष्टिसे मेरी ओर देखा। 

मैंने मुस्कराकर स्नेहपूर्ण दृष्टिसे देखा तो वह पलकें झुकाकर कुछ कहने को उद्यत हुई, किंतु होठ थोड़े हिलकर रह गये।


 'कंका, बोलेगी नहीं ? 

कह देनेसे मनका ताप हलका हो जाता है सखी!


हम सब यही तो करती है। 

इसी मिस उनकी चर्चा होती है।'


ताप हलका हो, यही तो मैं नहीं चाहती। इस तपनमें बहुत सुख है स्वामिनी। पर आप कहती है कि चर्चा होगी; उसका लोभ भी कम नहीं है।" उसने कहा।


एक क्षणके लिये मैं उसकी बात सुन चकित रह गयी। वह ताप सुखदायी है यह सब जानती है, पर वह मिटे यही तो हमारी कामना रही है। 

यह तो मिटानेकी कौन कहे! घटानेकी बात भी नहीं सोचना चाहती।


'पुनः उनके दर्शन हों और यह अदर्शनका ताप मिटे, नहीं चाहती तुम ?'

— मैंने पूछा।


'ऐसा कौन न चाहेगा ? किंतु जबतक वह सम्भव नहीं है, यह ताप — उनका स्मरण ही तो मेरा धन है। 

फिर मेरा ऐसा भाग्य कहाँ ......  ......l' — उसका गला पुनः रूँध गया।


'वे कहाँ कैसे मिले तुझे? क्या बात की ?' 


मैं एक दिन इन जटाओंको बाँधकर झूला झूल रही थी कि उन्होंने पीछेसे आकर झूलेके साथ ही मेरा हाथ पकड़ लिया जिससे एकदम भाग न सकूँ। 

मैं चौंककर खड़ी हो गयी। उन्होंने कहा— 'मुझे भी अपने साथ झुलावेगी ?'


इतनी देरमें तो मैं अपने आपको ही भूल गयी थी! वह रूप, स्पर्श और फिर वह मधुर स्वर व मुस्कान और... और.... वह चित....वनि.... ! 

कंका पुनः मौन हो गयी।


'ए कंका! फिर क्या हुआ? क्या कहा तुने ?"


हाँ, उसने चौंककर मेरी ओर देखा। 

मेरे मुखसे बोल नहीं फूटा तो वे स्वयं ही झूलेपर बैठ गये और हाथ थामकर मुझे भी अपने समीप बिठा लिया। हम दोनों झूलने लगे। 

उनकी अं....ग..... सु... वा.... स...। – कंकाने साँस खींची।


‘फिर ?'– मैंने शीघ्रतासे पूछा कि वह कहीं फिर स्मृतिके समुद्रमें डूबकि न लगा जाय।


"तेरो नाम कहा है री ?"


'कंका!'


'कंस तो नाय ?'– वे खुलकर हँस पड़े।


ले खायेगी ?'– उन्होंने फेंटसे आम्रफल निकालकर मुझे दिया, तभी मुझे स्मरण आया— कुछ मधुर फल फूल और अंकुर मैंने संग्रह किये हैं। मैं वह लानेके लिये उठी तो उन्होंने बाँह थाम ली— 'कहाँ जाती है?'


मैंने वृक्षकी खोडरकी ओर संकेत किया। दोना लाकर उनके हाथ में धमाया तो बोले— 'यह क्या है? क्या करूँ इसका?' मैंने एक फल उठाकर उनके मुखमें दिया तो खाते हुए बोले— 'अहा यह तो बहुत स्वादिष्ट है।' 


सब खाकर बोले— 'ले मैं तो सब खा गया, अब तू क्या खायेगी ?


'मैं और ले आऊँगी। तुम्हें रुचे ये? मैं नित्य ही ला दिया करूँगी।'


 'सच! बहुत अच्छे हैं। और ला देगी तो मैं दादाके— सखाओंके लिये भी ले जाऊँगा। कल ला देगी ?"


'कल क्यों, अभी ला दूंगी।'– मैं चलने लगी तो उन्होंने फिर रोक दिया। 


'आज नहीं! अभी तो बहुत आतप है, कल लाना। चल अभी तो अपने खेलें।'


मेरा हाथ पकड़कर वे उस ओर ले गये। वहाँ भूमिपर लकीरें खींचकर हमने चौकोर घर बनाये। 

पत्थरके टुकड़ेको फेंक एक पैरपर चलते उस टुकड़ेको ठोकरसे खिसकाते हुए खेलने लगे। 

पहले तो मुझे कुछ संकोच लगा किंतु जब अच्छी तरह खेलने लगी तो वे हार गये।


कंकाने मेरी ओर देखकर लज्जासे सिर झुका लिया। मैं थोड़ा—सा हँस दी। 

'जिसने त्रिविक्रम बनकर दो पदमें ही त्रिलोककी नाप लिया था, वह अपनी ठोकरसे नन्हे पाषाण खंडको नहीं खिसका पाया।' —मनमें कहा।


'फिर?" — उपरसे पूछा।


'फिर नित्य ही मैं मूल— फल— अंकूर लाती और यहाँ प्रतिक्षा करती। 

वे आते अपने साथ कोई फल, कभी कोई मोदक अथवा मिष्ठान लिये आते मुझे देते। 

मेरी लायी हुई वस्तुओंमें—से कुछ खाते—सराहते और फिर हम खेलते। 

वे अधिकाँश हारते ही थे।


धीरे—धीरे मेरे मनमें यह बात समा गयी कि कुअंर जू को खेलना आता ही नहीं और वे मेरे बिना रह नहीं सकते। 

मैं छिप जाती तो वे ढूंढते–ढूढ़ते आकुल हो उठते।'


एक दिन मैं छिपी ही रही और उनकी आकूलताका आनंद लेती रही। 

वे उदास होकर चले गये और उसके दूसरे दिन वे आये ही नहीं। 

मैं फल—मूल संग्रहकर रही थी कि मुख्य पथकी ओर पशु—पक्षियोंका सम्मलित आर्तनाद सुना, साथ ही रथकी थरथराहट भी। 


दौड़कर उस ओर गयी देखा सारे पशु—पक्षी वनके छोरपर एकत्रित हो क्रन्दनकर रहे हैं। 

एक रथ पथपर बढ़ रहा है। 

उसमें कुअंर जू अपने दादाके संग बिराजे हैं, रथ मथुराकी ओर जा रहा है।


'मेरे हाथसे दोना छूटकर गिर पड़ा....। 

तबसे नित्य यहाँ आकर पथ जोहती हूँ। 

क्या वे अबतक नहीं आये! मुझ पापिनीने उन्हें सताया था.... इसीसे.... वे सबको छोड़कर चले गये। मेरे कारण.... सबको ..... दुःख.... पहुँचा....। 

स्वामिनी ! आप मुझे धिक्कारो— ताड़ना दो सबके दुःखका कारण मैं हूँ... मैं... हूँ।'— कंका बिलखकर रोने लगी। 


मैंने उसे गले लगा लिया— ‘रो मत बहिन! हम सब ऐसा ही सोचती है कि हमारे अपराधके कारण वे चले गये, किंतु अपनों का अपराध देखना उन्हें कभी आया ही नहीं। 

वे आयेंगे, निज जनों से दूर कैसे रह पायेंगे ? 

तू धीरज धर ।' 


उसने फल-मूल अंकुरका दोना लाकर मुझे थमा दिया — 'यह ले जायँ आप, मैं नित्य पहुँचा दूँगी। 

वे आयें तो उन्हें देकर कहें— कंका अपराधिनी है, उसे अपने ही हाथसे दंड देवें, किंतु यह स्वीकार करें।'


'अच्छा बहिन! कह दूँगी, उन्हें साथ लेकर यहाँ आऊँगी। वे तो भूल ही चुके होंगे, आवें तो वे ही स्वयं तुझसे माँग—माँगकर खायेंगे। 

तू चिन्ता न कर, उनके आने भरकी देर है, सम्पूर्ण व्रजमें जीवन दौड़ जावेगा।'— कहते हुए मैं वह दोना लेकर चल पड़ी।


मैं तो नित्य ही यहाँ आती थी, अपराह्न ढलनेपर ही जाती, वे मेरे साथ बने रहते। कभी इसे देखा नहीं यहाँ और इसका कहना है— नित्य आती थी। उनकी लीला कौन जाने! देश और काल दोनों सापेक्ष है और उनके इंगितपर संचालित होते हैं।


'कैसी ब्रह्मविद्या है री तू ?' 

एक दिन उन्होंने कहा था—'कुछ भी समझमें नहीं आता तुझे, छोटा-सा विनोद भी नहीं समझती, रोने बैठ जाती है।'


'हाँ प्रभु ! आप निखिल ब्रह्माण्ड नायकको जब ऊखलमें बंधे रोते देखा, माखन चुरा — चुराकर खाते देखा, गोबरकी बिन्दियोंसे मुख भरे देखा, गोष्ठमें चुल्लू भर छाछके लिये नाचते देखा तो लगा, श्रुतियाँ नेति—नेति कह क्या इनका ही बखान करती है? 

यही वेदके प्रतिपाद्य विषय है ? 

महाकाल और मायाको भयभीत और भ्रू संकेतसे नियमित करनेवाले क्या यही है ?'


 'बस, बस।' उन्होंने मेरे मुखपर हाथ रख दिया– 'यह ब्रज है सखी! और मैं नंदकुमार। अखिल ब्रह्माण्ड नायक बेचारा कहीं जाकर दुबक गया होगा।


इसी प्रकार यह दासी भी केवल पूर्ण गोपकी कन्या विद्या है। ब्रह्मविद्या व्रजमें क्या करेगी श्यामसुन्दर ! बारम्बार उसका नाम लेकर क्यों उकसाते हो ?'


'मैं केवल स्मरण करवा रहा हूँ जिसके लिये तूने तप किया था, वह उद्देश्य पूरा हुआ कि नहीं ?"


'मैं धन्य हुई। मैं ही क्या श्यामसुन्दर ! यह मुक्ति, श्रुतियाँ और न जाने कितने ऋषि, कितने प्रेमैक प्राण तुम्हें पाकर कृतार्थ हुए हैं। तुम्हारी अनुकम्पाकी इति नहीं है। कभी किसीने सोचा था कि ब्रह्म यों गोप कुमार बना गायोंके संग डोलेगा ?'


'जाने दे विद्या! यह चर्चा इस रसधाममें अप्रिय लगती है। यह स्तुति किसी अन्य समय लिये उठा रख।'


'ठीक है, किंतु मुझे फिर कभी ब्रह्मविद्याकी याद न दिलाना अन्यथा.... ।' — मैं हँस पड़ी।


'तो तू मुझसे बदला ले रही थी, ठहर तो बंदरिया कहीं की!' श्याम जू मुझे पकड़ने दौड़े तो मैं हँसती हुई घरकी ओर दौड़ गयी थी।


जय श्री राधे....


श्री राधे 


अग्नि की उत्पत्ति कथा तथा वेद एवं पुराणों में माहात्म्य :


एक समय पार्वती ने शिवजी से पूछा कि हे देव! आप जिस अग्नि देव की उपासना करते हैं उस देव के बारे में कुछ परिचय दीजिये। 

शिवजी ने उत्तर देना स्वीकार किया। 

तब पार्वती ने पूछा कि यह अग्नि किस महिने, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र त तथा लग्न में उत्पन्न हुई है।


श्री महादेवजी ने कहा-आषाढ़ महीने के कृष्ण पक्ष की आध्धी रात्रि में मीन लग्न की चतुर्दशी तिथि में शनिवार तथा रोहिणी नक्षत्र में ऊपर मुख किये हुए सर्वप्रथम पाताल से दृष्ट होती हुई अगोचर नाम्धारी यह अग्नि प्रगट हुई। 

उस महान अग्नि के माता-पिता कौन है? गौत्र क्या है? 

तथा कितनी जिह्वा से प्रगट होती है?


श्री महादेवजी ने कहा-वन से उत्पन्न हुई सूखी आम्रादि की समिधा लकड़ी ही इस अग्नि देव की माता है क्योंकि लकड़ी में स्वाभाविक रूप से अग्नि रहती है , जलाने पर अग्नि के संयोग से अग्नि प्रगट होती है,  अग्निदेव अरणस के गर्भ से ही प्रगट होती है इसलिये लकड़ी ही माता है तथा वन को उत्पन्न करने वाला जल होता है इसलिये जल ही इसका पिता है। 

शाण्डिल्य ही जिसका गोत्र है। 

ऐसे गोत्र तथा विशेषणों वाली वनस्पति की पुत्री यह अग्नि देव इस धरती पर प्रगट हुई जो तेजोमय होकर सभी को प्रकाशित करती हुई उष्णता प्रदान करती है।


इस प्रत्यक्ष अग्नि देव के अग्निष्टोमादि चार प्रधान  यज्ञ जो चारों वेदों में वर्णित है वही शृंग अर्थात् श्रेष्ठता है। 

इस महादेव अग्नि के भूत, भविष्य वर्तमान ये तीन चरण हैं। 

इन तीनों कालों में यह विद्यमान रहती है। 

इह लौकिक पार लौकिक इन दो तरह की ऊंचाइयों को छूनेवाली यह परम अग्नि सात वारों में सामान्य रूप से हवन करने योग्य है क्योंकि ग्रह नक्षत्रों से यह उपर है...! 

इस लिये इन सातों हाथों से यह आहुति ग्रहण कर लेती है तथा मृत्युलोक, स्वर्ग लोक पाताल लोक इन तीनों लोकों में ही बराबर बनी रहती है अर्थात् तीनों लोक इस अग्नि से ही बंध्धे हुऐ स्थिर है। 

जिस प्रकार से मदमस्त वृषभ ध्वनि करता है उसी प्रकार से जब यह घृतादि आहुति से जब यह अग्नि प्रसन्न हो जाती है तो यह भी दिव्य ध्वनि करती है। 

इन विशेषणों से युक्त अग्नि देवता महान कल्याणकारी रूप धारण करके हमारे मृत्यु लोकस्थ प्राणियों में प्रवेश करे जिससे हम तेजस्वी हो सकें और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। 


सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जिस अग्नि ने उदर में समाहित कर रखा है, वह विश्वरूपा अग्नि देवी है जिसके उदर में प्रलयकालीन में सभी जीव शयन करते हैं तथा उत्पत्ति काल में भी सभी ओर से अग्नि वेष्टित है। 

उसकी ही परछाया से जगत आच्छादित है तथा जैसा गीता में कहा है अहं वैश्वानरो भूत्वा‘‘ अर्थात् यह अग्नि ही सर्वोपरि देव है। 

जिस अग्नि के बारह आदित्य यानि सूर्य ही बारह नेत्र है। 

उसके द्वारा सम्पूर्ण जगत को देखती है। 

सात इनकी जिह्वाएं जैसे काली,  कराली, मनोजवा, सुलोहिता , सुध्धूम्रवर्णा,  स्फुलिंगिनी , विश्वरूपी  इन सातों जिह्वाओं द्वारा ही सम्पूर्ण आहुति को ग्रहण करती है। 


इस महान अग्नि देव के ये सात प्रिय भोजन सामग्री है। 

जिसमें सर्व प्रथम घी, , दूसरा यव , तीसरा तिल, चौथा दही, पांचवां खीर, छठा श्री खंड, सातवीं मिठाई यही हवनीय सामग्री है जिसे अग्नि देव अति आनन्द से सातों जिह्वाओं द्वारा ग्रहण करते है।


भजन करने वाले ऋत्विक जन की यह अग्नि चाहे ऊध्ध्र्वमुखी हो चाहे अध्धोमुखी हो अथवा सामने मुख वाली हो हर स्थिति में सहायता ही करती है तथा इस अग्निदेव में प्रेम पूर्वक ‘‘स्वाहा‘‘ कहकर दी हुई मिष्ठान्नादि आहुति महा विष्णु के मुख में प्रवेश करती है अर्थात् महा विष्णु प्रेम पूर्वक ग्रहण करते हैं जिससे सम्पूर्ण देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये तीनों देवता तृप्त हो जाते हैं। 

इन्हीं देवों को प्रसन्न करने का एक मात्र साधन यही है।


पुराणों में अग्नि का महात्म्य :


अग्निदेवता यज्ञ के प्रधान अंग हैं। 

ये सर्वत्र प्रकाश करने वाले एवं सभी पुरुषार्थों को प्रदान करने वाले हैं। 

सभी रत्न अग्नि से उत्पन्न होते हैं और सभी रत्नों को यही धारण करते हैं।


वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का नाम आता है और उसमें प्रथम शब्द अग्नि ही प्राप्त होता है। 

अत: यह कहा जा सकता है कि विश्व - साहित्य का प्रथम शब्द अग्नि ही है। 

ऐतरेय ब्राह्मण आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में यह बार - बार कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है।


आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी हैं और सबसे आगे - आगे चलते हैं। 

युद्ध में सेनापति का काम करते हैं इन्हीं को आगे कर युद्ध करके देवताओं ने असुरों को परास्त किया था।


पुराणों के अनुसार इनकी पत्नी स्वाहा हैं। 

ये सब देवताओं के मुख हैं और इनमें जो आहुति दी जाती है, वह इन्हीं के द्वारा देवताओं तक पहुँचती है। 

केवल ऋग्वेद में अग्नि के दो सौ सूक्त प्राप्त होते हैं।


इसी प्रकार यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में भी इनकी स्तुतियाँ प्राप्त होती हैं। 

ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में अग्नि की प्रार्थना करते हुए विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम अग्निदेवता की स्तुति करता हूँ, जो सभी यज्ञों के पुरोहित कहे गये हैं। 

पुरोहित राजा का सर्वप्रथम आचार्य होता है और वह उसके समस्त अभीष्ट को सिद्ध करता है। 

उसी प्रकार अग्निदेव भी यजमान की समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं।


अग्निदेव की सात जिह्वाएँ बतायी गयी हैं। 

उन जिह्वाओं के नाम : - काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णी, स्फुलिंगी तथा विश्वरुचि हैं।


पुराणों के अनुसार अग्निदेव की पत्नी स्वाहा के पावक, पवमान और शुचि नामक तीन पुत्र हुए। 

इनके पुत्र-पौत्रों की संख्या उनंचास है। 

भगवान कार्तिकेय को अग्निदेवता का भी पुत्र माना गया है। 

स्वारोचिष नामक द्वितीय स्थान पर परिगणित हैं। 

ये आग्नेय कोण के अधिपति हैं। 

अग्नि नामक प्रसिद्ध पुराण के ये ही वक्ता हैं। 

प्रभास क्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर इनका मुख्य तीर्थ है। 

इन्हीं के समीप भगवान कार्तिकेय, श्राद्धदेव तथा गौओं के भी तीर्थ हैं।


अग्निदेव की कृपा के पुराणों में अनेक दृष्टान्त प्राप्त होते हैं। 

उनमें से कुछ इस प्रकार हैं। 

महर्षि वेद के शिष्य उत्तंक ने अपनी शिक्षा पूर्ण होने पर आचार्य दम्पति से गुरु दक्षिणा माँगने का निवेदन किया। गुरु पत्नी ने उनसे महाराज पौष्य की पत्नी का कुण्डल माँगा। 

उत्तंक ने महाराज के पास पहुँचकर उनकी आज्ञा से महारानी से कुण्डल प्राप्त किया। 


रानी ने कुण्डल देकर उन्हें सतर्क किया कि आप इन कुण्डलों को सावधानी से ले जाइयेगा, नहीं तो तक्षक नाग कुण्डल आप से छीन लेगा। 

मार्ग में जब उत्तंक एक जलाशय के किनारे कुण्डलों को रखकर सन्ध्या करने लगे तो तक्षक कुण्डलों को लेकर पाताल में चला गया। 


अग्निदेव की कृपा से ही उत्तंक दुबारा कुण्डल प्राप्त करके गुरु पत्नी को प्रदान कर पाये थे। 

अग्निदेव ने ही अपनी ब्रह्मचारी भक्त उपकोशल को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया था।


अग्नि की प्रार्थना उपासना से यजमान धन, धान्य, पशु आदि समृद्धि प्राप्त करता है। 

उसकी शक्ति, प्रतिष्ठा एवं परिवार आदि की वृद्धि होती है।


अग्निदेव का बीजमन्त्र रं तथा मुख्य मन्त्र रं वह्निचैतन्याय नम: है।


ऋग्वेद के अनुसार,अग्निदेव अपने यजमान पर वैसे ही कृपा करते हैं, जैसे राजा सर्वगुणसम्पन्न वीर पुरुष का सम्मान करता है। 

एक बार अग्नि अपने हाथों में अन्न धारण करके गुफा में बैठ गए। 

अत: सब देवता बहुत भयभीत हुए। 

अमर देवताओं ने अग्नि का महत्व ठीक से नहीं पहचाना था। 


वे थके पैरों से चलते हुए ध्यान में लगे हुए अग्नि के पास पहुँचे। 

मरुतों ने तीन वर्षों तक अग्नि की स्तुति की। 

अंगिरा ने मंत्रों द्वारा अग्नि की स्तुति तथा पणि नामक असुर को नाद से ही नष्ट कर डाला। 

देवताओं ने जांघ के बल बैठकर अग्निदेव की पूजा की। 

अंगिरा ने यज्ञाग्नि धारण करके अग्नि को ही साधना का लक्ष्य बनाया।


तदनन्तर आकाश में ज्योतिस्वरूप सूर्य और ध्वजस्वरूप किरणों की प्राप्ति हुई। 

देवताओं ने अग्नि में अवस्थित इक्कीस गूढ़ पद प्राप्त कर अपनी रक्षा की। 

अग्नि और सोम ने युद्ध में बृसय की सन्तान नष्ट कर डाली तथा पणि की गौएं हर लीं। 

अग्नि के अश्वों का नाम रोहित तथा रथ का नाम धूमकेतु है।


महाभारत के अनुसार :


देवताओं को जब पार्वती से शाप मिला था कि वे सब सन्तानहीन रहेंगे, तब अग्निदेव वहाँ पर नहीं थे। 

कालान्तर में विद्रोहियों को मारने के लिए किसी देवपुत्र की आवश्यकता हुई। 

अत: देवताओं ने अग्नि की खोज आरम्भ की। अग्निदेव जल में छिपे हुए थे। 

मेढ़क ने उनका निवास स्थान देवताओं को बताया। 

अत: अग्निदेव ने रुष्ट होकर उसे जिह्वा न होने का शाप दिया। 

देवताओं ने कहा कि वह फिर भी बोल पायेगा। 

अग्निदेव किसी दूसरी जगह पर जाकर छिप गए। 


हाथी ने देवताओं से कहा-अश्वत्थ ( सूर्य का एक नाम ) अग्नि रूप है। 

अग्नि ने उसे भी उल्टी जिह्वा वाला कर दिया। 

इसी प्रकार तोते ने शमी में छिपे अग्नि का पता बताया तो वह भी शापवश उल्टी जिह्वा वाला हो गया। 

शमी में देवताओं ने अग्नि के दर्शन करके तारक के वध के निमित्त पुत्र उत्पन्न करने को कहा। 

अग्नि देव शिव के वीर्य का गंगा में आधान करके कार्तिकेय के जन्म के निमित्त बने।


भृगु पत्नी पुलोमा का पहले राक्षस पुलोमन से विवाह हुआ था। 

जब भृगु अनुपस्थित थे, वह पुलोमा को लेने आया तो उसने यज्ञाग्नि से कहा कि वह उसकी है या भृगु की भार्या। 

उसने उत्तर दिया कि यह सत्य है कि उसका प्रथम वरण उसने ( राक्षस ) ही किया था, लेकिन अब वह भृगु की पत्नी है। 


जब पुलोमन उसे बलपूर्वक ले जा रहा था, उसके गर्भ से 'च्यवन' गिर गए और पुलोमन भस्म हो गया। 

उसके अश्रुओं से ब्रह्मा ने 'वसुधारा नदी' का निर्माण किया। 

भृगु ने अग्नि को शाप दिया कि तू हर पदार्थ का भक्षण करेगी। 

शाप से पीड़ित अग्नि ने यज्ञ आहुतियों से अपने को विलग कर लिया, जिससे प्राणियों में हताशा व्याप्त हो गई। 


ब्रह्मा ने उसे आश्वासन दिया कि वह पूर्ववत् पवित्र मानी जाएगी। 

सिर्फ़ मांसाहारी जीवों की उदरस्थ पाचक अग्नि को छोड़कर उसकी लपटें सर्व भक्षण में समर्थ होंगी। 

अंगिरस ने अग्नि से अनुनय किया था कि वह उसे अपना प्रथम पुत्र घोषित करें, क्योंकि ब्रह्मा द्वारा नई अग्नि स्रजित करने का भ्रम फैल गया था। 

अंगिरस से लेकर बृहस्पति के माध्यम से अन्य ऋषिगण अग्नि से संबद्ध रहे हैं।


हरिवंश पुराण के अनुसार :


असुरों के द्वारा देवताओं की पराजय को देखकर अग्नि ने असुरों को मार डालने का निश्चय किया। वे स्वर्गलोक तक फैली हुई ज्वाला से दानवों की दग्ध करने लगे। 

मय तथा शंबरासुर ने माया द्वारा वर्षा करके अग्नि को मंद करने का प्रयास किया, किन्तु बृहस्पति ने उनकी आराधना करके उन्हें तेजस्वी रहने की प्रेरणा दी। 

फलत: असुरों की माया नष्ट हो गई।


जातवेदस् नामक अग्नि का एक भाई था। 

वह हव्यवाहक ( यज्ञ - सामग्री लाने वाला ) था। 

दिति - पुत्र ( मधु ) ने देवताओं के देखते - देखते ही उसे मार डाला। 

अग्नि गंगाजल में आ छिपा। 

देवता जड़वत् हो गए। 

अग्नि के बिना जीना कठिन लगा तो वे सब उसे खोजते हुए गंगाजल में पहुँचे। 

अग्नि ने कहा, भाई की रक्षा नहीं हुई, मेरी होगी, यह कैसे सम्भव है ? 

देवताओं ने उसे यज्ञ में भाग देना आरम्भ किया। 

अग्नि ने पूर्ववत् स्वर्गलोक तथा भूलोक में निवास आरम्भ कर दिया। 

देवताओं ने जहाँ अग्नि प्रतिष्ठा की, वह स्थान अग्नितीर्थ कहलाया।


दक्ष की कन्या ( स्वाहा ) का विवाह अग्नि ( हव्यवाहक ) से हुआ। 

बहुत समय तक वह नि:सन्तान रही। 

उन्हीं दिनों तारक से त्रस्त देवताओं ने अग्नि को सन्देशवाहक बनाकर शिव के पास भेजा। 

शिव से देवता ऐसा वीर पुत्र चाहते थे, जो कि तारक का वध कर सके। 


पत्नी के पास जाने में संकोच करने वाले अग्नि ने तोते का रूप धारण किया और एकान्तविलासी शिव-पार्वती की खिड़की पर जा बैठा। 

शिव ने उसे देखते ही पहचान लिया तथा उसके बिना बताये ही देवताओं की इच्छा जानकर शिव ने उसके मुँह में सारा वीर्य उड़ेल दिया। 

शुक (अग्नि ) इतने वीर्य को नहीं सम्भाल पाए। 


उसने वह गंगा के किनारे कृत्तिकाओं में डाल दिया, जिनसे कार्तिकेय का जन्म हुआ। 

थोड़ा - सा बचा हुआ वीर्य वह पत्नी के पास ले गया। 

उसे दो भागों में बाँटकर स्वाहा को प्रदान किया, अत: उसने ( स्वाहा ने ) दो शिशुओं को जन्म दिया। 

पुत्र का नाम सुवर्ण तथा कन्या का नाम सुवर्णा रखा गया। 

मिश्र वीर्य सन्तान होने के कारण वे दोनों व्यभिचार दोष से दूषित हो गए।


सुवर्णा असुरों की प्रियाओं का रूप बनाकर असुरों के साथ घूमती थी तथा सुवर्ण देवताओं का रूप धारण करके उनकी पत्नियों को ठगता था। 

सुर तथा असुरों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने दोनों को सर्वगामी होने का शाप दिया। 

ब्रह्मा के आदेश पर अग्नि ने गोमती नदी के तट पर, शिवाराधना से शिव को प्रसन्न कर दोनों को शापमुक्त करवाया। 

वह स्थान तपोवन कहलाया। 

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , क्रोध से बचिये , श्रीस्कन्द महापुराण :

श्रीमहाभारतम्  ,  श्री लिंग महापुराण , क्रोध से बचिये , श्रीस्कन्द महापुराण  


श्रीमहाभारतम् 


।। श्रीहरिः ।।

* श्रीगणेशाय नमः *

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।


(आस्तीकपर्व)


त्रयोदशोऽध्यायः


जरत्कारु का अपने पितरों के अनुरोध से विवाह के लिये उद्यत होना...!


शौनक उवाच





Divine Harmony: Jellybean Retails Vamavarti Original Loud Blowing Shankh|Conch For Pooja - 350 grm, 6 Inch (Size Guarantee - Quality Matters)

https://amzn.to/40MuI56

किमर्थं राजशार्दूलः स राजा जनमेजयः । 

सर्पसत्रेण सर्पाणां गतोऽन्तं तद् वदस्व मे ।। १ ।। 

निखिलेन यथातत्त्वं सौते सर्वमशेषतः । 

आस्तीकश्च द्विजश्रेष्ठः किमर्थं जपतां वरः ।। २ ।। 

मोक्षयामास भुजगान् प्रदीप्ताद् वसुरेतसः । 

कस्य पुत्रः स राजासीत् सर्पसत्रं य आहरत् ।। ३ ।। 

स च द्विजातिप्रवरः कस्य पुत्रोऽभिधत्स्व मे ।


शौनकजीने पूछा-सूतजी ! 

राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयने किसलिये सर्पसत्रद्वारा सर्पोंका अन्त किया? 

यह प्रसंग मुझसे कहिये। 

सूतनन्दन ! 

इस विषयकी सब बातोंका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये। 

जप - यज्ञ करनेवाले पुरुषोंमें श्रेष्ठ विप्रवर आस्तीकने किसलिये सर्पोको प्रज्वलित अग्निमें जलनेसे बचाया और वे राजा जनमेजय, जिन्होंने सर्पसत्रका आयोजन किया था, किसके पुत्र थे? 

तथा द्विजवंशशिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे? 

यह मुझे बताइये ।। १ -३३ ।।


सौतिरुवाच


महदाख्यानमास्तीकं यथैतत् प्रोच्यते द्विज ।। ४ ।। 

सर्वमेतदशेषेण शृणु मे वदतां वर ।


उग्रश्रवाजीने कहा- ब्रह्मन् ! 

आस्तीकका उपाख्यान बहुत बड़ा है। 

वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! 

यह प्रसंग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा-पूरा सुनो ।। ४३ ।।


शौनक उवाच


श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम् ।। ५ ।।


आस्तीकस्य पुराणर्षेर्बाह्मणस्य यशस्विनः ।


शौनकजीने कहा- सूतनन्दन ! 

पुरातन ऋषि एवं यशस्वी ब्राह्मण आस्तीककी इस मनोरम कथाको मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ ।। ५३ ।।


सौतिरुवाच


इतिहासमिमं विप्राः पुराणं परिचक्षते ।। ६ ।। 

कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिषु । 

पूर्व प्रचोदितः सूतः पिता मे लोमहर्षणः ।। ७ ।। 

शिष्यो व्यासस्य मेधावी ब्राह्मणेष्विदमुक्तवान् । 

तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम् ।। ८ ।।


उग्रश्रवाजीने कहा- 

शौनकजी! ब्राह्मणलोग इस इतिहासको बहुत पुराना बताते हैं। 

पहले मेरे पिता लोमहर्षणजीने, जो व्यासजीके मेधावी शिष्य थे, ऋषियोंके पूछनेपर साक्षात् श्रीकृष्णद्वैपायन ( व्यास ) के कहे हुए इस इतिहासका नैमिषारण्यवासी ब्राह्मणोंके समुदायमें वर्णन किया था। 

उन्हींके मुखसे सुनकर मैं भी इसका यथावत् वर्णन करता हूँ ।। ६-८ ।।


इदमास्तीकमाख्यानं तुभ्यं शौनक पृच्छते । 

कथयिष्याम्यशेषेण सर्वपापप्रणाशनम् ।। ९ ।।


शौनकजी ! यह आस्तीक मुनिका उपाख्यान सब पापोंका नाश करनेवाला है। 

आपके पूछनेपर मैं इसका पूरा - पूरा वर्णन कर रहा हूँ ।। ९ ।।


आस्तीकस्य पिता ह्यासीत् प्रजापतिसमः प्रभुः । 

ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युग्रे रतः सदा ।। १० ।।


आस्तीकके पिता प्रजापतिके समान प्रभावशाली थे। 

ब्रह्मचारी होनेके साथ ही उन्होंने आहारपर भी संयम कर लिया था। 

वे सदा उग्र तपस्यामें संलग्न रहते थे ।। १० ।।


जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्वरता महातपाः । 

स यायावराणां प्रवरो धर्मज्ञः संशितव्रतः ।। ११ ।।  

कदाचिन्महाभागस्तपोबलसमन्वितः । 

चचार पृथिवीं सर्वां यत्रसायंगृहो मुनिः ।। १२ ।।


उनका नाम था जरत्कारु। 

वे ऊध्र्वरता और महान् ऋषि थे। 

यायावरों में उनका स्थान सबसे ऊँचा था। 

वे धर्मके ज्ञाता थे। 

एक समय तपोबलसे सम्पन्न उन महाभाग जरत्कारुने यात्रा प्रारम्भ की। 

वे मुनि - वृत्तिसे रहते हुए जहाँ शाम होती वहीं डेरा डाल देते थे ।। ११-१२ ।।


तीर्थेषु च समाप्लावं कुर्वन्नटति सर्वशः । 

चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः ।। १३ ।।


वे सब तीर्थोंमें स्नान करते हुए घूमते थे। 

उन महातेजस्वी मुनिने कठोर व्रतोंकी ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुःसाध्य थी ।। १३ ।।


क्रमशः...

🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷


पंचाक्षर महात्म्य वर्णन....!

    

इस मन्त्र का वामदेव ऋषि पंक्ति छन्द, देवता साक्षात् मैं ही शिव हूँ, नकारादि पाँच बीज पंच भूतात्मक हैं। 

सर्वव्यापी अव्यय ( ॐ ) प्रणव उसकी आत्मा में हैं। 

हे देवि ! तुम इसकी शक्ति हो।


इस मन्त्र के द्वारा बताये गए विधि पूर्वक न्यास आदि भी करने चाहिए। 

हे शुभे ! इसके बाद मैं तुमसे मन्त्र का ग्रहण करना कहता हूँ।


सत्य परायण, ध्यान परायण गुरु को प्राप्त करके शुद्ध भाव से मन, वाणी और कर्म के द्वारा तथा अनेकों द्रव्यों द्वारा आचार्य ( गुरु ) को सन्तुष्ट करके विधि पूर्वक गुरु मुख से मन्त्र ग्रहण करना चाहिए। 

शुचि स्थान में, अच्छे ग्रह में, अच्छे काल में तथा नक्षत्र में तथा श्रेष्ठ योग में मन्त्र ग्रहण करना चाहिए। 

गृह में मन्त्र जपना समान जानना चाहिए। 

गौ के खिरक में सौ गुना और शिवजी के पास में अनन्त गुना मन्त्र का फल होता है।


जप यज्ञ से सौ गुना उपाँशु जप का होता है। 

जो मन्त्र वाणी से उच्चारण किया जाता है वह वाचिक कहा जाता है। 

जो धीरे - धीरे ओठों को कुछ हिलाते हुए जप किया जाता है उसे उपाँशु कहते हैं। 


केवल मन बुद्धि के द्वारा जप किया जाए और शब्दार्थ का, चिन्तन किया जाए वह मानसिक जप होता है। 

तीनों उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। 


जप यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं। वे विपुल भोगों को तथा मोक्ष को देते हैं, जप से जन्मान्तरों के पाप क्षय होते हैं, मृत्यु को भी जीत लिया जाता है। 

जप से सिद्धि प्राप्त होती है परन्तु सदाचारी पुरुष को सब सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं दुराचारी को नहीं, क्योंकि उसका साधन निष्फल है। 

अतः आचार ही परम धर्म है। 

आचार ही परम तप है तथा आचार ही परम विद्या है। 

आचार से ही परम गति है। 

आचारवान पुरुष ही सब फलों को पाता है तथा आचारहीन पुरुष संसार में निन्दित होता है। 

इस लिये सिद्धि की इच्छा वाले पुरुष को सब प्रकार से आचारवान होना चाहिए।


संन्ध्योपासना करने वाले पुरुष को सब कार्य तथा फल प्राप्त होते हैं। 

अतः काम, क्रोध, लोभ, मोह किसी प्रकार से भी संध्या को नहीं त्यागना चाहिए। 

संध्या न करने से ब्राह्मण ब्राह्मणत्व से नष्ट होता है। 

असत्य भाषण नहीं करना चाहिये। 

पर दारा, पर द्रव्य, पर हिंसा मन वाणी से भी नहीं करनी चाहिए। 

शूद्रान्न, बासा अन्न, गणान्न तथा राजान्न का सदा त्याग करना चाहिए। 

अन्न का परिशोधन अवश्य चाहिए।


बिना स्नान किये, बिना जप किये हुए, अग्नि कार्य न किए हुए भोजन न करें। 

रात्रि में तथा बिना दीपक के तथा पर्णपृष्ठ पर फूटे पात्र में तथा गली में, पतितों के पास भोजन नहीं करना चाहिए। 

शूद्र का शेष तथा बालकों के साथ भोजन न करे। 

शुद्धान्न तथा सुसंस्कृत भोजन का एकाग्र चित्त से भोजन करना चाहिए। 

शिव इसके भोक्ता हैं ऐसा ध्यान करना चाहिए। मुंह से, खड़ा होकर, बायें हाथ से, दूसरे के हाथ से जल नहीं पीना चाहिए। 

अकेला मार्ग में न चले, बाहुओं से नदी को पार न करे, कुआं को न लांघे, पीठ पीछे गुरु या देवता अथवा सूर्य को करके जप आदिक न करे।


अग्नि में पैरों को न तपावे, अग्नि में मल का त्याग न करे। जल में पैरों को न पीटे, जल में नाक, थूक आदि मल का त्याग न करे।


अज, स्वान, खर, ऊँट, मार्जार तथा तुष की धूलि का स्पर्श न करे। 

जिसके घर में बिल्ली रहती है वह अन्त्यज के घर के समान है। 

उस घर में ब्राह्मणों को भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि वह चाण्डाल के समान है।


पाद की हवा, सूप की हवा, प्राण और मुख की हवा मनुष्य के सुकृत का हरण करती है अतः इनसे सदा बचना चाहिए। 

पाग बाँध करके, कंचुकी बाँधकर, केश खोलकर, नंगे होकर, अपवित्र हाथों से, मैल धारण किये हुए जप नहीं करना चाहिए। 

क्रोध, मद, जंभाई लेना, थूकना, प्रलाप, कुत्ता का या नीच का दर्शन, नींद आना ये जप के द्वेषी हैं। 

इनके हो जाने पर सूर्य का दर्शन करना चाहिए तथा आचमन, प्राणायाम करके शेष जप करना चाहिए। 

बिना आसन पर बैठकर, सोकर, खाट पर बैठकर जप न करना चाहिए।


आसन पर बैठकर, रेशमी वस्त्र या बाघ चर्म या लकड़ी का या ताल पर्ण का आसन पर बैठकर मंत्रार्थ का विचार करते हुए जप करना चाहिए। 

त्रिकाल गुरु की पूजा करनी चाहिए। गुरु और शिव एक ही हैं। शिव विद्या और गुरु भक्ति के अनुसार फल मिलता है। 

श्री की इच्छा वाले पुरुष को गुरु की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। 

गुरु के सम्पर्क से मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं। 

गुरु के सन्तुष्ट होने पर सब पाप नष्ट होते हैं। 

ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि सभी देव गुरु की कृपा से ही उस पर सन्तुष्ट होते हैं। 

अतः कर्म, मन, वाणी से गुरु को क्रोध नहीं करना चाहिए। 

गुरु के क्रोध से आयु, ज्ञान, क्रिया सब नष्ट होते हैं। 

उसके यज्ञ निष्फल होते हैं।


शिवजी कहते हैं जो इन्द्रियों का दमन करके पंचाक्षर मन्त्र का जप करता है वह पंच भूतों से विजय को प्राप्त करता है। 

मन का संयम करके जो चार लाख जप करता है वह सभी इन्द्रियों को विजय कर लेता है। 

जो पच्चीस लाख जप करता है वह पच्चीस तत्वों को जीत लेता है। 


बीज सहित संपुट सहित सौ लाख जप करने वाला पवित्र आत्मा परम गति को प्राप्त होकर मुझे पाता है। 

जो इस पंचाक्षर विधि को देव या पितृ कार्य में ब्राह्मणों से सुनेगा या सुनायेगा वह परम गति को प्राप्त होगा।


क्रमशः शेष अगले अंक में...


    क्रोध से बचिये


विश्वामित्र का महर्षि वशिष्ठ से झगड़ा था।

विश्वामित्र बहुत विद्वान थे। 

बहुत तप उन्होंने किया।

पहले महाराजा थे,फिर साधु हो गये। 

वशिष्ठ सदा उनको राजर्षि कहते थे। 

विश्वामित्र कहते थे, "मैंने ब्राह्मणों जैसे सभी कर्म किये हैं,मुझे ब्रह्मर्षि कहो।"

वसिष्ठ मानते नहीं थे;कहते थे,"तुम्हारे अंदर क्रोध बहुत है,तुम राजर्षि हो।"

यह क्रोध बहुत बुरी बला है।

सवा करोड़ नहीं,सवा अरब गायत्री का जाप कर लें,एक बार का क्रोध इसके सारे फल को नष्ट कर देता है।

विश्वामित्र वास्तव में बहुत क्रोधी थे।

क्रोध में उन्होंने सोचा,'मैं इस वसिष्ठ को मार डालूँगा,फिर मुझे महर्षि की जगह राजर्षि कहने वाला कोई रहेगा नहीं।'

ऐसा सोचकर एक छुरा लेकर,वे उस वृक्ष पर जा बैठे जिसके नीचे बैठकर महर्षि वसिष्ठ अपने शिष्यों को पढ़ाते थे।

शिष्य आये; वृक्ष के नीचे बैठ गये। वसिष्ठ आये ; अपने आसन पर विराजमान हो गये। शाम हो गई।

पूर्व के आकाश में पूर्णमासी का चाँद निकल आया।

विश्वामित्र सोच रहे थे,'अभी सब विद्यार्थी चले जाएँगे, अभी वसिष्ठ अकेले रह जायेंगे,अभी मैं नीचे कूदूँगा,एक ही वार में अपने शत्रु का अन्त कर दूँगा।'

तभी एक विद्यार्थी ने नये निकले हुए चाँद की और देखकर कहा,"कितना मधुर चाँद है वह !

कितनी सुन्दरता है !"

वसिष्ठ ने चाँद की और देखा ; बोले, "यदि तुम ऋषि विश्वामित्र को देखो तो इस चांद को भूल जाओ।

यह चाँद सुन्दर अवश्य है परन्तु ऋषि विश्वामित्र इससे भी अधिक सुन्दर हैं।

यदि उनके अंदर क्रोध का कलंक न हो तो वे सूर्य की भाँति चमक उठें।

" विद्यार्थी ने कहा," महाराज ! वे तो आपके शत्रु हैं।

स्थान - स्थान पर आपकी निन्दा करते हैं। 

" वसिष्ठ बोले, " मैं जानता हूँ,मैं यह भी जानता हूँ कि वे मुझसे अधिक विद्वान् हैं, मुझसे अधिक तप उन्होंने किया है,मुझसे अधिक महान हैं वे,मेरा माथा उनके चरणों में झुकता है।"

वृक्ष पर बैठे विश्वामित्र इस बात को सुनकर चौंक पड़े।

वे बैठे थे इसलिए कि वसिष्ठ को मार डालें और वसिष्ठ थे कि उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे।

एकदम वे नीचे कूद पड़े,छुरे को एक ओर फेंक दिया,वसिष्ठ के चरणों में गिरकर बोले,


" मुझे क्षमा करो ! "

वसिष्ठ प्यार से उन्हें उठाकर बोले,

" उठो ब्रह्मर्षि ! "

विश्मामित्र ने आश्चर्य से कहा, " ब्रह्मर्षि ? "

आपने मुझे ब्रह्मर्षि कहा ?

" परन्तु आप तो ये मानते नहीं हैं ? "

वसिष्ठ बोले,"आज से तुम ब्रह्मर्षि हुए। 

महापुरुष !

" तुम्हारे अन्दर जो चाण्डाल ( क्रोध ) था,वह निकल गया।"

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण 


श्रीअयोध्या - माहात्म्य


सम्भेदतीर्थ, सीताकुण्ड, गुप्तहरि और चक्रहरि तीर्थ की महिमा...! 


भगवान् शिव बोले- जो संसारसमुद्रसे तारने और गरुड़जीको सुख देनेवाले हैं, घनीभूत मोहान्धकारका निवारण करनेके लिये चन्द्रस्वरूप हैं, उन भगवान् श्रीहरिको नमस्कार है। 

जहाँ ज्ञानमयी मणिकी प्रज्वलित शिखा प्रकाशित होती है तथा जो चित्तमें भगवत्संगरूपी सुधाकी वर्षा करनेवाली चन्द्रिकाके तुल्य है, मानसके उद्यानमें जो प्रवाहित होती है, उस भगवद्भक्तिरूपी मन्दाकिनीकी मैं शरण लेता हूँ। 

वह लीलापूर्वक उत्साहशक्तिको जाग्रत् करनेवाली तथा सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त है। 

सात्त्विक भावोंकी पूर्वकोटि है। 

उसे ही वैष्णवी शक्ति कहते हैं। 

हवासे हिलते हुए कमलदलके पर्वके भीतर रहनेवाले पतनशील जन्तुओंकी भाँति पतनके गर्तमें गिरनेवाले प्राणियोंको स्थिरता देनेवाली एकमात्र श्रीहरिकी स्मृति ही है। 

हृदयकमलकी कलिकाको विकसित करनेवाली ज्ञानरूपी किरणमालाओंसे मण्डित सूर्यस्वरूप आप भगवान्‌को नमस्कार है। 

योगियोंकी एकमात्र गति आप संयमशील श्रीहरिको नमस्कार है। 

तेज और अन्धकार दोनोंसे परे विराजमान आप परमेश्वरको नमस्कार है। 

आप यज्ञस्वरूप, हविष्यके उपभोक्ता तथा ऋक्, यजु एवं सामवेदस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। 

भगवती सरस्वतीके द्वारा गाये जानेवाले दिव्य सद्‌गुणोंसे विभूषित आप भगवान् विष्णुको नमस्कार है। आप शान्तस्वरूप, धर्मके निधि, क्षेत्रज्ञ एवं अमृतात्मा हैं, आपको नमस्कार है। 

आप साधकके योगकी प्रतिष्ठा तथा जीवके एकमात्र हेतु हैं, आपको नमस्कार है। 

आप घोरस्वरूप, मायाकी विधि तथा सहस्रों मस्तकवाले हैं, आपको नमस्कार है। 

आप योगनिद्रास्वरूप होकर शयन करते और अपने नाभिकमलसे उत्पन्न संसारकी सृष्टि रचते हैं, आपको नमस्कार है। 

आप जलस्वरूप एवं संसारकी स्थितिके कारण हैं, आपको नमस्कार है। 

आपके कार्योद्वारा आपकी शक्तिका अनुमान होता है। आप महाबली, सबके जीवन और परमात्मा हैं, आपको नमस्कार है। 

समस्त भूतोंके रक्षक और प्राण आप ही हैं, आप ही विश्व तथा उसके स्रष्टा ब्रह्मा हैं, आपको नमस्कार है। 

आप नृसिंहशरीर धारण करके दर्पयुक्त हो दैत्यका संहार करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। 

आप ही सबके पराक्रम हैं। 

आपका हृदय अनन्त है। 

आप सम्पूर्ण संसारके भावको ग्रहण करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। 

आप संसारके कारणभूत अज्ञानरूपी घोर अन्धकारका नाश करनेवाले हैं। 

आपका धाम अचिन्त्य है, आपको नमस्कार है। 

आप गूढ़रूपसे स्थित तथा अत्यन्त उद्वेगकारक रुद्र हैं, आपको नमस्कार है। 

आप शान्त हैं, जहाँ समस्त ऊर्मियाँ शान्त हो जाती हैं ऐसे कैवल्यपदको देनेवाले हैं। 

सम्पूर्ण भावपदार्थोंसे परे तथा सर्वमय हैं, आपको नमस्कार है। 

जो नील कमलके समान श्याम हैं और चमकते हुए केसरके समान सुशोभित कौस्तुभमणि धारण करते हैं तथा नेत्रोंके लिये रसायनरूप हैं, ऐसे आप भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ।


क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु


aadhyatmikta ka nasha

एक लोटा पानी।

 श्रीहरिः एक लोटा पानी।  मूर्तिमान् परोपकार...! वह आपादमस्तक गंदा आदमी था।  मैली धोती और फटा हुआ कुर्ता उसका परिधान था।  सिरपर कपड़ेकी एक पु...

aadhyatmikta ka nasha 1