सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। श्री ऋगवेद श्री अर्थवेद और श्री विष्णू पुराण आधारित सुंदर कहानी ।।
श्री ऋगवेद श्री अर्थवेद और श्री विष्णू पुराण आधारित सुंदर कहानी
श्री ऋगवेद श्री अर्थवेद और श्री विष्णू पुराण आधारित सुंदर कहानी है कि एक बार एक किसान जंगल में लकड़ी बीनने गया तो उसने एक अद्भुत बात देखी।
कि....!
एक लोमड़ी के दो पैर नहीं थे...!
फिर भी वह खुशी खुशी घसीट कर चल रही थी।
यह कैसे ज़िंदा रहती है ।
जबकि किसी शिकार को भी नहीं पकड़ सकती ।
किसान ने सोचा....!
तभी उसने देखा कि एक शेर अपने दांतो में एक शिकार दबाए उसी तरफ आ रहा है।
सभी जानवर भागने लगे......!
उसने देखा कि शेर, उस लोमड़ी के पास आया।
उसे खाने की जगह, प्यार से शिकार का थोड़ा हिस्सा डालकर चला गया।
दूसरे दिन भी उसने देखा कि शेर बड़े प्यार से लोमड़ी को खाना देकर चला गया।
किसान ने इस अद्भुत लीला के लिए भगवान का मन में नमन किया।
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उसे अहसास हो गया कि भगवान जिसे पैदा करते है उसकी रोटी का भी इंतजाम कर ही देते हैं।
यह जानकर वह भी एक निर्जन स्थान चला गया और वहां पर चुपचाप बैठ कर भोजन का रास्ता देखता।
कई दिन गुज़र गए.....!
कोई नहीं आया।
वह मरणासन्न होकर वापस लौटने लगा।
तभी उसे एक विद्वान महात्मा मिले।
उन्होंने उसे भोजन पानी कराया ।
तो वह किसान उनके चरणों में गिरकर वह लोमड़ी की बात बताते हुए बोला।
महाराज...!
भगवान ने उस अपंग लोमड़ी पर दया दिखाई पर मैं तो मरते मरते बचा।
ऐसा क्यों हुआ कि भगवान् मुझ पर इतने निर्दयी हो गए ?
महात्मा उस किसान के सर पर हाथ फिराकर मुस्कुराकर बोले।
तुम इतने नासमझ हो गए कि तुमने भगवान का इशारा भी नहीं समझा इसी लिए तुम्हें इस तरह की मुसीबत उठानी पड़ी।
तुम ये क्यों नहीं समझे कि भगवान् तुम्हे उस शेर की तरह मदद करने वाला बनते देखना चाहते थे ।
निरीह लोमड़ी की तरह नहीं।
हमारे जीवन में भी ऐसा कई बार होता है ।
कि हमें चीजें जिस तरह समझनी चाहिए।
उसके विपरीत समझ लेते हैं।
ईश्वर ने हम सभी के अंदर कुछ न कुछ ऐसी शक्तियां दी हैं ।
जो हमें महान बना सकती हैं।
चुनाव हमें करना है।
शेर बनना है या लोमड़ी।
श्री जगन्नाथपुरी के राजा की भगवत्प्रसाद में बड़ी ही निष्ठा थी।
परंतु एक दिन राजा चौपड़ खेल रहा था।
इसी बीच श्री जगन्नाथ जी के पण्डाजी प्रसाद लेकर आये।राजा के दाहिने हाथ मे पासे था।
अतः उसने बायें हाथ से प्रसाद को छूकर उसे स्वीकार किया।
इस प्रकार प्रसाद का अपमान जानकार पाण्डाजी रुष्ट हो गये।
प्रसाद को राजमहल में न पहुँचाकर उसे वापस ले गये।
चौपड़ खेलकर राजा उठे और अपने महल मे गये।
वहाँ उन्हीने नयी बात सुनी कि मेरे अपराध के कारण अब मेरे पास प्रसाद कभी नहीं आयेगा।
राजा ने अपना अपराध स्वीकार कर अन्न - जल त्याग दिया।
उसने मन में विचारा कि जिस दाहिने हाथ ने प्रसाद का अपमान किया है।
उसे मैं अभी काट डालूँगा...!
यह मेरी सच्ची प्रतिज्ञा है।
ब्राह्मणों की सम्मति लेना उचित समझकर राजा ने उन्हें बुलाकर पूछा कि....!
यदि कोई भगवान् के प्रसाद का अपमान करे तो चाहे वह कोई अपना प्रिय अंग ही क्यों न हो।
उसका त्याग करना उचित है या नहीं।
ब्राह्मणों ने उत्तर दिया कि राजन्...!
अपराधी का तो सर्वथा त्याग ही उचित है।
राजा ने अपने मन में हाथ कटाना निश्चित कर लिया...!
परंतु मेरे हाथ को अब कौन काटे?
यह सोचकर मौन और खिन्न हो गया।
राजा को उदास देखकर मंत्री ने उदासी का कारण पूछा।
राजा ने कहा-
नित्य रात के समय एक प्रेत आता हैं और वह मुझे दिखाई भी देता है।
कमरे कि खिड़की मे हाथ डालकर वह बड़ा शोर करता है।
उसी के भय से मैं दुखी हूँ।
मंत्रीने कहा –
आज मैं आपके पलंग के पास सोऊँगा और आप अपने को दूसरी जगह छिपाकर रखिये...!
जब वह प्रेत झरोखे में हाथ डालकर शोर मचायेगा।
तभी मैं उसका हाथ काट दूंगा।
सुनकर राजा ने कहा -बहुत अच्छा! ऐसा ही करो।
रात होने पर मंत्रीजी के पहरा देते समय राजा ने अपने पलंग से उठकर झरोखे में हाथ डालकर शोर मचाया।
मंत्री ने उसे प्रेत का हाथ जानकर तलवार से काट डाला।
राजा का हाथ कटा देखकर मंत्रीजी अति लज्जित हुए और पछताते हुए कहने लगे कि...!
मैं बड़ा मुर्ख हूँ...!
मैंने यह क्या कर डाला?
राजा ने कहा-
तुम निर्दोष हो...!
मैं ही प्रेत था;
क्योंकि मैंने प्रभु से बिगाड़ किया था।
राजा की ऐसी प्रसाद निष्ठा देखकर अपने पण्डो से श्रीजगन्नाथ जी ने कहा कि....!
अभी - अभी मेरा प्रसाद ले जाकर राजा को दो और उसके कटे हुए हाथ को मेरे बाग़ में लगा दो।
भगवान् के आज्ञानुसार पण्डे लोग प्रसाद को लेकर दौड़े...!
उन्हें आते देख राजा आगे आकर मिले।
दोनों हाथो को फैलाकर प्रसाद लेते समय राजा का कटा हुआ हाथ पूरा निकल आया।
जैसा था....!
वैसा ही हो गया।
राजा ने प्रसाद को मस्तक और हृदय से लगाया।
भगवत् कृपा अनुभव कर के बड़ा भारी सुख हुआ।
पण्डे लोग राजा का कटा हुआ वह हाथ ले आये।
उसे बाग में लगा दिया गया।
उससे दौना के वृक्ष हो गये।
उसके पत्र - पुष्प नित्य ही श्री जगन्नाथ जी के श्रीअंग पर चढ़ते है।
उनकी सुगंध भगवान् को बहुत प्रिय लगती है।
बुधाग्रे न गुणान् ब्रूयात् साधु वेत्ति यत: स्वयम्।
मूर्खाग्रेपि च न ब्रूयाद्धुधप्रोक्तं न वेत्ति स:।।
अर्थात।
अपने गुण बुद्धिमान मनुष्य को न बतायें...!
वह उन्हें अपने आप जान लेगा।
और अपने गुण बुद्धिहीन ( मूर्ख ) मनुष्य को तो कतई न बतायें।
वह उन्हें समझ ही नही सकेगा ।
इस लिए अपने गुणों का अपने द्वारा किसी को नहीं बताना चाहिए।
जय श्री कृष्ण
कृष्ण और सुदामा का प्रेम बहुत गहरा था।
प्रेम भी इतना कि कृष्ण, सुदामा को रात दिन अपने साथ ही रखते थे।
कोई भी काम होता...!
दोनों साथ - साथ ही करते।
एक दिन दोनों वनसंचार के लिए गए और रास्ता भटक गए।
भूखे - प्यासे एक पेड़ के नीचे पहुंचे। पेड़ पर एक
ही फल लगा था।
कृष्ण ने घोड़े पर चढ़कर फल को अपने हाथ से तोड़ा।
कृष्ण ने फल के छह टुकड़े किए और अपनी आदत के मुताबिक पहला टुकड़ा सुदामा को दिया।
सुदामा ने टुकड़ा खाया और बोला...!
'बहुत स्वादिष्ट!
ऎसा फल कभी नहीं खाया।
एक टुकड़ा और दे दें।
दूसरा टुकड़ा भी सुदामा को मिल गया।
सुदामा ने एक टुकड़ा और कृष्ण से मांग लिया।
इसी तरह सुदामा ने पांच टुकड़े मांग कर खा लिए।
जब सुदामा ने आखिरी टुकड़ा मांगा...!
तो कृष्ण ने कहा...!
'यह सीमा से बाहर है।
आखिर मैं भी तो भूखा हूं।
मेरा तुम पर प्रेम है, पर तुम मुझसे प्रेम नहीं करते।'
और कृष्ण ने फल का टुकड़ा मुंह में रख लिया।
मुंह में रखते ही कृष्ण ने उसे थूक दिया...!
क्योंकि वह कड़वा था।
कृष्ण बोले...!
'तुम पागल तो नहीं, इतना कड़वा फल कैसे खा गए?
उस समय सुदामा का उत्तर था,
'जिन हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले...!
एक कड़वे फल की शिकायत कैसे करूं?
सब टुकड़े इस लिए लेता गया ताकि आपको पता न चले।
दोस्तों जँहा मित्रता हो वँहा संदेह न हो, आओ कुछ ऐसे रिश्ते रचे...!
इस लिये अच्छे दिनों मे अहंकार न करो और खराब समय में थोड़ा सब्र करो
.🙏🙏जय श्री कृष्ण🙏🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Ramanath Swami Car Parking Ariya Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits, V.O.C. Nagar, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद..
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण
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