https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 2. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 1: जुलाई 2025

श्रीस्कन्द महापुराण श्री लिंग महापुराण श्रीमहाभारतम् :

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण  श्री लिंग महापुराण श्रीमहाभारतम् :

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :


ब्राह्मखण्ड ( सेतु - महात्म्य )


चक्रतीर्थ, शिवतीर्थ, शंखतीर्थ और यमुना, गंगा एवं गयातीर्थ की महिमा - राजा जानश्रुति को रैक्व के उपदेश से ब्रह्मभाव की प्राप्ति...(भाग 2) 




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महर्षि रैक्व पहले गन्धमादन पर्वतपर रहकर अत्यन्त दुष्कर तपस्या करते थे। 

वे जन्मसे ही पंगु थे। 

अतः गन्धमादन पर्वतपर जो-जो तीर्थ हैं, वे उन्हींकी यात्रा करते थे; क्योंकि वे सब समीपवर्ती थे। 

पैदल न चल सकनेके कारण वे गाड़ीसे ही उन तीर्थोंमें जाते थे। 

इसी लिये गाड़ीवाले रैक्वके नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई। 

उन्होंने तपस्यासे अपना शरीर सुखा डाला था। 

उनके उस शरीरमें खाज हो गयी थी, जिसे वे दिन-रात खुजलाते रहते थे। 

फिर भी उन्होंने तपस्या नहीं छोड़ी। 

एक दिन उनके मनमें ऐसा विचार हुआ कि 'मैं यमुना, गंगा और गया-इन तीनों पवित्र तीर्थोंमें स्नान करूँ; परंतु मैं तो जन्मसे ही पंगु हूँ, अतः मेरे लिये वहाँका स्नान दुर्लभ है। 

गाड़ीसे इतनी दूरकी यात्रा नहीं की जा सकती। 

तब इस समय मैं क्या करूँ?

' इस प्रकार तर्क-वितर्क करते हुए महाबुद्धिमान् रैक्वने तीनों तीर्थोंमें स्नान करनेके सम्बन्धमें अपने कर्तव्यका निश्चय किया। 

उन्होंने सोचा- 'मेरा तपोबल दुर्धर्ष एवं असह्य है, उसीके द्वारा मैं यहाँ उक्त तीर्थोंका आवाहन करूँगा।' 

मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके वे पूर्वाभिमुख बैठे, मन-इन्द्रियोंको संयममें रखकर तीन बार आचमन किया और एक क्षणतक ध्यानमें लगे रहे। 

उनके मन्त्रके प्रभावसे महानदी यमुना, गंगा और पापनाशिनी गया- तीनों भूमि फोड़कर सहसा पातालसे प्रकट हुईं और मानव शरीर धारणकर गाड़ीवाले रैक्वके समीप आ उन्हें प्रसन्न करती हुई प्रसन्नतापूर्वक बोलीं- "रैक्व ! 

तुम्हारा कल्याण हो, इस ध्यानसे निवृत्त होओ। 

तुम्हारे मन्त्रसे आकृष्ट हो हम तीनों यहाँ उपस्थित हुई हैं।'





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उनका यह वचन सुनकर महामुनि रैक्व ध्यानसे निवृत्त हुए और उन्हें अपने सामने उपस्थित देखा। 

तब उन्होंने उन तीनोंका पूजन करके कहा-'हे यमुने ! 

हे देवि गंगे! और हे पापनाशिनी गये! 

तुम तीनों गन्धमादन पर्वतपर वहीं निवास करो, जहाँ भूमि फोड़कर यहाँ प्रकट हुई हो। 

वे स्थान तुम्हारे नामसे पवित्र तीर्थ हो जायँ।' 

तब वे तीनों देवियाँ 'तथास्तु' कहकर सहसा अन्तर्धान हो गयीं। 

तब से ये तीनों तीर्थ भूतलमें मनुष्योंद्वारा उन्हीं के नामसे पुकारे जाते हैं। 

जहाँ भूमि फोड़कर यमुना निकली, उसी स्थानको लोग 'यमुनातीर्थ' कहते हैं, जहाँ पृथ्वीके छिद्रसे सहसा गंगाका प्रादुर्भाव हुआ, वह स्थान लोकमें पापनाशक 'गंगातीर्थ 'के नामसे विख्यात हुआ और जहाँ गयाका प्रादुर्भाव हुआ, वह भूमि - विवर 'गयातीर्थ' कहलाता है। 

इस प्रकार वे तीनों तीर्थ बड़े पवित्र हैं। 

जो मनुष्य इन उत्तम तीर्थोंमें स्नान करते हैं, उनके अज्ञानका नाश और ज्ञानका उदय होता है। 

रैक्व मुनि अपने मन्त्र द्वारा आकर्षित किये हुए उन तीनों तीर्थों में स्नान करते हुए समय व्यतीत करने लगे।


इसी समय महाराज जान श्रुति इस भूतल पर राज्य करते थे। वे राजर्षि पुत्रके पौत्र थे और एक मात्र धर्मके आचरणमें ही संलग्न रहते थे। 

याचकों को श्रद्धापूर्वक अन्न आदि देते थे। 

अतः मुनिलोग उन्हें लोकमें 'श्रद्धादेय' कहते थे। 

भूखे याचकोंकी तृप्तिके लिये उस अन्न-धन-सम्पन्न राजाके यहाँ नाना प्रकारके वचन कहे जाते थे, इस लिये सब याचकोंने उनका नाम 'बहुवाक्य' रख दिया था। 

जनश्रुत के पुत्र महाबली जानश्रुतिको अतिथि बहुत प्रिय थे। 

इस लिये वे बहुत दान करनेके कारण 'बहुदायी' के नामसे प्रसिद्ध हुए। 

नगरोंमें, राज्यमें, गाँवों और जंगलोंमें, चौराहोंपर तथा सभी बड़े - बड़े मार्गोंमें उनकी ओरसे खाने पीनेकी बहुत सामग्री प्रस्तुत रहती थी। 

अतिथियों की तृप्तिके लिये वे अन्न, पान, दाल, साग आदि उत्तम भोजनकी व्यवस्था रखते थे। 

उस पौत्रायण राजाके गुणोंसे महाभाग देवर्षि बहुत सन्तुष्ट हुए। 

उन सबके मनमें राजाके ऊपर कृपा करनेकी इच्छा हुई। 

एक दिन राजा जानश्रुति गरमीकी रातमें अपने महलके भीतर खिड़कीके पास सो रहे थे। 

उसी समय देवर्षिगण हंसका रूप धारण करके एक पंक्तिमें आकाशमार्गसे उड़ते हुए आये और राजाके ऊपर होकर जाने लगे। 

उस समय बड़े वेगसे उड़ते हुए एक हंसने आगे जानेवाले हंसको सम्बोधित करके राजाको सुनाते हुए उपहासपूर्वक कहा- 'भल्लाक्ष ! 

अरे ओ भल्लाक्ष! क्या आगे-आगे जाता हुआ तू अन्धोंकी नाईं देखता नहीं है कि आगे पूजनीय राजा जानश्रुति विराजमान हैं? 

यदि तू उन राजर्षिको लाँधकर ऊपर जायगा, तो उनका तेज इस समय तुझे जलाकर भस्म कर डालेगा।

ऐसा कहते हुए उस हंसको आगे जानेवाले हंसने उत्तर दिया- '

अहो! तुम तो बड़े ज्ञानी हो, विद्वानोंके द्वारा भी प्रशंसनीय हो, तथापि इस तुच्छ मनुष्यकी इतनी प्रशंसा क्यों करते हो? 

यह धर्मोंके रहस्यको नहीं जानता, जैसा कि ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ गाड़ीवाले रैक्व मुनि जानते हैं। 

इस राजा का तेज उनके समान नहीं है। 

रैक्वकी पुण्यराशियोंकी इयत्ता ( संख्या ) नहीं हो सकती। 

पृथ्वीके धूलिकण गिने जा सकते हैं, आकाशके नक्षत्र भी गणनामें आ सकते हैं, परंतु रैक्व मुनिके महामेरु - सदृश पुण्यपुंजोंकी गणना नहीं की जा सकती। 

राजा जानश्रुतिमें तो वैसा धर्म ही नहीं है, फिर वह ज्ञान - वैभव कहाँसे हो सकता है। 

अतः इस तुच्छ मनुष्यकी चर्चा छोड़कर उसी गाड़ीवाले रैक्व मुनिकी प्रशंसा करो। 

' उन्हों ने जन्मसे पंगु होकर भी स्नान करनेकी इच्छा से मन्त्रद्वारा यमुना, गंगा और गयाको भी अपने आश्रमके समीप बुला लिया है।'


क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी





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श्री लिंग महापुराण 


तत्व शुद्धि वर्णन....(भाग 2)

 

हजारों अश्वमेघ से जो फल प्राप्त होता है वह फल सूर्य को अर्थ देने से प्राप्त होता है। 

भक्ति से सूर्य को अर्घ देकर पुनः त्र्यम्बक भगवान का पूजन करे। 

भास्कर का पूजन करके आग्नेय स्नान करे। 

फिर योगी पद्मासन लगाकर प्राणायाम करे। 

लाल पुष्प तथा कमल पुष्पों को लेकर दक्षिण भाग में स्थित करे। 

सर्व कार्यों में सर्व सिद्धि करने के लिए ताम्र पात्र श्रेष्ठ कहे हैं पुनः पूजा की सब सामग्री को जल से प्रक्षालन करे। 

सर्व देवों के द्वारा नमस्कार करने योग्य आदित्य का जप करे। 

मन्त्र बोलकर सूर्य को नमस्कार करे।


दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अघोरा, विकृता आठ शक्तियाँ सूर्य भगवान के सामने हाथ जोड़ कर खड़ी रहती है। 

इन के मध्य में सर्वतोमुखी वरदान देने वाली देवी की स्थापना है। 

वाष्कल मन्त्र से इनका आवाहन और पूजा करे। पद्मनाभ की भास्कर की मुद्रा बनावे। 

मूल मन्त्र से पाद्य आचमन आदि करावे। 

रक्त पुष्प, रक्त चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य आदि तथा ताम्बूल वाष्कल मन्त्र के ही द्वारा अर्पण करे। 

दीपक़ भी इस मन्त्र से प्रदान करे। कमल की कर्णिका में अष्ट मूर्ति का विन्यास करके ध्यान करे। 

बिजली की सी चमक वाली शान्त स्वरूप, अस्त्र धारिणी, सब आभरणों से युक्त, रक्त चन्दन, माला व वस्त्र धारण किये हुए, सिन्दूर के समान अरुण वर्ण वाली ऐसी अष्ट मूर्ति भास्कर रूप महेश्वर का ध्यान करे। 

उसी मण्डल में सोम, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु का भी ध्यान करे। 

सभी दो भुजा तथा दो नेत्र वाले हैं परन्तु राहु का तो ऊर्ध्व शरीर ही है।





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इनको इनके नाम से प्रणव आदि में लेकर नमः बाद में लगाकर पूजना चाहिए। 

जैसे ॐ सोमायनमः इस प्रकार करने से सर्व सिद्धि, धर्म, अर्थ की प्राप्ति होती है। 

सब देवता, ऋषिगण, पन्नग और अप्सरायें, यातुधान, सप्त अश्व जो छन्दमय हैं, बालखिल्य ऋषियों का गण आदि सबका पृथक - पृथक अर्घ पाद्य आचमन से पूजन करे। 

पूजन के बाद हजार आधा हजार या १०८ बार वाष्कल मन्त्र का जप करना चाहिए। 

जप के दशाँश पश्चिम दिशा में परिमाण के अनुसार कुण्ड बनाकर हवन करना चाहिए। 

प्रभावती शक्ति का गन्ध, पुष्प आदि से वाष्कल मन्त्र से पूजन करे। 

पश्चात् मूल मन्त्र से पूर्णाहुति करे। 

भास्कर रूप देव देव शंकर का अंगों सहित पूजन करके अर्थ और प्रदक्षिणा करनी चाहिए। 

इस प्रकार मैंने संक्षेप से सूर्य भगवान का पूजन कहा।


जो पुरुष इस प्रकार देव देव जगद्‌गुरु भास्कर का एक बार भी पूजन करेगा वह परम गति को प्राप्त हो वेगा। 

वह पुरुष सर्व ऐश्वर्य युक्त, पुत्र पौत्रादि भाई बन्धुओं से सम्पन्न विपुल भोगों को भोगकर, धन, धान्य युक्त, यान वाहन से सम्पन्न विविध प्रकार के भूषणों से युक्तः काल गति को प्राप्त होकर सूर्य के साथ अक्षय काल तक आनन्द को प्राप्त होता है। 

फिर यहाँ आकर राजा होता है अथवा वेद वेदाँग सम्पन्न ब्राह्मण होता है। 

फिर पूर्व की वासना के योग से वह सूर्य भगवान की आराधना करके सूर्य की सायुज्यता को प्राप्त होता है।


क्रमशः शेष अगले अंक में...






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श्रीमहाभारतम् 


।। श्रीहरिः ।।

* श्रीगणेशाय नमः *

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।


(आस्तीकपर्व)


त्रिंशोऽध्यायः


गरुड का कश्यपजी से मिलना, उनकी प्रार्थना से वालखिल्य ऋषियों का शाखा छोड़कर तप के लिये प्रस्थान और गरुड का निर्जन पर्वत पर उस शाखा को छोड़ना...(दिन 116)


सौतिरुवाच


एवमुक्ता भगवता मुनयस्ते समभ्ययुः ।

मुक्त्वा शाखां गिरिं पुण्यं हिमवन्तं तपोऽर्थिनः ।। १८ ।।


उग्रश्रवाजी कहते हैं- 

भगवान् कश्यपके इस प्रकार अनुरोध करनेपर वे वालखिल्य मुनि उस शाखाको छोड़कर तपस्या करनेके लिये परम पुण्यमय हिमालयपर चले ततस्तेष्वपयातेषु पितरं विनतासुतः । 

शाखाव्याक्षिप्तवदनः पर्यपृच्छत कश्यपम् ।। १९ ।।


उनके चले जानेपर विनतानन्दन गरुडने, जो मुँहमें शाखा लिये रहनेके कारण कठिनाईसे बोल पाते थे, अपने पिता कश्यपजीसे पूछा- ।। १९ ।।




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भगवन् क्व विमुञ्चामि तरोः शाखामिमामहम् । 

वर्जितं मानुषैर्देशमाख्यातु भगवान् मम ।। २० ।।


'भगवन् ! इस वृक्षकी शाखाको मैं कहाँ छोड़ दूँ? 

आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावें जहाँ बहुत दूरतक मनुष्य न रहते हों' ।। २० ।।


ततो निःपुरुषं शैलं हिमसंरुद्धकन्दरम् । 

अगम्यं मनसाप्यन्यैस्तस्याचख्यौ स कश्यपः ।। २१ ।।


तब कश्यपजीने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया, जो सर्वथा निर्जन था। 

जिसकी कन्दराएँ बर्फसे ढकी हुई थीं और जहाँ दूसरा कोई मनसे भी नहीं पहुँच सकता था ।। २१ ।।


तं पर्वतं महाकुक्षिमुद्दिश्य स महाखगः । 

जवेनाभ्यपतत् तार्थ्यः सशाखागजकच्छपः ।। २२ ।।


उस बड़े पेटवाले पर्वतका पता पाकर महान् पक्षी गरुड उसीको लक्ष्य करके शाखा, हाथी और कछुएसहित बड़े वेगसे उड़े ।। २२ ।।


न तां वध्री परिणहेच्छतचर्मा महातनुभ् । 

शाखिनो महतीं शाखां यां प्रगृह्य ययौ खगः ।। २३ ।।


गरुड वटवृक्षकी जिस विशाल शाखाको चोंचमें लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थी कि सौ पशुओंके चमड़ोंसे बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी ।। २३ ।।


स ततः शतसाहस्रं योजनान्तरमागतः । 

कालेन नातिमहता गरुडः पतगेश्वरः ।। २४ ।।


पक्षिराज गरुड उसे लेकर थोड़ी ही देरमें वहाँसे एक लाख योजन दूर चले आये ।। २४ ।।





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स तं गत्वा क्षणेनैव पर्वतं वचनात् पितुः । 

अमुञ्चन्महतीं शाखां सस्वनं तत्र खेचरः ।। २५ ।।


पिताके आदेशसे क्षणभरमें उस पर्वतपर पहुँचकर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़ दी। 

गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ ।। २५ ।। 


पक्षानिलहतश्चास्य प्राकम्पत स शैलराट् ।

मुमोच पुष्पवर्ष च समागलितपादपः ।। २६ ।।


वह पर्वतराज उनके पंखोंकी वायुसे आहत होकर काँप उठा। 

उसपर उगे हुए बहुतेरे वृक्ष गिर पड़े और वह फूलोंकी वर्षा-सी करने लगा ।। २६ ।।


शृङ्गाणि च व्यशीर्यन्त गिरेस्तस्य समन्ततः । 

मणिकाञ्चनचित्राणि शोभयन्ति महागिरिम् ।। २७ ।।


उस पर्वतके मणिकांचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान् शैलकी शोभा बढ़ा रहे थे, सब ओरसे चूर-चूर होकर गिर पड़े ।। २७ ।।


शाखिनो बहवश्चापि शाखयाभिहतास्तया । 

काञ्चनैः कुसुमैर्भान्ति विद्युत्वन्त इवाम्बुदाः ।। २८ ।।


उस विशाल शाखासे टकराकर बहुत-से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमय फूलोंके कारण बिजलीसहित मेघोंकी भाँति शोभा पाते थे ।। २८ ।।


ते हेमविकचा भूमौ युताः पर्वतधातुभिः । 

व्यराजञ्छाखिनस्तत्र सूर्याशुप्रतिरञ्जिताः ।। २९ ।।


सुवर्णमय पुष्पवाले वे वृक्ष धरतीपर गिरकर पर्वतके गेरू आदि धातुओंसे संयुक्त हो सूर्यकी किरणोंद्वारा रँगे हुए-से सुशोभित होते थे ।। २९ ।।


ततस्तस्य गिरेः शृङ्गमास्थाय स खगोत्तमः । 

भक्षयामास गरुडस्तावुभौ गजकच्छपौ ।। ३० ।।


तदनन्तर पक्षिराज गरुडने उसी पर्वतकी एक चोटीपर बैठकर उन दोनों-हाथी और कछुएको खाया ।। ३० ।।


तावुभौ भक्षयित्वा तु स तार्थ्यः कूर्मकुञ्जरौ । 

ततः पर्वतकूटाग्रादुत्पपात महाजवः ।। ३१ ।।


इस प्रकार कछुए और हाथी दोनोंको खाकर महान् वेगशाली गरुड पर्वतकी उस चोटीसे ही ऊपरकी ओर उड़े ।। ३१ ।।


क्रमशः...

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :

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श्रीमहाभारतम् :


।। श्रीहरिः ।।

श्रीगणेशाय नमः 

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।


( आस्तीकपर्व )


एकोनविंशोऽध्यायः


देवताओं का अमृतपान, देवासुर संग्राम तथा देवताओं की विजय...!


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अथावरणमुख्यानि नानाप्रहरणानि च । 

प्रगृह्याभ्यद्रवन् देवान् सहिता दैत्यदानवाः ।। १ ।।


उग्रश्रवाजी कहते हैं- अमृत हाथसे निकल जानेपर दैत्य और दानव संगठित हो गये और उत्तम - उत्तम कवच तथा नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओंपर टूट पड़े ।। १ ।।


ततस्तदमृतं देवो विष्णुरादाय वीर्यवान् । 

जहार दानवेन्द्रेभ्यो नरेण सहितः प्रभुः ।। २ ।। 


ततो देवगणाः सर्वे पपुस्तदमृतं तदा । 

विष्णोः सकाशात् सम्प्राप्य सम्भ्रमे तुमुले सति ।। ३ ।।





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उधर अनन्त शक्तिशाली नरसहित भगवान् नारायणने जब मोहिनीरूप धारण करके दानवेन्द्रोंके हाथसे अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान् विष्णुसे अमृत ले-लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्धकी सम्भावना हो गयी थी ।। २-३ ।।


ततः पिबत्सु तत्कालं देवेष्वमृतमीप्सितम् । 

राहुर्विबुधरूपेण दानवः प्रापिबत् तदा ।। ४ ।।


जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृतका पान कर रहे थे, ठीक उसी समय राहु नामक दानवने देवतारूपसे आकर अमृत पीना आरम्भ किया ।। ४ ।।


तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामृते तदा । 

आख्यातं चन्द्रसूर्याभ्यां सुराणां हितकाम्यया ।। ५ ।।


वह अमृत अभी उस दानवके कण्ठतक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्यने देवताओंके हितकी इच्छासे उसका भेद बतला दिया ।। ५ ।।


ततो भगवता तस्य शिरश्छिन्नमलंकृतम् । 

चक्रायुधेन चक्रेण पिबतोऽमृतमोजसा ।। ६ ।। 




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तब चक्रधारी भगवान् श्रीहरिने अमृत पीनेवाले उस दानवका मुकुटमण्डित मस्तक चक्रद्वारा बलपूर्वक काट दिया ।। ६ ।।


तच्छैलशृङ्गप्रतिमं दानवस्य शिरो महत् । 

चक्रच्छिन्नं खमुत्पत्य ननादातिभयंकरम् ।। ७ ।।


चक्रसे कटा हुआ दानवका महान् मस्तक पर्वतके शिखर-सा जान पड़ता था। वह आकाशमें उछल-उछलकर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा ।। ७ ।।


तत् कबन्धं पपातास्य विस्फुरद् धरणीतले । 

सपर्वतवनद्वीपां दैत्यस्याकम्पयन् महीम् ।। ८ ।।


किंतु उस दैत्यका वह धड़ धरतीपर गिर पड़ा और पर्वत, वन तथा द्वीपोंसहित समूची पृथ्वीको कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा ।। ८ ।।


ततो वैरविनिर्बन्धः कृतो राहुमुखेन वै । 

शाश्वतश्चन्द्रसूर्याभ्यां ग्रसत्यद्यापि चैव तौ ।। ९ ।।


तभीसे राहुके मुखने चन्द्रमा और सूर्यके साथ भारी एवं स्थायी वैर बाँध लिया; इसीलिये वह आज भी दोनोंपर ग्रहण लगाता है ।। ९ ।।


विहाय भगवांश्चापि स्त्रीरूपमतुलं हरिः ।

नानाप्रहरणैर्भीमैर्दानवान् समकम्पयत् ।। १० ।।


( देवताओंको अमृत पिलानेके बाद ) भगवान् श्रीहरिने भी अपना अनुपम मोहिनीरूप त्यागकर नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा दानवोंको अत्यन्त कम्पित कर दिया ।। १० ।।


ततः प्रवृत्तः संग्रामः समीपे लवणाम्भसः ।

सुराणामसुराणां च सर्वघोरतरो महान् ।। ११ ।।


फिर तो क्षारसागरके समीप देवताओं और असुरोंका सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ गया ।। ११ ।।


प्रासाश्च विपुलास्तीक्ष्णा न्यपतन्त सहस्रशः । 

तोमराश्च सुतीक्ष्णाग्राः शस्त्राणि विविधानि च ।। १२ ।।


दोनों दलोंपर सहस्रों तीखी धारवाले बड़े-बड़े भालोंकी मार पड़ने लगी। 

तेज नोकवाले तोमर तथा भाँति-भाँतिके शस्त्र बरसने लगे ।। १२ ।।


ततोऽसुराश्चक्रभिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु । 

असिशक्तिगदारुग्णा निपेतुर्धरणीतले ।। १३ ।।


 छिन्नानि पट्टिशैश्चैव शिरांसि युधि दारुणैः । 

तप्तकाञ्चनमालीनि निपेतुरनिशं तदा ।। १४ ।।


भगवान्के चक्रसे छिन्न-भिन्न तथा देवताओंके खड्ग, शक्ति और गदासे घायल हुए असुर मुखसे अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वीपर लोटने लगे। 

उस समय तपाये हुए सुवर्णकी मालाओंसे विभूषित दानवोंके सिर भयंकर पट्टिशोंसे कटकर निरन्तर युद्धभूमि में गिर रहे थे ।। १३-१४ ।।


क्रमशः...




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श्री लिंग महापुराण :


विष्णु भगवान द्वारा शिवजी की सहस्त्र नामों से स्तुति करना....!

  

ऋषियों ने पूछा- हे सूतजी ! 

देव देव महेश्वर से विष्णु भगवान ने सुदर्शन चक्र किस प्रकार प्राप्त किया। 

सो हमारे प्रति वर्णन कीजिए।


सूतजी बोले- हे मुनियो ! 

एक बार देवता और असुरों में घोर संग्राम हुआ। 

देवता असुरों के अनेकानेक शस्त्र अस्त्रों से पीड़ित हुये भाग कर विष्णु भगवान के पास आये। 

प्रणाम करने पर भयभीत हुये देवों को देखकर हरि ने पूछा- हे देवताओं! 

क्या आपत्ति है जिससे सन्ताप युक्त दौड़कर आये हो। देवता बोले- हे विष्णो ! 

हम लोग दैत्यों से पराजित हुए आपकी शरण में आये हैं। 

तुम ही जगत के कर्ता और हर्ता हो। 

हमारी रक्षा करो। 

वे दैत्य, देव वरदान के कारण वैष्णव रौद्र सौर, वायव्य आदि शस्त्रों से अवध्य हैं। 

आपका चक्र जो सूर्य मण्डल से उत्पन्न है कुण्ठित है। 

दण्ड, शार्ङ्ग और सब शस्त्र दैत्यों ने प्राप्त कर लिए हैं। 

पूर्व में त्रिपुरारी शिव ने जलन्धर को मारने के लिए जो तीक्ष्ण चक्र निर्माण किया था। 

उससे मार सकोगे अन्य शस्त्रों से नहीं।


विष्णु बोले- हे देवो ! 

त्रिपुरारी ने जो चक्र जलन्धर के वध के लिए बनाया है उसी से सब दैत्यों को बन्धु-बान्धवों सहित मार कर तुम्हारे सन्ताप को दूर करूँगा। 

ऐसा कहकर विष्णु ने हिमालय शिखर पर महादेव के लिंग की स्थापना करी जो कि मेरु पर्वत के समान विश्वकर्मा ने निर्माण किया। शिव सहस्त्र नाम से विष्णु भगवान ने पूजन किया और स्तुति की। 

सहस्त्र नाम से पूजन करते हुए प्रत्येक नाम पर कमल पुष्प से पूजन करने लगे और समिधा स्थापित कर अग्नि में सहस्त्र नाम से आहुति की। 

श्री विष्णु ने शिव के सहस्त्र नाम का पाठ किया। 

हे भव, शिव, हर, रुद्र, नीललोहित, पद्मलोचन, अष्टमूर्ति, विश्वमूर्ति, वामदेव, महादेव इत्यादि सहस्त्र नाम से स्तुति की।


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संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :


श्रीअयोध्या-महात्म्य


गयाकूप आदि अनेक तीर्थों का माहात्म्य तथा ग्रन्थ का उपसंहार...! 


इसके उत्तरमें वीर मत्तगजेन्द्रका शुभ सूचक स्थान है। 

उनके सामने जो सरोवर है, उसमें स्नान करके जो निश्चितरूपसे वहाँ निवास करता है, वह पूर्ण सिद्धिको पाता है। 

अयोध्याकी रक्षा करनेवाले वीर मत्तगजेन्द्र समस्त कामनाओंकी सिद्धि करनेवाले हैं। 

उसके पश्चिम भागमें परम पुरुषार्थी वीर पिण्डारकका स्थान है। 

सरयूके जलमें स्नान करके वीर पिण्डारककी पूजा करे। 

वे पापियोंको मोहनेवाले और पुण्यात्माओंको सदा सद्बुद्धि प्रदान करनेवाले हैं। 

पिण्डारकके पश्चिम भागमें विघ्नेश्वर ( गणेश ) जीकी पूजा करे। 

उनके दर्शन करनेसे मनुष्योंको लेशमात्र विघ्नका भी सामना नहीं करना पड़ता। 

विघ्नेशसे ईशान कोणमें श्रीरामजन्म स्थान है। 

इसे 'जन्म - स्थान' कहते हैं। 

यह मोक्षादि फलोंकी सिद्धि करनेवाला है। 

विघ्नेशसे पूर्व, वशिष्ठसे उत्तर तथा लोमशसे पश्चिम भागमें जन्मस्थान तीर्थ माना गया है। 

उसका दर्शन करके मनुष्य गर्भवासपर विजय पा लेता है। 

रामनवमीके दिन व्रत करनेवाला मनुष्य स्नान और दानके प्रभावसे जन्म - मृत्युके बन्धनसे छूट जाता है। 

आश्रममें निवास करनेवाले तपस्वी पुरुषोंको जो फल प्राप्त होता है, सहस्रों राजसूय और प्रतिवर्ष अग्निहोत्र करनेसे जो फल मिलता है, जन्मस्थानमें नियममें स्थित पुरुषके दर्शनसे तथा माता, पिता और गुरुकी भक्ति करनेवाले सत्पुरुषोंके दर्शनसे मनुष्य जिस फलको पाता है, वही सब फल जन्मभूमिके दर्शनसे प्राप्त कर लेता है। 

सरयूका दर्शन करके भी मनुष्य उस फलको पा लेता है। 

एक निमेष या आधे निमेष भी किया हुआ श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान मनुष्योंके संसार - बन्धनके कारणभूत अज्ञानका निश्चय ही नाश करनेवाला है। 

जहाँ कहीं भी रहकर जो मनसे अयोध्याजीका स्मरण करता है, उसकी पुनरावृत्ति नहीं होती। 

सरयू नदी सदा मोक्ष देनेवाली है। 

यह जलरूपसे साक्षात् परब्रह्म है। 

यहाँ कर्मका भोग नहीं करना पड़ता। 

इसमें स्नान करनेसे मनुष्य श्रीरामरूप हो जाता है। 

पशु, पक्षी, मृग तथा अन्य जो पापयोनि प्राणी हैं, वे सभी मुक्त होकर स्वर्गलोकमें जाते हैं, जैसा कि श्रीरामचन्द्रजीका वचन है। 

सत्यतीर्थ, क्षमातीर्थ, इन्द्रियनिग्रहतीर्थ, सर्वभूतदयातीर्थ, सत्यवादितातीर्थ, ज्ञानतीर्थ और तपस्तीर्थ-ये सात मानसतीर्थ कहे गये हैं। 

सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दया करनारूप जो तीर्थ है, उसमें मनको विशेष शुद्धि होती है। 

केवल जलसे शरीरको पवित्र कर लेना ही स्नान नहीं कहलाता। 

जिस पुरुषका मन भलीभाँति शुद्ध है, उसीने वास्तवमें तीर्थस्नान किया है। 

भूमिपर वर्तमान जो तीर्थ हैं उनकी पवित्रताका कारण यह है। 

जैसे शरीरके कोई अंग मध्यम और कोई उत्तम माने गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वीपर भी कुछ प्रदेश अत्यन्त पवित्र होते हैं। 

इस लिये भौम और मानस दोनों प्रकारके तीर्थोंमें निवास करना चाहिये। 

जो दोनों में स्नान करता है वह परमगतिको प्राप्त होता है। 

जलचर जीव जलमें ही जन्म लेते और जलमें ही मरते हैं, परंतु वे स्वर्गमें नहीं जाते; क्योंकि उनका मन अशुद्ध होता है और वे मलिन होते हैं। 

विषयोंमें निरन्तर राग होना मनका मल कहलाता है। 

उन्हीं विषयों में जब आसक्ति न रह जाय, तब उसे मनकी निर्मलता कहते हैं। 

यदि मनुष्य भावसे निर्मल है- 

उसके अन्तःकरणमें शुद्ध भाव है तो उसके लिये दान, यज्ञ, तप, शौच, तीर्थसेवा और वेर्दोका अध्ययन ये सभी तीर्थ हैं। 

इन्द्रियसमुदायको वशमें रखनेवाला पुरुष जहाँ निवास करता है, वहीं उसके लिये कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर हैं। 

यह मानसतीर्थका लक्षण बतलाया गया, जिसमें स्नान करनेसे क्रियावान् पुरुषोंके सब कर्म सफल होते हैं। 

बुद्धिमान् मनुष्य प्रातःकाल उठकर संगममें स्नान करे, फिर भगवान् विष्णुहरिका दर्शन करके ब्रह्मकुण्डमें स्नान करे। 

तत्पश्चात् चक्रतीर्थमें स्नान करके मनुष्य भगवान् चक्रहरिका दर्शन करे। 

उसके बाद धर्महरिका दर्शन करके वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। 

प्रत्येक एकादशीको यह यात्रा शुभकारक होती है।




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बुद्धिमान् पुरुष प्रातःकाल उठकर स्वर्गद्वारके जलमें गोता लगावे। 

फिर नित्य कर्म करके अयोध्यापुरीका दर्शन करे। 

तत्पश्चात् पुनः सरयूका दर्शन करके वीर मत्तगजेन्द्र, वन्दीदेवी, शीतलादेवी और वटुकभैरवका दर्शन करे। 

उनके आगे सरोवरमें स्नानकर महाविद्याका दर्शन करे। 

तत्पश्चात् पिण्डारकका दर्शन करे। 

अष्टमी और चतुर्दशीको यह यात्रा फलवती होती है। 

अंगारक चतुर्थीको पूर्वोक्त देवताओंके साथ - साथ समस्त कामनाओंकी सिद्धिके लिये विघ्नेशका भी दर्शन करे। 


पूर्ववत् प्रातः काल उठकर बुद्धिमान् पुरुष ब्रह्मकुण्डके जलमें स्नान करे। 

फिर विष्णु और विष्णुहरिका दर्शन करके मनुष्यके मन, वाणी और शरीरकी शुद्धि होती है। 

उसके बाद मन्त्रेश्वर और महाविद्याका दर्शन करे। 

तत्पश्चात् सब कामनाओंकी सिद्धिके लिये अयोध्याका दर्शन करके जितेन्द्रिय पुरुष स्वर्गद्वारमें वस्त्रसहित स्नान करे। 

उससे मनुष्यके अनेक जन्मोंके उपार्जित नाना प्रकारके पाप नष्ट हो जाते हैं। 

इस लिये वस्त्रसहित स्नान अवश्य करे। 

यह यात्रा सब पापोंका नाश करनेवाली बतायी गयी है। 

जो प्रतिदिन इस प्रकार शुभ फल देनेवाली यात्रा करता है, उसकी सौ कोटि कल्पोंमें भी पुनरावृत्ति नहीं होती। 

अयोध्यापुरी सर्वोत्तम स्थान है। 

यह भगवान् विष्णुके चक्रपर प्रतिष्ठित है।




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सूतजी कहते हैं जो मनुष्य पवित्रचित्त होकर अयोध्याके इस अनुपम माहात्म्यका पाठ करता है अथवा जो श्रद्धासे इसको सुनता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। 

अतः मनुष्योंको सदा यत्नपूर्वक इसका श्रवण करना चाहिये। 

ब्राह्मणों तथा भगवान् विष्णुकी पूजा करनी चाहिये और अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणके लिये सुवर्ण आदि देना चाहिये। 

पुत्रकी इच्छा रखनेवाला पुरुष इस माहात्म्यको सुनकर पुत्र पाता है और धर्मार्थीको धर्मकी प्राप्ति होती है। 

जो श्रेष्ठ मनुष्य अति विस्तृत विधानके साथ वर्णित इस धर्मयुक्त आदिक्षेत्रके उत्तम माहात्म्यका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह लक्ष्मी से सनाथ होकर संसार में सब उत्तम भोगों को भोगने के पश्चात् भगवान् विष्णु के लोक में निवास करता है।


श्रीअयोध्या-महात्म्य सम्पूर्ण।

वैष्णवखण्ड समाप्त




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क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 


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